HI/Prabhupada 0401 - श्री श्री शिक्षाष्टकम तात्पर्य

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Purport Excerpt to Sri Sri Siksastakam -- Los Angeles, December 28, 1968

भगवान चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को श्रीकृष्ण भावनामृत के विज्ञान पर किताबें लिखने का निर्देश दिया । वो काम जो उनका अनुसरण करते हैं अाज तक जारी रखते हैं । भगवान चैतन्य द्वारा सिखाया गया तत्वज्ञान का विस्तार और प्रदर्शन, वास्तव में बहुत अधिक है, और तर्कयुक्त है, दुनिया में किसी भी धार्मिक संस्कृति की गुरु परम्परा की अटूट व्यवस्था के कारण । चूँकि भगवान चैतन्य अपनी युवावस्था में स्वयं एक विद्वान के रूप में व्यापक रूप से प्रसिद्ध थे, वे हमारे लिए केवल आठ छंद छोड़ गए जिसे शिक्षाष्टकम् कहते हैं । श्री कृष्ण-संकीर्तन की जय हो, जो मन में सालों से संचित धूल का मार्जन करता है ।

अतः जीवन की बद्ध अवस्था की आग, पुनर्जन्म और मृत्यु, को बुझाती है । दूसरा श्लोक । हे प्रभु, केवल अापका पवित्र नाम ही प्राणियों को सारा आशीर्वाद प्रदान कर सकता है, और इसलिए आपके सैकड़ों और लाखों नाम हैं जैसे कृष्ण, गोविंद, आदि । इन दिव्य नामों में आपने अपने सभी दिव्य शक्तियों का निवेश किया है, और इन पवित्र नामों के जप करने के लिए कोई कठोर नियम भी नहीं है । हे प्रभु, आपने कृपा करके अपने पवित्र नामों से आपके अाश्रय में अाना आसान कर दिया है, लेकिन यह मेरा दुर्भाग्य है, मुझे उनके लिए कोई आकर्षण नहीं है । तीसरा । हम मन की विनम्र स्थिति में भगवान के पवित्र नामों का जप कर सकते हैं, अपने अाप को सड़क में पडे़ घास की तुलना से भी अधिक नीच, और पेड़ से अधिक सहिष्णु समझना, झूठी प्रतिष्ठा की सभी भावनाअों से रहित, और दूसरों को पूर्ण सम्मान देने के लिए तैयार रहना । मन की ऐसी स्थिति में हम निरंतर प्रभु के पवित्र नाम का जाप कर सकते हैं ।