HI/Prabhupada 0281 - मनुष्य पशु है, लेकिन तर्कसंगत जानवर

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Lecture on BG 7.2 -- San Francisco, September 11, 1968

यज ज्ञात्वा नेह भूयो अन्यज ज्ञातव्यम अवशिश्यते भूय़ो का मतलब है कुछ अौर समझने की जरूरत नहीं । सब कुछ पूरी तरह से जाना जाता है । फिर यह सवाल हो सकता है कि लोग कृष्ण को क्यों समझ नहीं पाते । यह, ज़ाहिर है, एक प्रासंगिक सवाल है, और अगले श्लोक में कृष्ण द्वारा उत्तर दिया जाता है ।

मनुष्यानाम सहस्रेषु कशचिद यतति सिद्धये यतताम अपि सिद्धानाम कश्चिन माम वेत्ति तत्वत:

(भ गी ७।३)

मनुष्यानाम सहस्रेषु । पुरुषों के विभिन्न प्रकार होते हैं । जैसे हम केवल इस ग्रह पर रहने वालों को जानते हैं, अन्य ग्रहों में सैकड़ों और हजारों पुरुषों की किस्में हैं । यहां भी हम बैठे हैं, इतने सारे देवि और सज्जन , विभिन्न किस्में हैं । और अगर तुम बाहर , विभिन्न किस्में हैं । अगर तुम किसी दूसरे देश में जाते हो - भारत, जापान, चीन -तुम अलग पाअोगे । इसलिए यह कहा जाता है, मनुष्यानाम सहस्रेषु (भ गी ७।३), पुरुषों के कई, कई अलग अलग किस्मों में से, कशचिद यतति सिद्धये, केवल कुछ ही लोग जीवन के तत्वज्ञान को समझने का फैसला करते हैं । क्योंकि मनुष्य तर्कसंगत जानवर है । मनुष्य तर्कसंगत है । मनुष्य पशु है, लेकिन तर्कसंगत जानवर । आदमी के लिए विशेष उपहार यह है कि वह तय कर सकता है कि बुरा क्या है, क्या अच्छा है । जानवरों की तुलना में उसे अतिरिक्त ज्ञान है । तो वर्तमान समय में शिक्षा प्रणाली इतनी बुरा है कि यह व्यावहारिक रूप से पशु शिक्षा है । पशु शिक्षा का मतलब है जब हम बहुत ज्यादा रुचि रखते हैं भोजन, नींद, संभोग और बचाव में, यह पशु शिक्षा है । खाना, सोना, संभोग और बचाव, ओह, तुम पशुओं में पाअोगे । कोई फर्क नहीं है । उनके अपने स्वयं के संभोग के उपाय हैं, अपने नींद के उपाय हैं, खुद के बचाव के उपाय हैं । तुम एक सुनसान जगह में अपनी पत्नी के साथ संभोग कर रहे हो, एक अच्छे कमरे में, एक सजाया हुए कमरे में, लेकिन एक कुत्ता सड़क पर संभोग कर रहा है, लेकिन परिणाम एक ही है । तो संभोग की विधि में सुधार करना सभ्यता की उन्नति नहीं है । यह सभ्य जानवरों की सभ्यता है, बस । पशु भी, कुत्ता भी दूसरे कुत्तों से बचाव कर सकता है । अौर अगर तुम सोचते हो कि तुमने परमाणु ऊर्जा की खोज की है अपने बचाव के लिए, यह मानव सभ्यता की उन्नति नहीं है । बचाव का उपाय, बस । इसी तरह, तुम विश्लेषण करने चले जाअो । मनुष्य का विश्लेषण एकदम सही है जब वह अपनी संवैधानिक स्थिति की खोज करता है । "मैं कौन हूँ? मैं क्या हूँ? क्या मैं यह शरीर हूँ? मैं क्यों इस दुनिया में अाया हूँ ? " यह जिज्ञासा जरूरी है । यह इंसान की विशेष विशेषाधिकार है । इसलिए जैसे ही हम जिज्ञासा शुरू करते हैं, "मैं कौन हूँ?" अौर अगर वह इस तरह से खोज करते चले जाए, तो फिर वह भगवान के पास आ जाएगा । क्योंकि वह भगवान का अभिन्न अंग है । वह भगवान का नमूना है । इसलिए मनुष्यानाम सहस्रेशु ( भ गी ७।३) कई, कई हजारों पुरुषों की किस्मों में से, एक, या कुछ व्यक्ति, भगवान के बारे में जानने के लिए दिलचस्पी रखते हैं । न केवल जानते... भगवान को जानने के लिए ही नहीं, खुद के बारे में जानने के लिए । अगर वह वास्तव में खुद को बारे में जानना चाहता है, तो धीरे - धीरे वह भगवान के पास आ जाएगा ।