HI/Prabhupada 0258 - संवैधानिक रूप से हम सब नौकर हैं

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Lecture -- Seattle, September 27, 1968

एक अच्छी बंगाली कविता है,

कृष्ण भुलिया जीव भोग वांछा
करे पाशेते माया ताते जापटिया धरे

जैसे ही हमारी मूल चेतना भौतिक भोग की चेतना के साथ प्रदूषित हो जाती है, कि "मुझे प्रभु बनना है सभी पदार्थों का... " जैसे ही हम इस तरह से हमारी चेतना को मोडते हैं, तो हमारी परेशानियाँ शुरू होती हैं । इसके तत्काल बाद माया । यही चेतना, कि "मैं अपनी पूरी क्षमता से इस भौतिक दुनिया का आनंद ले सकता हूँ ..." हर कोई यह करने की कोशिश कर रहा है । हम में से हर एक, चींटी से शुरुआत होके उच्चतम जीवित प्राणी ब्रह्म तक, हर कोई प्रभु के बनने की कोशिश कर रहा है । हाल ही में जैसे तुम्हारे देश में इतना सारा प्रचार हो रहा है अध्यक्ष बनने के लिए । क्यों? वही विचार है. हर कोई किसी तरह का भगवान बनना चाहता है । यह माया है । हमारा कृष्ण भावनामृत आंदोलन पूरी तरह से इसके विपरीत है । हम सिर्फ कृष्ण के नौकर का नौकर का नौकर का नौकर बनने की कोशिश कर रहे हैं । बिल्कुल विपरीत । बजाय स्वामी बनने के, हम कृष्ण के नौकर का नौकर बनना चाहते हैं । गोपी-भर्तु पद-कमलयोर दास-दासानुदास (चै च मध्य १३।८०) ।

तो सभ्यता की आधुनिक प्रवृत्ति में, लोग कह सकते हैं कि यह गुलामी की मानसिकता है । यह बहुत अच्छा विचार है. "क्यों मैं एक गुलाम बनुँ ? मैं मालिक बनुँगा । " लेकिन हमें यह चेतना के बारे में पता नहीं है , कि "मैं मालिक बनुँगाा " ही मेरे दुख का कारण है । इस तत्वज्ञान को समझना होगा । क्योंकि संवैधानिक रूप से हम सब नौकर हैं । इस भौतिक दुनिया का मालिक बनने के नाम पर हम अपनी इंद्रियों का दास बन गए हैं । क्योंकि संवैधानिक रूप से हम नौकर हैं । हम सेवा के बिना नहीं रह सकते हैं । इस मीटिंग में बैठे हैं जो हम में से हर एक नौकर है । अब, इन लड़कों नें कृष्ण भावनामृत को अपनाया है, वे कृष्ण के नौकर बनने के लिए सहमत हो गए हैं । तो उनकी समस्या का हल मिल गया है । लेकिन दूसरे जो सोच रहे हैं िक "क्यों मैं स्वामीजी या भगवान का नौकर बनुँ ? मैं मास्टर बनूँगा..... "लेकिन वास्तव में, वह मालिक नहीं बन सकता है । वह अपनी इंद्रियों का दास है, बस । बस समझने की कोशिश करो । दास बनना ही है, लेकिन वह अपनी वासना का दास है । वह अपने लोभ का दास है, वह अपने लोभ का दास है, अपने क्रोध का दास है, तो कई बातों का दास । कामादीनाम कटि न कटिधा पालिता दुर्निदेश: । उच्च स्तर पर, कोइ मानवता का सेवक बन गया है, कोई समाज का नौकर बन गया है, कोई, देश का सेवक बन गया है, लेकिन वास्तविक उद्देश्य है "मैं मालिक बनूँगा ।" यही बीमारी है । राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार, वे अपने विभिन्न अभिव्यक्तियों को पेश कर रहे हैं नहीं, घोषणा पत्र, कि "मैं बहुत अच्छी तरह से देश की सेवा करूँगा । मुझे अपना वोट दो ।" लेकिन असली विचार यह है कि " कैसे भी हो, मुझे देश का मालिक बनना है ।" तो यह माया है । अगर हम इस छोटे से तत्वज्ञान को समझते हैं, कि संवैधानिक रूप से मैं दास हूं ... इसमें कोई शक नहीं है । कोई भी नहीं कह सकता है कि "मैं आज़ाद हूँ, मैं मालिक हूँ ।" कोई नहीं कह सकता है । अगर वह उस तरह सोचता है, यह माया है । यह मिथ्या है ।