HI/Prabhupada 0229 - मैं देखना चाहता हूँ कि एक शिष्य नें श्री कृष्ण के तत्वज्ञान को समझा है: Difference between revisions

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प्रभुपाद: कठिनाई यह है कि हम एक नियमित छात्र बनना नहीं चाहते हैं । संयोग से, यहाँ और वहाँ, यहाँ और वहाँ , लेकिन मैं एक वही बना रहता हूँ । यह एक विज्ञान है । वेद कहते हैं, तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभीगच्छेत ( मु उ १।२।१२) अगर तुम गंभीर हो यह सीखने के लिए, तद विज्ञान । तद विज्ञानाम गुरुम एवाभीगच्छेत । तुम्हे एक एक सदाशयी गुरु के पास जाना चाहिए जो तुम्हे सिखा सकता है । कोई भी गंभीर नहीं है । यही कठिनाई है । हर कोई सोच रहा है "मैं आज़ाद हूँ," हालांकि प्रकृति उसके कान खींच रही है । प्रकृते: क्रियमानानि गुनै कर्माणि सर्वश: ([[Vanisource:BG 3.27|भ गी ३।२७]]) तुमने एसा किया है, यहाँ आओ, बैठ जाओ । यह चल रहा है, प्रकृति । अहंकार-विमूढात्मा कर्ताहम इति मन्यते ([[Vanisource:BG 3.27|भ गी ३।२७]]) । वह मूर्ख अपने झूठे अहंकार के तहत समझ रहा है "मैं सब कुछ हूँ । मैं स्वतंत्र हूँ ।" जो उस तरह से सोच रहे हैं, वे वर्णित हैं भगवद गीता में, अहंकार-विमूढात्मा । झूठा अहंकार घबराए हुअा है और सोच रहा है, "जो मैं सोच रहा हूँ वह ठीक है ।" नहीं, तुम अपने खुद के तरीके मसे नहीं सोच सकते हो । कृष्ण जैसा कहते हैं वैसा हमें सोचना चाहिए, तो तुम सही हो । अन्यथा, तुम माया के जादू के तहत सोच रहे हो, बस । ्त्रिभिर गुणमायैर् भवैर मोहित, ना अभिजानाति माम एबय: परम अव्ययम मयाध्यक्शेन प्रकृति सूयते स चराचरम ([[Vanisource:BG 9.10|भ गी ९।१०]]) । यह बातें हैं । भगवद गीता को अच्छी तरह से पढ़ो, नियमों और विनियमों का पालन करो, तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा । और जब तक तुम सोचते हो, यह भी सही है, वह भी सही है, तो तुम सही काम नहीं करोगे । तुम गुमराह किए जाअोगे । बस । यह नहीं है ... कृष्ण कहते हैं, यह सही हैं । वह (अस्पष्ट) होना चाहिए. नहीं तो तुम गुमराह किए जाअोगे । तो हम उस तरह से इस तत्वज्ञान का प्रचार करने की कोशिश कर रहे हैं । शायद, बहुत छोटी संख्या है, लेकिन एकश् चंद्रस तमो हंति न चित्तर सहस्र अगर एक चांद तो पर्याप्त है । लाखों सितारों की जगमगाहट का क्या लाभ है । तो यही हमारा प्रचार है । अगर एक आदमी भी समझ सकता है कि कृष्ण तत्वज्ञान क्या है, तो हमारा उपदेश सफल है, बस । हम लाखों सितारों नहीं चाहिए बिना रोशनी के । बिना रोशनी के लाखों सितारों का क्या उपयोग है? यह चानक्य पंडित की सलाह है, वरम एक पुत्र न छवुर कसतन अपि । एक बेटा, अगर वह सीखा हुअा, यह पर्याप्त है । न छवुर कसतन अपि । सैकड़ों बेटे जो सभी मूर्ख और दुष्ट हैं उनक क्या उपयोग है? एकश् चंद्रस तमो हंति न चित्तर सहस्र । एक चाँद रोशन करने के लिए पर्याप्त है । लाखों सितारों की कोई जरूरत नहीं है । इसी तरह, हम लाखों शिष्यों के पीछे नहीं हैं । मैं देखना चाहता हूँ कि एक शिष्य नें श्री कृष्ण के तत्वज्ञान को समझा है । यही सफलता है । बस । कृष्ण कहते हैं, यतताम अपि सिद्धानाम ([[Vanisource:BG 7.3|भ गी ७।३]]), कश्चिद वेत्ति मामा तत्वत: तो, सब से पहले, सिद्ध बनना बहुत मुश्किल काम है । और फिर, यतताम अपि सिद्धानाम ([[Vanisource:BG 7.3|भ गी ७।३]]) । मुश्किल काम अभी बाकी है । तो, श्री कृष्ण का तत्वज्ञान को समझना थोड़ा मुश्किल है । अगर वे इतनी आसानी से समझ रहे हैं, तो वह समझ नहीं है । यह आसान है, यह आसान है अगर तुम कृष्ण के शब्दों को स्वीकार करते हो, तो यह बहुत आसान है । कठिनाई कहां है? कृष्ण कहते हैं, मन मना भव मद-भक्तो मद-याजी माम नमसकुरु, हमेशा मेरे बारे में सोचो । तो कठिनाई कहाँ है? तुमने कृष्ण की तस्वीर देखी है, कृष्ण की मूर्ति, और अगर तुम कृष्ण के बारे में सोचो तो क्या मुश्किल है ? हो न हो, हमें कुछ सोचना तो है । बजाय कुछ अौर के, क्यों नहीं कृष्ण के बारे में सोचें? कठिनाई कहां है? लेकिन वह गंभीरता से नहीं लेता है । उसे कृष्ण को छोड़कर, कई बातों के बारे में सोचना है । और कृष्ण कहते हैं मन मना भव मद भक्त कृष्ण भावनामृत को अपनाने में कोई कठिनाई नहीं है । बिल्कुल भी नहीं । लेकिन लोगों नहीं अपनाऍगे, यही कठिनाई है । वे केवल बहस करेंगे । कूटक । कृष्ण कहते हैं मन-मना भव मद भक्त, इसके खिलाफ तर्क कहाँ है? तुम कह रहे हो, कि वे कृष्ण के बारे में सोच नहीं सकते हैं, वे कृष्ण के बारे में नहीं कह सकता हैं । और कृष्ण कहते हैं मन मना भव मद-भक्त यह तर्क है, यह तत्वज्ञान नहीं है । तत्वज्ञान है, प्रत्यक्ष है, तुम्हे इस तरह से करना चाहिए, बस । तुम इसे करतो और परिणाम प्राप्त करो । तुम कुछ खरीदने के लिए जाते हो, कीमत तय हो गई है, तुम मूल्य का भुगतान करो और इसे ले लो । तर्क कहां है? अगर तुम उस चीज़ के बारे में गंभीर हो, तुम कीमत अदा करो और ले लो । यही श्रील रूपा गोस्वामी की सलाह है । कृष्ण भक्ति रस-भावित-मति क्रियताम यदि कुतो अपि लभ्यते । अगर तुम कहीं से खरीद सकते हो कृष्ण का चिन्तन, कृष्ण भक्ति रस-भावित मति यही हमने अनुवाद किया है, "कृष्ण भावनामृत ।" अगर तुम यह भावनामृत खरीद सकते हो, कृष्ण भावनामृत, कहीं से, इसे तुरंत खरीद लो । कृष्ण भक्ति रस-भावित-मति क्रियताम, बस खरीद लो, यदि कुतो अपि लभ्यते, अगर यह कहीं उपलब्ध है । और अगर मुझे खरीदना है, तो क्या कीमत? तत्र लौल्यम एकम मूलम न जन्म कोटिबि: लभयते अगर तुम यह कीमत चाहते हो, तो वह कीमत है तुम्हारी उत्सुकता । और इस उत्सुकता को प्राप्त करने के लिए , कई लाखों जन्म लेने पडते हैं । क्यों तुम्हे कृष्ण चाहिए? जैसे उस दिन मैने कहा कि अगर किसी ने कृष्ण को देखा है, वह कृष्ण के पीछे पागल हो जायेगा. यही निशानी है ।
प्रभुपाद: कठिनाई यह है कि हम एक नियमित छात्र बनना नहीं चाहते हैं । संयोग से, यहाँ और वहाँ, यहाँ और वहाँ , लेकिन मैं एक वही बना रहता हूँ । यह एक विज्ञान है । वेद कहते हैं, तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभीगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) | अगर तुम गंभीर हो यह सीखने के लिए, तद विज्ञान । तद विज्ञानाम गुरुम एवाभीगच्छेत । तुम्हे एक एक प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए जो तुम्हे सिखा सकता है । कोई भी गंभीर नहीं है । यही कठिनाई है । हर कोई सोच रहा है "मैं आज़ाद हूँ," हालांकि प्रकृति उसके कान खींच रही है । प्रकृते: क्रियमाणानि गुनै कर्माणि सर्वश: ([[HI/BG 3.27|भ.गी. ३.२७]]) | तुमने एसा किया है, यहाँ आओ, बैठ जाओ । यह चल रहा है, प्रकृति ।  
 
अहंकार-विमूढात्मा कर्ताहम इति मन्यते ([[HI/BG 3.27|भ.गी. ३.२७]])। वह मूर्ख अपने झूठे अहंकार के तहत समझ रहा है "मैं सब कुछ हूँ । मैं स्वतंत्र हूँ ।" जो उस तरह से सोच रहे हैं, वे वर्णित हैं भगवद गीता में, अहंकार-विमूढात्मा । झूठे अहंकार से घबराया हुअा है और सोच रहा है, "जो मैं सोच रहा हूँ वह ठीक है ।" नहीं, तुम अपने खुद के तरीकेसे नहीं सोच सकते हो । कृष्ण जैसा कहते हैं वैसा हमें सोचना चाहिए, तो तुम सही हो । अन्यथा, तुम माया के फंदे के तहत सोच रहे हो, बस । त्रिभिर गुणमायैर भवैर मोहित, ना अभिजानाति माम एभय: परम अव्ययम | मयाध्यक्षेण प्रकृति सूयते स चराचरम ([[HI/BG 9.10|भ.गी. ९.१०]]) । यह बातें हैं ।  
 
भगवद गीता को अच्छी तरह से पढ़ो, नियमों और विनियमों का पालन करो, तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा । और जब तक तुम सोचते हो, यह भी सही है, वह भी सही है, तो तुम सही काम नहीं करोगे । तुम गुमराह किए जाअोगे । बस । यह नहीं है ... कृष्ण कहते हैं, यह सही हैं । वह (अस्पष्ट) होना चाहिए | नहीं तो तुम गुमराह किए जाअोगे । तो हम उस तरह से इस तत्वज्ञान का प्रचार करने की कोशिश कर रहे हैं । शायद, बहुत छोटी संख्या है, लेकिन एकश् चंद्रस तमो हंति न चित्तर सहस्र | अगर एक चांद तो पर्याप्त है । लाखों सितारों की जगमगाहट का क्या लाभ है । तो यही हमारा प्रचार है । अगर एक आदमी भी समझ सकता है कि कृष्ण तत्वज्ञान क्या है, तो हमारा उपदेश सफल है, बस ।  
 
हम लाखों सितारे नहीं चाहिए बिना रोशनी के । बिना रोशनी के लाखों सितारों का क्या उपयोग है? यह चाणक्य पंडित की सलाह है, वरम एक पुत्र न छवुर कसतन अपि । एक बेटा, अगर वह सीखा हुअा, यह पर्याप्त है । न छवुर कसतन अपि । सैकड़ों बेटे जो सभी मूर्ख और दुष्ट हैं उनक क्या उपयोग है? एकश् चंद्रस तमो हंति न चित्तर सहस्र । एक चाँद रोशन करने के लिए पर्याप्त है । लाखों सितारों की कोई जरूरत नहीं है । इसी तरह, हम लाखों शिष्यों के पीछे नहीं हैं । मैं देखना चाहता हूँ कि एक शिष्य नें श्री कृष्ण के तत्वज्ञान को समझा है । यही सफलता है । बस ।  
 
कृष्ण कहते हैं, यतताम अपि सिद्धानाम, कश्चिद वेत्ति मामा तत्वत: ([[HI/BG 7.3|भ.गी. ७.३]]), तो, सब से पहले, सिद्ध बनना बहुत मुश्किल काम है । और फिर, यतताम अपि सिद्धानाम ([[HI/BG 7.3|भ.गी. ७.३]]) । मुश्किल काम अभी बाकी है । तो, श्री कृष्ण का तत्वज्ञान को समझना थोड़ा मुश्किल है । अगर वे इतनी आसानी से समझ रहे हैं, तो वह समझ नहीं है । यह आसान है, यह आसान है अगर तुम कृष्ण के शब्दों को स्वीकार करते हो, तो यह बहुत आसान है । कठिनाई कहां है? कृष्ण कहते हैं, मनमना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु, हमेशा मेरे बारे में सोचो । तो कठिनाई कहाँ है?  
 
तुमने कृष्ण की तस्वीर देखी है, कृष्ण की मूर्ति, और अगर तुम कृष्ण के बारे में सोचो तो क्या मुश्किल है ? आख़िरकार, हमें कुछ सोचना तो है । बजाय कुछ अौर के, क्यों कृष्ण के बारे में सोचें? कठिनाई कहां है? लेकिन वह गंभीरता से नहीं लेता है । उसे कृष्ण को छोड़कर, कई बातों के बारे में सोचना है । और कृष्ण कहते हैं मन-मना भव मद भक्त | कृष्ण भावनामृत को अपनाने में कोई कठिनाई नहीं है । बिल्कुल भी नहीं । लेकिन लोग नहीं अपनाऍगे, यही कठिनाई है । वे केवल बहस करेंगे । कूटक । कृष्ण कहते हैं मन-मना भव मद भक्त, इसके खिलाफ तर्क कहाँ है? तुम कह रहे हो, कि वे कृष्ण के बारे में सोच नहीं सकते हैं, वे कृष्ण के बारे में नहीं कह सकते हैं । और कृष्ण कहते हैं मन-मना भव मद-भक्त | यह तर्क है, यह तत्वज्ञान नहीं है । तत्वज्ञान है, प्रत्यक्ष है, तुम्हे इस तरह से करना चाहिए, बस ।  
 
तुम इसे करो और परिणाम प्राप्त करो । तुम कुछ खरीदने के लिए जाते हो, कीमत तय हो गई है, तुम मूल्य का भुगतान करो और इसे ले लो । तर्क कहां है? अगर तुम उस चीज़ के बारे में गंभीर हो, तुम कीमत अदा करो और ले लो । यही श्रील रूप गोस्वामी की सलाह है । कृष्ण भक्ति रस-भाविता-मति क्रियताम यदि कुतो अपि लभ्यते । अगर तुम कहीं से खरीद सकते हो कृष्ण का चिन्तन, कृष्ण भक्ति रस-भावित मति | यही हमने अनुवाद किया है, "कृष्ण भावनामृत ।" अगर तुम यह भावनामृत खरीद सकते हो, कृष्ण भावनामृत, कहीं से, इसे तुरंत खरीद लो । कृष्ण भक्ति रस-भावित-मति क्रियताम, बस खरीद लो, यदि कुतो अपि लभ्यते, अगर यह कहीं उपलब्ध है । और अगर मुझे खरीदना है, तो क्या कीमत? तत्र लौल्यम एकम मूलम न जन्म कोटिभी: लभ्यते | अगर तुम यह कीमत चाहते हो, तो वह कीमत है तुम्हारी उत्सुकता । और इस उत्सुकता को प्राप्त करने के लिए, कई लाखों जन्म लेने पडते हैं । क्यों तुम्हे कृष्ण चाहिए? जैसे उस दिन मैने कहा कि अगर किसी ने कृष्ण को देखा है, वह कृष्ण के पीछे पागल हो जायेगा | यही निशानी है ।  
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Latest revision as of 18:21, 17 September 2020



Conversation with Indian Guests -- April 12, 1975, Hyderabad

प्रभुपाद: कठिनाई यह है कि हम एक नियमित छात्र बनना नहीं चाहते हैं । संयोग से, यहाँ और वहाँ, यहाँ और वहाँ , लेकिन मैं एक वही बना रहता हूँ । यह एक विज्ञान है । वेद कहते हैं, तद विज्ञानार्थम स गुरुम एवाभीगच्छेत (मुंडक उपनिषद १.२.१२) | अगर तुम गंभीर हो यह सीखने के लिए, तद विज्ञान । तद विज्ञानाम गुरुम एवाभीगच्छेत । तुम्हे एक एक प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए जो तुम्हे सिखा सकता है । कोई भी गंभीर नहीं है । यही कठिनाई है । हर कोई सोच रहा है "मैं आज़ाद हूँ," हालांकि प्रकृति उसके कान खींच रही है । प्रकृते: क्रियमाणानि गुनै कर्माणि सर्वश: (भ.गी. ३.२७) | तुमने एसा किया है, यहाँ आओ, बैठ जाओ । यह चल रहा है, प्रकृति ।

अहंकार-विमूढात्मा कर्ताहम इति मन्यते (भ.गी. ३.२७)। वह मूर्ख अपने झूठे अहंकार के तहत समझ रहा है "मैं सब कुछ हूँ । मैं स्वतंत्र हूँ ।" जो उस तरह से सोच रहे हैं, वे वर्णित हैं भगवद गीता में, अहंकार-विमूढात्मा । झूठे अहंकार से घबराया हुअा है और सोच रहा है, "जो मैं सोच रहा हूँ वह ठीक है ।" नहीं, तुम अपने खुद के तरीकेसे नहीं सोच सकते हो । कृष्ण जैसा कहते हैं वैसा हमें सोचना चाहिए, तो तुम सही हो । अन्यथा, तुम माया के फंदे के तहत सोच रहे हो, बस । त्रिभिर गुणमायैर भवैर मोहित, ना अभिजानाति माम एभय: परम अव्ययम | मयाध्यक्षेण प्रकृति सूयते स चराचरम (भ.गी. ९.१०) । यह बातें हैं ।

भगवद गीता को अच्छी तरह से पढ़ो, नियमों और विनियमों का पालन करो, तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा । और जब तक तुम सोचते हो, यह भी सही है, वह भी सही है, तो तुम सही काम नहीं करोगे । तुम गुमराह किए जाअोगे । बस । यह नहीं है ... कृष्ण कहते हैं, यह सही हैं । वह (अस्पष्ट) होना चाहिए | नहीं तो तुम गुमराह किए जाअोगे । तो हम उस तरह से इस तत्वज्ञान का प्रचार करने की कोशिश कर रहे हैं । शायद, बहुत छोटी संख्या है, लेकिन एकश् चंद्रस तमो हंति न चित्तर सहस्र | अगर एक चांद तो पर्याप्त है । लाखों सितारों की जगमगाहट का क्या लाभ है । तो यही हमारा प्रचार है । अगर एक आदमी भी समझ सकता है कि कृष्ण तत्वज्ञान क्या है, तो हमारा उपदेश सफल है, बस ।

हम लाखों सितारे नहीं चाहिए बिना रोशनी के । बिना रोशनी के लाखों सितारों का क्या उपयोग है? यह चाणक्य पंडित की सलाह है, वरम एक पुत्र न छवुर कसतन अपि । एक बेटा, अगर वह सीखा हुअा, यह पर्याप्त है । न छवुर कसतन अपि । सैकड़ों बेटे जो सभी मूर्ख और दुष्ट हैं उनक क्या उपयोग है? एकश् चंद्रस तमो हंति न चित्तर सहस्र । एक चाँद रोशन करने के लिए पर्याप्त है । लाखों सितारों की कोई जरूरत नहीं है । इसी तरह, हम लाखों शिष्यों के पीछे नहीं हैं । मैं देखना चाहता हूँ कि एक शिष्य नें श्री कृष्ण के तत्वज्ञान को समझा है । यही सफलता है । बस ।

कृष्ण कहते हैं, यतताम अपि सिद्धानाम, कश्चिद वेत्ति मामा तत्वत: (भ.गी. ७.३), तो, सब से पहले, सिद्ध बनना बहुत मुश्किल काम है । और फिर, यतताम अपि सिद्धानाम (भ.गी. ७.३) । मुश्किल काम अभी बाकी है । तो, श्री कृष्ण का तत्वज्ञान को समझना थोड़ा मुश्किल है । अगर वे इतनी आसानी से समझ रहे हैं, तो वह समझ नहीं है । यह आसान है, यह आसान है अगर तुम कृष्ण के शब्दों को स्वीकार करते हो, तो यह बहुत आसान है । कठिनाई कहां है? कृष्ण कहते हैं, मनमना भव मद-भक्तो मद्याजी माम नमस्कुरु, हमेशा मेरे बारे में सोचो । तो कठिनाई कहाँ है?

तुमने कृष्ण की तस्वीर देखी है, कृष्ण की मूर्ति, और अगर तुम कृष्ण के बारे में सोचो तो क्या मुश्किल है ? आख़िरकार, हमें कुछ सोचना तो है । बजाय कुछ अौर के, क्यों न कृष्ण के बारे में सोचें? कठिनाई कहां है? लेकिन वह गंभीरता से नहीं लेता है । उसे कृष्ण को छोड़कर, कई बातों के बारे में सोचना है । और कृष्ण कहते हैं मन-मना भव मद भक्त | कृष्ण भावनामृत को अपनाने में कोई कठिनाई नहीं है । बिल्कुल भी नहीं । लेकिन लोग नहीं अपनाऍगे, यही कठिनाई है । वे केवल बहस करेंगे । कूटक । कृष्ण कहते हैं मन-मना भव मद भक्त, इसके खिलाफ तर्क कहाँ है? तुम कह रहे हो, कि वे कृष्ण के बारे में सोच नहीं सकते हैं, वे कृष्ण के बारे में नहीं कह सकते हैं । और कृष्ण कहते हैं मन-मना भव मद-भक्त | यह तर्क है, यह तत्वज्ञान नहीं है । तत्वज्ञान है, प्रत्यक्ष है, तुम्हे इस तरह से करना चाहिए, बस ।

तुम इसे करो और परिणाम प्राप्त करो । तुम कुछ खरीदने के लिए जाते हो, कीमत तय हो गई है, तुम मूल्य का भुगतान करो और इसे ले लो । तर्क कहां है? अगर तुम उस चीज़ के बारे में गंभीर हो, तुम कीमत अदा करो और ले लो । यही श्रील रूप गोस्वामी की सलाह है । कृष्ण भक्ति रस-भाविता-मति क्रियताम यदि कुतो अपि लभ्यते । अगर तुम कहीं से खरीद सकते हो कृष्ण का चिन्तन, कृष्ण भक्ति रस-भावित मति | यही हमने अनुवाद किया है, "कृष्ण भावनामृत ।" अगर तुम यह भावनामृत खरीद सकते हो, कृष्ण भावनामृत, कहीं से, इसे तुरंत खरीद लो । कृष्ण भक्ति रस-भावित-मति क्रियताम, बस खरीद लो, यदि कुतो अपि लभ्यते, अगर यह कहीं उपलब्ध है । और अगर मुझे खरीदना है, तो क्या कीमत? तत्र लौल्यम एकम मूलम न जन्म कोटिभी: लभ्यते | अगर तुम यह कीमत चाहते हो, तो वह कीमत है तुम्हारी उत्सुकता । और इस उत्सुकता को प्राप्त करने के लिए, कई लाखों जन्म लेने पडते हैं । क्यों तुम्हे कृष्ण चाहिए? जैसे उस दिन मैने कहा कि अगर किसी ने कृष्ण को देखा है, वह कृष्ण के पीछे पागल हो जायेगा | यही निशानी है ।