HI/Prabhupada 0302 - लोग आत्मसमर्पण करने के लिए इच्छुक नहीं हैं: Difference between revisions

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प्रभुपाद: तो हम भगवान " चैतन्य की शिक्षाओं" से पढ़ रहे हैं । हमने हमारी पिछली बैठक में शुरू किया है, और हम इसे फिर से पढ़ेंगे । तुम इसे पढ़ोगे ? हां ।
प्रभुपाद: तो हम "भगवान चैतन्य की शिक्षाओं" से पढ़ रहे हैं । हमने हमारी पिछली बैठक में शुरू किया है, और हम इसे फिर से पढ़ेंगे । तुम इसे पढ़ोगे ? हां ।  


तमाल कृष्ण: पृष्ठ उनतीस, लेकिन आपने कहां पढ़ना खत्म किया?
तमाल कृष्ण: पृष्ठ उनतीस, लेकिन आपने कहां पढ़ना खत्म किया?  


प्रभुपाद: इसे कहीं से भी पढ़ो, बस । हां ।
प्रभुपाद: इसे कहीं से भी पढ़ो, बस । हां ।  


तमाल कृष्ण: ठीक है । "भगवद गीता में हमें सूचित किया जाता है कि संवैधानिक स्वभाव व्यक्तिगत जीव का आत्मा है । वह पदार्थ नहीं है । इसलिए आत्मा के रूप में वह परमात्मा का अभिन्न अंग है, निरपेक्ष सत्य, देवत्व के व्यक्तित्व । हम यह भी सीखते हैं कि आत्मा का कर्तव्य है आत्मसमर्पण करना, तभी वह खुश हो सकता है । भगवद गीता का अंतिम अनुदेश है कि आत्मा को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करना होगा, परम आत्मा को, कृष्ण, और उस तरह से खुशी का एहसास पाना होगा । यहां भी भगवान चैतन्य सनातन के सवालों का जवाब दे रहे हैं, वही सत्य को दोहराता हैं, लेकिन उसे आत्मा के बारे में जानकारी न देते हुए जो पहले से ही गीता में वर्णित है ।"
तमाल कृष्ण: ठीक है । "भगवद गीता में हमें सूचित किया जाता है कि संवैधानिक स्वभाव व्यक्तिगत जीव का आत्मा है । वह पदार्थ नहीं है । इसलिए आत्मा के रूप में वह परमात्मा का, निरपेक्ष सत्य का, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का, अभिन्न अंग है । हम यह भी सीखते हैं कि आत्मा का कर्तव्य है आत्मसमर्पण करना, तभी वह खुश हो सकता है । भगवद गीता का अंतिम अनुदेश है कि आत्मा को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करना होगा, परम आत्मा को, कृष्ण को, और उस तरह से खुशी का एहसास पाएगा । यहां भी भगवान चैतन्य सनातन के सवालों का जवाब दे रहे हैं, वही सत्य को दोहराते हैं, लेकिन उसे आत्मा के बारे में जानकारी न देते हुए जो पहले से ही गीता में वर्णित है ।"  


प्रभुपाद: हाँ । मुद्दा यह है, आत्मा की संवैधानिक स्थिति क्या है, यह बहुत विस्तार से श्रीमद भगवद गीता में चर्चित है । अब भगवद गीता का अाखरी अनुदेश, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ( भ गी १८।६६) उन्होंने अर्जुन को योग प्रणाली के सभी प्रकार के बारे में निर्देश दिये हैं, सभी प्रकार की धार्मिक कर्मकांड प्रक्रिया, यज्ञ, और दार्शनिक अटकलें, इस शरीर की संवैधानिक स्थिति, आत्मा की संवैधानिक स्थिति । उन्होंने सब कुछ भगवद गीता में वर्णित किया है । अौर अाखिर में वे अर्जुन को कहते हैं, " मेरे प्रिय अर्जुन, क्योंकि तुम मेरे बहुत अंतरंग और प्रिय मित्र हो, इसलिए मैं वैदिक ज्ञान का सबसे गोपनीय हिस्सा तुम्हे बता रहा हूँ । " और वह क्या है? "तुम बस मुझे पर्यत आत्मसमर्पण करो ।" बस । लोग आत्मसमर्पण करने के लिए इच्छुक नहीं हैं, इसलिए उन्हे इतनी सारी बातें सीखनी पडती है । जैसे एक बच्चे की तरह, उसमें केवल आत्मसमर्पण की भावना है अपने माता पिता के प्रति, वह खुश है । तत्वज्ञान की कोई जरूरत नहीं है, कि कैसे बहुत खुशी से जिया जा सकता है । बच्चा माता - पिता की देखभाल पर पूरी तरह से निर्भर है और वह खुश है । साधारण तत्वज्ञान । लेकिन क्योंकि हम सभ्यता में उन्नत हैं, ज्ञान में, इसलिए हम इस सरल तत्वज्ञान को समझना चाहता हैं शब्दों के इतने सारे मायाजाल में । बस । तो अगर तुम शब्दों के मायाजाल में सीखना चाहते हो, तो इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन में इसकी कोई कमी नहीं है । हमारे पास तत्वज्ञान की पुस्तकों भारी मात्रा में है । लेकिन अगर हम इस अासान प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, वह हमें .... ईश्वर महान हैं और हम उनका अभिन्न अंग हैं, इसलिए मेरा कर्तव्य है सेवा करना और भगवान को पर्यत आत्मसमर्पण करना । बस । तो चैतन्य महाप्रभु, सभी संवैधानिक स्थिति पर चर्चा किए बिना, तत्वज्ञान, ज्ञान, और बहुत सी बातें, योग प्रणाली, उन्होंने तुरंत शुरू किया कि जीव की संवैधानिक स्थिति है पूर्ण परम की सेवा करना । यही ... यही चैतन्य महाप्रभु के शिक्षण की शुरुआत है । इसका मतलब है कि जहां भगवद गीता की शिक्षाऍ समाप्त होती हैं, चैतन्य महाप्रभु उस जगह से शुरू करते हैं
प्रभुपाद: हाँ । मुद्दा यह है, आत्मा की संवैधानिक स्थिति क्या है, यह बहुत विस्तार से श्रीमद भगवद गीता में चर्चित है । अब भगवद गीता का अाखरी अनुदेश, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|.गी. १८.६६]]) | उन्होंने अर्जुन को योग प्रणाली के सभी प्रकार के बारे में निर्देश दिया हैं, सभी प्रकार की धार्मिक कर्मकांड प्रक्रिया, यज्ञ, और दार्शनिक अटकलें, इस शरीर की संवैधानिक स्थिति, आत्मा की संवैधानिक स्थिति । उन्होंने सब कुछ भगवद गीता में वर्णित किया है । अौर अाखिर में वे अर्जुन को कहते हैं, " मेरे प्रिय अर्जुन, क्योंकि तुम मेरे बहुत अंतरंग और प्रिय मित्र हो, इसलिए मैं वैदिक ज्ञान का सबसे गोपनीय हिस्सा तुम्हे बता रहा हूँ ।" और वह क्या है? "तुम मुझको आत्मसमर्पण करो ।" बस ।  


हाँ अागे पढो
लोग आत्मसमर्पण करने के लिए इच्छुक नहीं हैं, इसलिए उन्हे इतनी सारी बातें सीखनी पडती है जैसे एक बच्चे की तरह, उसमें केवल आत्मसमर्पण की भावना है अपने माता पिता के प्रति, वह खुश है । तत्वज्ञान की कोई जरूरत नहीं है, कि कैसे बहुत खुशी से जिया जा सकता है । बच्चा माता - पिता की देखभाल पर पूरी तरह से निर्भर है और वह खुश है । साधारण तत्वज्ञान । लेकिन क्योंकि हम सभ्यता में उन्नत हैं, ज्ञान में, इसलिए हम इस सरल तत्वज्ञान को समझना चाहता हैं शब्दों के इतने सारे मायाजाल में । बस ।  


तमाल कृष्ण: "वे वहां से शुरू करते हैं, जहॉ कृष्ण अपनी शिक्षा को समाप्त करते हैं । यह महान भक्तों द्वारा स्वीकार किया जाता है कि भगवान चैतन्य स्वयम कृष्ण हैं , और उस जगह से जहॉ उन्होंने गीता की शिक्षा को समाप्त किया, वे वहां से अब फिर से सनातन को अपनी शिक्षा शुरू कर रहे हैं प्रभु सनातन से कह रहे हैं, " तुम्हारी संवैधानिक स्थिति यह है कि तुम शुद्ध आत्मा हो । यह भौतिक शरीर तुम्हारे स्वयं की असली पहचान नहीं है, न तो तुम्हारा मन तुम्हारी असली पहचान है, और न ही तुम्हारी बुद्धि, और न ही स्वयं की असली पहचान झूठा अहंकार है । तुम्हारी पहचान यह है कि तुम परम भगवान कृष्ण के शाश्वत भृत्य हो " '"
तो अगर तुम शब्दों के मायाजाल में सीखना चाहते हो, तो इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन में इसकी कोई कमी नहीं है । हमारे पास तत्वज्ञान की पुस्तके भारी मात्रा में है । लेकिन अगर हम इस अासान प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, वह हमें .... ईश्वर महान हैं और हम उनके अभिन्न अंग हैं, इसलिए मेरा कर्तव्य है सेवा करना और भगवान को आत्मसमर्पण करना । बस तो चैतन्य महाप्रभु, सभी संवैधानिक स्थिति पर चर्चा किए बिना, तत्वज्ञान, ज्ञान, और बहुत सी बातें, योग प्रणाली, उन्होंने तुरंत शुरू किया कि जीव की संवैधानिक स्थिति है पूर्ण परम की सेवा करना । यही  ... यही चैतन्य महाप्रभु के शिक्षण की शुरुआत है । इसका मतलब है कि जहां भगवद गीता की शिक्षाऍ समाप्त होती हैं, चैतन्य महाप्रभु उस जगह से शुरू करते हैं ।  


प्रभुपाद: अब यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बाते हैं, कि हमारे आत्म - बोध में, जो भौतिक मंच पर हैं, वे सोचते हैं कि, यहशरीर, "मैं यह शरीर हूँ ।" मैं यह शरीर हूँ, शरीर का मतलब है इंद्रियॉ । इसलिए संतुष्टि का मतलब है मेरी इंद्रियों की संतुष्टि - इंद्रिय संतुष्टि । यह आत्म - बोध का अपरिष्कृत रूप है । यह शरीर भी स्वयं है । शरीर स्वयं है, मन स्वयं है, आत्म भी स्वयं है । स्वयं, पर्याय । शरीर और मन और आत्मा, दोनों हैं ... इनमें से तीनों को स्वयं कहा जाता है । अब हमारे जीवन के अपरिष्कृत चरण में, हम सोचते हैं कि यह शरीर स्वयं है । और एक सूक्ष्म अवस्था में हम सोचते हैं कि मन और बुद्धि स्वयं हैं । लेकिन वास्तव में, स्वयं इस शरीर से परे है, इस मन से परे, इस बुद्धि से परे है । यही स्थिति है । जो आत्मज्ञान की शारीरिक अवधारणा पर हैं, वे पदार्थवादी हैं । और जो मन और बुद्धि की अवधारणा पर हैं, वे दार्शनिक और कवि हैं । वे दार्शनिक बातें बता रहे हैं, या कविता में हमें कुछ विचार दे रहे हैं, लेकिन उनकी अवधारणा अभी भी गलत है । जब तुम आध्यात्मिक मंच पर आते हो, फिर यह भक्ति सेवा कहा जाता है । यही चैतन्य महाप्रभु द्वारा समझाया जा रहा है ।
हाँ । अागे पढो ।
 
तमाल कृष्ण: "वे वहां से शुरू करते हैं, जहॉ कृष्ण अपनी शिक्षा को समाप्त करते हैं । यह महान भक्तों द्वारा स्वीकार किया जाता है कि भगवान चैतन्य स्वयम कृष्ण हैं , और उस जगह से जहॉ उन्होंने गीता की शिक्षा को समाप्त किया, वे वहां से अब फिर से सनातन को अपनी शिक्षा शुरू कर रहे हैं । प्रभु सनातन से कह रहे हैं, "तुम्हारी संवैधानिक स्थिति यह है कि तुम शुद्ध आत्मा हो । यह भौतिक शरीर तुम्हारे स्वयं की असली पहचान नहीं है, न तो तुम्हारा मन तुम्हारी असली पहचान है, और न ही तुम्हारी बुद्धि, और न ही स्वयं की असली पहचान झूठा अहंकार है । तुम्हारी पहचान यह है कि तुम परम भगवान कृष्ण के शाश्वत सेवक हो ।" '"
 
प्रभुपाद: अब यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बाते हैं, कि हमारे आत्म-बोध में, जो भौतिक मंच पर हैं, वे सोचते हैं कि, यहशरीर, "मैं यह शरीर हूँ ।" मैं यह शरीर हूँ, शरीर का मतलब है इंद्रियॉ । इसलिए संतुष्टि का मतलब है मेरी इंद्रियों की संतुष्टि - इंद्रिय संतुष्टि । यह आत्म - बोध का सबसे कच्चा रूप है । यह शरीर भी स्वयं है । शरीर स्वयं है, मन स्वयं है, आत्मा भी स्वयं है । स्वयं, पर्याय । शरीर और मन और आत्मा, दोनों हैं ... इनमें से तीनों को स्वयं कहा जाता है । अब हमारे जीवन के सबसे कच्चे चरण में, हम सोचते हैं कि यह शरीर स्वयं है । और एक सूक्ष्म अवस्था में हम सोचते हैं कि मन और बुद्धि स्वयं हैं । लेकिन वास्तव में, स्वयं इस शरीर से परे है, इस मन से परे, इस बुद्धि से परे है । यही स्थिति है । जो आत्मज्ञान की शारीरिक अवधारणा पर हैं, वे पदार्थवादी हैं । और जो मन और बुद्धि की अवधारणा पर हैं, वे दार्शनिक और कवि हैं । वे दार्शनिक बातें बता रहे हैं, या कविता में हमें कुछ विचार दे रहे हैं, लेकिन उनकी अवधारणा अभी भी गलत है । जब तुम आध्यात्मिक मंच पर आते हो, फिर यह भक्ति सेवा कहा जाता है । यही चैतन्य महाप्रभु द्वारा समझाया जा रहा है ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Lecture -- Seattle, October 2, 1968

प्रभुपाद: तो हम "भगवान चैतन्य की शिक्षाओं" से पढ़ रहे हैं । हमने हमारी पिछली बैठक में शुरू किया है, और हम इसे फिर से पढ़ेंगे । तुम इसे पढ़ोगे ? हां ।

तमाल कृष्ण: पृष्ठ उनतीस, लेकिन आपने कहां पढ़ना खत्म किया?

प्रभुपाद: इसे कहीं से भी पढ़ो, बस । हां ।

तमाल कृष्ण: ठीक है । "भगवद गीता में हमें सूचित किया जाता है कि संवैधानिक स्वभाव व्यक्तिगत जीव का आत्मा है । वह पदार्थ नहीं है । इसलिए आत्मा के रूप में वह परमात्मा का, निरपेक्ष सत्य का, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान का, अभिन्न अंग है । हम यह भी सीखते हैं कि आत्मा का कर्तव्य है आत्मसमर्पण करना, तभी वह खुश हो सकता है । भगवद गीता का अंतिम अनुदेश है कि आत्मा को पूरी तरह से आत्मसमर्पण करना होगा, परम आत्मा को, कृष्ण को, और उस तरह से खुशी का एहसास पाएगा । यहां भी भगवान चैतन्य सनातन के सवालों का जवाब दे रहे हैं, वही सत्य को दोहराते हैं, लेकिन उसे आत्मा के बारे में जानकारी न देते हुए जो पहले से ही गीता में वर्णित है ।"

प्रभुपाद: हाँ । मुद्दा यह है, आत्मा की संवैधानिक स्थिति क्या है, यह बहुत विस्तार से श्रीमद भगवद गीता में चर्चित है । अब भगवद गीता का अाखरी अनुदेश, कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) | उन्होंने अर्जुन को योग प्रणाली के सभी प्रकार के बारे में निर्देश दिया हैं, सभी प्रकार की धार्मिक कर्मकांड प्रक्रिया, यज्ञ, और दार्शनिक अटकलें, इस शरीर की संवैधानिक स्थिति, आत्मा की संवैधानिक स्थिति । उन्होंने सब कुछ भगवद गीता में वर्णित किया है । अौर अाखिर में वे अर्जुन को कहते हैं, " मेरे प्रिय अर्जुन, क्योंकि तुम मेरे बहुत अंतरंग और प्रिय मित्र हो, इसलिए मैं वैदिक ज्ञान का सबसे गोपनीय हिस्सा तुम्हे बता रहा हूँ ।" और वह क्या है? "तुम मुझको आत्मसमर्पण करो ।" बस ।

लोग आत्मसमर्पण करने के लिए इच्छुक नहीं हैं, इसलिए उन्हे इतनी सारी बातें सीखनी पडती है । जैसे एक बच्चे की तरह, उसमें केवल आत्मसमर्पण की भावना है अपने माता पिता के प्रति, वह खुश है । तत्वज्ञान की कोई जरूरत नहीं है, कि कैसे बहुत खुशी से जिया जा सकता है । बच्चा माता - पिता की देखभाल पर पूरी तरह से निर्भर है और वह खुश है । साधारण तत्वज्ञान । लेकिन क्योंकि हम सभ्यता में उन्नत हैं, ज्ञान में, इसलिए हम इस सरल तत्वज्ञान को समझना चाहता हैं शब्दों के इतने सारे मायाजाल में । बस ।

तो अगर तुम शब्दों के मायाजाल में सीखना चाहते हो, तो इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन में इसकी कोई कमी नहीं है । हमारे पास तत्वज्ञान की पुस्तके भारी मात्रा में है । लेकिन अगर हम इस अासान प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, वह हमें .... ईश्वर महान हैं और हम उनके अभिन्न अंग हैं, इसलिए मेरा कर्तव्य है सेवा करना और भगवान को आत्मसमर्पण करना । बस । तो चैतन्य महाप्रभु, सभी संवैधानिक स्थिति पर चर्चा किए बिना, तत्वज्ञान, ज्ञान, और बहुत सी बातें, योग प्रणाली, उन्होंने तुरंत शुरू किया कि जीव की संवैधानिक स्थिति है पूर्ण परम की सेवा करना । यही ... यही चैतन्य महाप्रभु के शिक्षण की शुरुआत है । इसका मतलब है कि जहां भगवद गीता की शिक्षाऍ समाप्त होती हैं, चैतन्य महाप्रभु उस जगह से शुरू करते हैं ।

हाँ । अागे पढो ।

तमाल कृष्ण: "वे वहां से शुरू करते हैं, जहॉ कृष्ण अपनी शिक्षा को समाप्त करते हैं । यह महान भक्तों द्वारा स्वीकार किया जाता है कि भगवान चैतन्य स्वयम कृष्ण हैं , और उस जगह से जहॉ उन्होंने गीता की शिक्षा को समाप्त किया, वे वहां से अब फिर से सनातन को अपनी शिक्षा शुरू कर रहे हैं । प्रभु सनातन से कह रहे हैं, "तुम्हारी संवैधानिक स्थिति यह है कि तुम शुद्ध आत्मा हो । यह भौतिक शरीर तुम्हारे स्वयं की असली पहचान नहीं है, न तो तुम्हारा मन तुम्हारी असली पहचान है, और न ही तुम्हारी बुद्धि, और न ही स्वयं की असली पहचान झूठा अहंकार है । तुम्हारी पहचान यह है कि तुम परम भगवान कृष्ण के शाश्वत सेवक हो ।" '"

प्रभुपाद: अब यहाँ कुछ महत्वपूर्ण बाते हैं, कि हमारे आत्म-बोध में, जो भौतिक मंच पर हैं, वे सोचते हैं कि, यहशरीर, "मैं यह शरीर हूँ ।" मैं यह शरीर हूँ, शरीर का मतलब है इंद्रियॉ । इसलिए संतुष्टि का मतलब है मेरी इंद्रियों की संतुष्टि - इंद्रिय संतुष्टि । यह आत्म - बोध का सबसे कच्चा रूप है । यह शरीर भी स्वयं है । शरीर स्वयं है, मन स्वयं है, आत्मा भी स्वयं है । स्वयं, पर्याय । शरीर और मन और आत्मा, दोनों हैं ... इनमें से तीनों को स्वयं कहा जाता है । अब हमारे जीवन के सबसे कच्चे चरण में, हम सोचते हैं कि यह शरीर स्वयं है । और एक सूक्ष्म अवस्था में हम सोचते हैं कि मन और बुद्धि स्वयं हैं । लेकिन वास्तव में, स्वयं इस शरीर से परे है, इस मन से परे, इस बुद्धि से परे है । यही स्थिति है । जो आत्मज्ञान की शारीरिक अवधारणा पर हैं, वे पदार्थवादी हैं । और जो मन और बुद्धि की अवधारणा पर हैं, वे दार्शनिक और कवि हैं । वे दार्शनिक बातें बता रहे हैं, या कविता में हमें कुछ विचार दे रहे हैं, लेकिन उनकी अवधारणा अभी भी गलत है । जब तुम आध्यात्मिक मंच पर आते हो, फिर यह भक्ति सेवा कहा जाता है । यही चैतन्य महाप्रभु द्वारा समझाया जा रहा है ।