HI/Prabhupada 0409 - भगवद गीता में अर्थघटन का कोई सवाल ही नहीं है: Difference between revisions

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तो यह मिशन, बहुत, बहुत अधिकृत है, और यह सम्मिलित करता है एक बहुत बड़े क्षेत्राधिकार की गतिविधियों को । इसलिए मेरा अनुरोध है मुंबई के निवासियों से, खासकर जो लोग हमारे सदस्य हैं, वे कृपया सक्रिय रूप से भाग लें, बंबई में इस संस्था को बहुत सफल बनाने के लिए । कई देवियॉ और सज्जन यहाँ मौजूद हैं । हम हैं, जो भीहम कर रहे हैं यह सनकी या मानसिक मनगढ़ंत कहानी नहीं है । यह अधिकृत है और बिल्कुल भगवद गीता के स्तर पर । हमारा वर्तमान आंदोलन भगवद गीता पर आधारित है - भगवद गीता यथार्थ । हम व्याख्या नहीं करते हैं । हम मूर्खता पूर्वक व्याख्या नहीं करते हैं, क्योंकि ... मैं उद्देश्यपूर्ण से इस शब्द को कहता हूँ, "मूर्खता," कि क्यों हम कृष्ण के शब्दों की व्याख्या करें ? क्या मैं कृष्ण से अधिक हूँ? या कृष्ण नें कुछ हिस्से को छोड़ दिया है मेरे द्वारा व्याख्या करेके समझाने के लिए ? तब श्री कृष्ण का महत्व क्या है? अगर मैं अपनी व्याख्या देता हूँ, अपने अाप को कृष्ण से अधिक सोच कर, तो यह ईश्वर निन्दा है । मैं कृष्ण से भी अधिक कैसे हो सकता हूँ ? वास्तव में अगर हम इस भगवद गीता का लाभ लेना चाहते हैं, तो हमें भगवद गीता यथार्थ को अपनाना होगा । वैसे ही जैसे अर्जुन नें लिया । अर्जुन, भगवद गीता को सुनने के बाद, उन्होंने कहा, सर्वम एतम ऋतम् मन्ये: "मैं सभी वचनों को स्वीकार करता हूँ, मेरे प्रिय केशव, जो कुछ भी अापने कहा है । मैं , पूर्ण में उन्हें स्वीकार करता हूँ, बिना किसी भी बदलाव । "यह भगवद गीता की समझ है, एसा नहीं है कि मैं भगवद गीता का लाभ लेता हूँ और अपनी मूर्खता पूर्वक तरीके से व्याख्या करता हूँ ताकि लोग मेरे तत्वज्ञान को स्वीकार करेंगे । यह भगवद गीता नहीं है । भगवद गीता में व्याख्या का कोई सवाल ही नहीं है । व्याख्या की अनुमति दी गई है जब तुम नहीं समझ सकते । जब बातें स्पष्ट रूप से समझ में अाती हैं ... अगर मैं कहता हूँ, "यह माइक्रोफोन है" हर कोई समझता है कि यह माइक्रोफोन है यह व्याख्या की कहाँ आवश्यकता है? कोई जरूरत नहीं है । यह मूर्खता है, भ्रामक । भगवद गीता में कोई व्याख्या नहीं हो सकती । यह है..... हर कोई बात स्पष्ट है । जैसे भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कृष्ण का कहना नहीं है कि "तुम सब सन्यासी बन जाअो और अपने व्यावसायिक कार्यों को त्याग दो ।" नहीं । कृष्ण कहते हैं, स्व-कर्मणा तम अभ्यर्च सम्सिद्धि: लभते नर: ([[Vanisource:BG 18.46|भ गी १८।४६]]) । तुम अपने कार्य में रहो । तुम अपने व्वसाय में रहो । बदलने की कोई जरूरत नहीं है । लेकिन फिर भी, तुम कृष्ण के प्रति सचेत हो सकते हो और अपने जीवन को सफल बना सकते हो । यह भगवद गीता का संदेश है । भगवद गीता सामाजिक व्यवस्था या आध्यात्मिक वर्ग को अस्त - व्यस्त नहीं करने वाली । नहीं । यह प्राधिकरण के अनुसार तय की जानी चाहिए । और सबसे अच्छा अधिकार कृष्ण हैं । तो इस केंद्र को सफल बनाअो, आप महिलाऍ और बंबई के सज्जन । हमें बहुत अच्छी जगह मिल गई है । हम निर्माण कर रहे हैं ताकि आप यहाँ आते रहें, कम से कम सप्ताह के अंत में । अगर अाप रहें, जो सभी सेवानिवृत्त हैं या जो लोग बुजुर्ग सज्जन हैं, महिलाऍ, वे यहां अाकर रह सकते हैं । हमारे पास पर्याप्त जगह होगाी । लेकिन पूरी दुनिया में भगवद गीता के इन सिद्धांतों को व्यवस्थित करने के लिए प्रयास करें । यह भारत का तोहफा होगा । चैतन्य महाप्रभु कि इच्छा थी कि जिस किसी नें भारत में जन्म लिया है, इंसान के रूप में, बिल्लियॉ और कुत्ते नहीं... बिल्ली और कुत्ते दूसरों के लिए अच्छा करने के लिए किसी भी प्रयास में भाग नहीं ले सकते हैं । वे कहते हैं कि
तो यह मिशन, बहुत, बहुत अधिकृत है, और यह सम्मिलित करता है एक बहुत बड़े क्षेत्राधिकार की गतिविधियों को । इसलिए मेरा अनुरोध है मुंबई के निवासियों से, खासकर जो लोग हमारे सदस्य हैं, वे कृपया सक्रिय रूप से भाग लें, बंबई में इस संस्था को बहुत सफल बनाने के लिए । कई देवियॉ और सज्जन यहाँ मौजूद हैं । हम हैं, जो भी हम कर रहे हैं यह सनकी या मानसिक मनगढ़ंत कहानी नहीं है । यह अधिकृत है और बिल्कुल भगवद गीता के स्तर पर । हमारा वर्तमान आंदोलन भगवद गीता पर आधारित है - भगवद गीता यथार्थ । हम अर्थघटन नहीं करते हैं ।  


:भारत-भूमिते मनुष्य-जनम हैल यार
हम मूर्खता पूर्वक अर्थघटन नहीं करते हैं, क्योंकि... मैं उद्देश्यपूर्ण से इस शब्द को कहता हूँ, "मूर्खता," कि क्यों हम कृष्ण के शब्दों का अर्थघटन करें ? क्या मैं कृष्ण से अधिक हूँ? या कृष्ण नें कुछ हिस्से को छोड़ दिया है मेरे द्वारा अर्थघटन करके समझाने के लिए ? तब श्री कृष्ण का महत्व क्या है? अगर मैं अपना अर्थघटन देता हूँ, अपने अाप को कृष्ण से अधिक सोच कर, तो यह ईश्वर निन्दा है । मैं कृष्ण से भी अधिक कैसे हो सकता हूँ ? वास्तव में अगर हम इस भगवद गीता का लाभ लेना चाहते हैं, तो हमें भगवद गीता यथार्थ को अपनाना होगा । वैसे ही जैसे अर्जुन नें लिया । अर्जुन, भगवद गीता को सुनने के बाद, उन्होंने कहा, सर्वम एतम ऋतम् मन्ये: "मैं सभी वचनों को स्वीकार करता हूँ, मेरे प्रिय केशव, जो कुछ भी अापने कहा है । मैं, पूर्ण में उन्हें स्वीकार करता हूँ, बिना किसी भी बदलाव । "यह भगवद गीता की समझ है, एसा नहीं है कि मैं भगवद गीता का लाभ लेता हूँ और मेरे मूर्खता पूर्वक तरीके से अर्थघटन करता हूँ ताकि लोग मेरे तत्वज्ञान को स्वीकार करेंगे । यह भगवद गीता नहीं है । भगवद गीता में अर्थघटन का कोई सवाल ही नहीं है । अर्थघटन की अनुमति दी गई है जब तुम नहीं समझ सकते । जब बातें स्पष्ट रूप से समझ में अाती हैं ... अगर मैं कहता हूँ, "यह माइक्रोफोन है" हर कोई समझता है कि यह  माइक्रोफोन है । उसको अर्थघटन की कहाँ आवश्यकता है? कोई जरूरत नहीं है । यह मूर्खता है, भ्रामक ।
 
भगवद गीता में कोई अर्थघटन नहीं हो सकता । यह है... हर कोई बात स्पष्ट है । जैसे भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कृष्ण का कहना नहीं है कि "तुम सब सन्यासी बन जाअो और अपने व्यावसायिक कार्यों को त्याग दो ।" नहीं । कृष्ण कहते हैं, स्व-कर्मणा तम अभ्यर्च संसिद्धि: लभते नर: ([[HI/BG 18.46|भ.गी. १८.४६]]) । तुम अपने कार्य में रहो । तुम अपने व्वसाय में रहो । बदलने की कोई जरूरत नहीं है । लेकिन फिर भी, तुम कृष्ण के प्रति सचेत हो सकते हो और अपने जीवन को सफल बना सकते हो । यह भगवद गीता का संदेश है । भगवद गीता सामाजिक व्यवस्था या आध्यात्मिक वर्ग को अस्त - व्यस्त नहीं करने वाली । नहीं । यह प्राधिकरण के अनुसार तय की जानी चाहिए । और सबसे अच्छा अधिकार कृष्ण हैं ।
 
तो इस केंद्र को सफल बनाअो, आप बोम्बे के महिला और सज्जन । हमें बहुत अच्छी जगह मिल गई है । हम निर्माण कर रहे हैं ताकि आप यहाँ आते रहें, कम से कम सप्ताह के अंत में । अगर अाप रहें, जो सभी सेवानिवृत्त हैं या जो लोग बुजुर्ग सज्जन हैं, महिलाऍ, वे यहां अाकर रह सकते हैं । हमारे पास पर्याप्त जगह होगाी । लेकिन पूरी दुनिया में भगवद गीता के इन सिद्धांतों को व्यवस्थित करने के लिए प्रयास करें । यह भारत का तोहफा होगा । चैतन्य महाप्रभु कि इच्छा थी कि जिस किसी नें भारत में जन्म लिया है, इंसान के रूप में, बिल्लियॉ और कुत्ते  नहीं... बिल्ली और कुत्ते दूसरों के लिए अच्छा करने के लिए किसी भी प्रयास में भाग नहीं ले सकते हैं । वे कहते हैं कि
 
:भारत-भूमिते मनुष्य-जनम हइल यार
:जन्म सार्थक कारि कर पर-उपकार
::भारत-भूमिते मनुष्य-जनम हैल यार
:जन्म सार्थक कारि कर पर-उपकार
:जन्म सार्थक कारि कर पर-उपकार
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"जिसने भी भारत में, भारत- भूमि में, इंसान के रूप में अपना जन्म लिया है, सब से पहले अपने जीवन को सफल बनाअो ।" क्योंकि तुम्हारे पास स्तर है जीवन को सफल बनाने के लिए । यहाँ भगवद गीता है । इसे समझने की कोशिश करो, अपने जीवन को सफल बनाअो, , और उसके बाद पूरी दुनिया में यह संदेश प्रसारित करो । यही परोपकार है । तो वास्तव में, भारत और भारत के लोग, वे परोपकार के लिए हैं । हम दूसरों के शोषण के लिए नहीं बने हैं । यह हमारा मिशन नहीं है । असल में यह हो रहा है।


"जिसने भी भारत में इंसान के रूप में अपना जन्म लिया है, भरत- भूमि, सब से पहले अपने जीवन को सफल बनाअो ।" क्योंकि तुम्हारे पास स्तर है जीवन को सफल बनाने के लिए । यहाँ भगवद गीता है । इश्रे समझने की कोशिश करो, अपने जीवन को सफल बनाअो, , और उसके बाद पूरी दुनिया में यह संदेश प्रसारित करो । यही परोपकार है । तो वास्तव में, भारत और भारत के लोग, वे परोपकार के लिए हैं । हम दूसरों के शोषण के लिए नहीं बने हैं । यह हमारा मिशन नहीं है । असल में यह हो रहा है। हर कोई भारत से बाहर चला जाता है । वे शोषण करने के लिए वहाँ जाते हैं । लेकिन यह पहली बार है कि भारत बाहरी लोगों को कुछ दे रहा है, यह आध्यात्मिक ज्ञान । और सबूत आप देख सकते हैं । हम दे रहे हैं, ले नहीं रहे हैं । हम भीख माँगने के लिए जाते हैं, "मुझे गेहूं दे दो, मुझे पैसे दो, मुझे यह दो, मुझे वह दो ।" नहीं । हम कुछ ठोस दे रहे हैं, और वे आभार महसूस कर रहे हैं । नहीं तो, क्यों, ये युवक और लड़कियॉ रहे, वे इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन को अपना रहे हैं ? वे कुछ महसूस कर रहे हैं, उन्हें कुछ ठोस मिल रहा है । तो शक्तिमान है, बहुत शक्तिमान । वे अमेरिकि या कनाडा या ऑस्ट्रेलिया की तरह महसूस नहीं कर रहे हैं । हम भी भारतीयों के जैसा महसूस नहीं कर रहे हैं । आध्यात्मिक मंच पर हम एक हैं ।
हर कोई भारत से बाहर चला जाता है । वे शोषण करने के लिए वहाँ जाते हैं । लेकिन यह पहली बार है कि भारत बाहरी लोगों को कुछ दे रहा है, यह आध्यात्मिक ज्ञान । और सबूत आप देख सकते हैं । हम दे रहे हैं, ले नहीं रहे हैं । हम भीख माँगने के लिए नहीं जाते हैं, "मुझे गेहूं दे दो, मुझे पैसे दो, मुझे यह दो, मुझे वह दो ।" नहीं । हम कुछ ठोस दे रहे हैं, और वे आभार महसूस कर रहे हैं । नहीं तो, क्यों, ये युवक और लड़कियॉ रहे, वे इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन को अपना रहे हैं ? वे कुछ महसूस कर रहे हैं, उन्हें कुछ ठोस मिल रहा है । तो इसमें शक्ति है, बहुत अच्छी शक्ति । वे अमेरिकि या कनाडावासी या ऑस्ट्रेलियन की तरह महसूस नहीं कर रहे हैं । हम भी भारतीयों के जैसा महसूस नहीं कर रहे हैं । आध्यात्मिक मंच पर हम एक हैं ।  


:विद्या-विनय-सम्पन्ने
:विद्या-विनय-सम्पन्ने  
:ब्रह्मणे गवि हस्तिने
:ब्रह्मणे गवि हस्तिने  
:शुनि चैव श्व-पाके च
:शुनि चैव श्व-पाके च  
:पंडिता: सम-दर्शिन:
:पंडिता: सम-दर्शिन:  
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यह असली सीख है । अात्मवत सर्व-भूते: यहां तक ​​कि महान राजनीतिज्ञ, चाणक्य पंडिता, वे कहते हैं, मात्रवत पर-दारेषु, पर द्रव्येषु लोष्ट्रवत अात्मवत सर्व-भुतेषु य: पश्यति स पंडित: तो यह एक महान संस्कृति, भगवद गीता यथार्थ । तो वे जिम्मेदार देवियों और सज्जनो जो यहां उपस्थित हैं, इस केंद्र को बहुत सफल बनाऍ और यहाँ आऍ, भगवद गीता यथार्थ का अध्ययन करें किसी भी मूर्खता पूर्वक व्याख्या के बिना । मैं मूर्ख बार - बार कहता हूँ क्योंकि व्याख्याकी बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है । सब कुछ स्पष्ट है शुरू से ही ।
यह असली सीख है । अात्मवत सर्व-भूतेषु | यहां तक ​​कि महान राजनीतिज्ञ, चाणक्य पंडित, वे कहते हैं, मातृवत पर-दारेषु, पर द्रव्येषु लोष्ट्रवत अात्मवत सर्व-भुतेषु य: पश्यति स पंडित: | तो यह एक महान संस्कृति है, भगवद गीता यथार्थ । तो जो जिम्मेदार देविया और सज्जन जो यहां उपस्थित हैं, इस केंद्र को बहुत सफल बनाऍ और यहाँ आऍ, भगवद गीता यथार्थ का अध्ययन करें किसी भी मूर्खता पूर्वक के अर्थघटन के बिना । मैं मूर्ख बार - बार कहता हूँ क्योंकि अर्थघटन की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है । सब कुछ स्पष्ट है शुरू से ही ।  


:धर्म श्रेत्रे कुरु क्षेत्रे
:धर्म श्रेत्रे कुरु क्षेत्रे  
:समवेता युयुत्सव:
:समवेता युयुत्सव:  
:मामका: पाणदवाश चैव
:मामका: पांडवाश चैव  
:किम अकुर्वत संजय
:किम अकुर्वत संजय  
:([[Vanisource:BG 1.1|भ गी १।१]])
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इतना स्पष्ट ।
इतना स्पष्ट ।  
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Latest revision as of 17:39, 1 October 2020



Cornerstone Laying -- Bombay, January 23, 1975

तो यह मिशन, बहुत, बहुत अधिकृत है, और यह सम्मिलित करता है एक बहुत बड़े क्षेत्राधिकार की गतिविधियों को । इसलिए मेरा अनुरोध है मुंबई के निवासियों से, खासकर जो लोग हमारे सदस्य हैं, वे कृपया सक्रिय रूप से भाग लें, बंबई में इस संस्था को बहुत सफल बनाने के लिए । कई देवियॉ और सज्जन यहाँ मौजूद हैं । हम हैं, जो भी हम कर रहे हैं यह सनकी या मानसिक मनगढ़ंत कहानी नहीं है । यह अधिकृत है और बिल्कुल भगवद गीता के स्तर पर । हमारा वर्तमान आंदोलन भगवद गीता पर आधारित है - भगवद गीता यथार्थ । हम अर्थघटन नहीं करते हैं ।

हम मूर्खता पूर्वक अर्थघटन नहीं करते हैं, क्योंकि... मैं उद्देश्यपूर्ण से इस शब्द को कहता हूँ, "मूर्खता," कि क्यों हम कृष्ण के शब्दों का अर्थघटन करें ? क्या मैं कृष्ण से अधिक हूँ? या कृष्ण नें कुछ हिस्से को छोड़ दिया है मेरे द्वारा अर्थघटन करके समझाने के लिए ? तब श्री कृष्ण का महत्व क्या है? अगर मैं अपना अर्थघटन देता हूँ, अपने अाप को कृष्ण से अधिक सोच कर, तो यह ईश्वर निन्दा है । मैं कृष्ण से भी अधिक कैसे हो सकता हूँ ? वास्तव में अगर हम इस भगवद गीता का लाभ लेना चाहते हैं, तो हमें भगवद गीता यथार्थ को अपनाना होगा । वैसे ही जैसे अर्जुन नें लिया । अर्जुन, भगवद गीता को सुनने के बाद, उन्होंने कहा, सर्वम एतम ऋतम् मन्ये: "मैं सभी वचनों को स्वीकार करता हूँ, मेरे प्रिय केशव, जो कुछ भी अापने कहा है । मैं, पूर्ण में उन्हें स्वीकार करता हूँ, बिना किसी भी बदलाव । "यह भगवद गीता की समझ है, एसा नहीं है कि मैं भगवद गीता का लाभ लेता हूँ और मेरे मूर्खता पूर्वक तरीके से अर्थघटन करता हूँ ताकि लोग मेरे तत्वज्ञान को स्वीकार करेंगे । यह भगवद गीता नहीं है । भगवद गीता में अर्थघटन का कोई सवाल ही नहीं है । अर्थघटन की अनुमति दी गई है जब तुम नहीं समझ सकते । जब बातें स्पष्ट रूप से समझ में अाती हैं ... अगर मैं कहता हूँ, "यह माइक्रोफोन है" हर कोई समझता है कि यह माइक्रोफोन है । उसको अर्थघटन की कहाँ आवश्यकता है? कोई जरूरत नहीं है । यह मूर्खता है, भ्रामक ।

भगवद गीता में कोई अर्थघटन नहीं हो सकता । यह है... हर कोई बात स्पष्ट है । जैसे भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कृष्ण का कहना नहीं है कि "तुम सब सन्यासी बन जाअो और अपने व्यावसायिक कार्यों को त्याग दो ।" नहीं । कृष्ण कहते हैं, स्व-कर्मणा तम अभ्यर्च संसिद्धि: लभते नर: (भ.गी. १८.४६) । तुम अपने कार्य में रहो । तुम अपने व्वसाय में रहो । बदलने की कोई जरूरत नहीं है । लेकिन फिर भी, तुम कृष्ण के प्रति सचेत हो सकते हो और अपने जीवन को सफल बना सकते हो । यह भगवद गीता का संदेश है । भगवद गीता सामाजिक व्यवस्था या आध्यात्मिक वर्ग को अस्त - व्यस्त नहीं करने वाली । नहीं । यह प्राधिकरण के अनुसार तय की जानी चाहिए । और सबसे अच्छा अधिकार कृष्ण हैं ।

तो इस केंद्र को सफल बनाअो, आप बोम्बे के महिला और सज्जन । हमें बहुत अच्छी जगह मिल गई है । हम निर्माण कर रहे हैं ताकि आप यहाँ आते रहें, कम से कम सप्ताह के अंत में । अगर अाप रहें, जो सभी सेवानिवृत्त हैं या जो लोग बुजुर्ग सज्जन हैं, महिलाऍ, वे यहां अाकर रह सकते हैं । हमारे पास पर्याप्त जगह होगाी । लेकिन पूरी दुनिया में भगवद गीता के इन सिद्धांतों को व्यवस्थित करने के लिए प्रयास करें । यह भारत का तोहफा होगा । चैतन्य महाप्रभु कि इच्छा थी कि जिस किसी नें भारत में जन्म लिया है, इंसान के रूप में, बिल्लियॉ और कुत्ते नहीं... बिल्ली और कुत्ते दूसरों के लिए अच्छा करने के लिए किसी भी प्रयास में भाग नहीं ले सकते हैं । वे कहते हैं कि

भारत-भूमिते मनुष्य-जनम हइल यार
जन्म सार्थक कारि कर पर-उपकार
भारत-भूमिते मनुष्य-जनम हैल यार
जन्म सार्थक कारि कर पर-उपकार
(चैतन्य चरितामृत अादि ९.४१)

"जिसने भी भारत में, भारत- भूमि में, इंसान के रूप में अपना जन्म लिया है, सब से पहले अपने जीवन को सफल बनाअो ।" क्योंकि तुम्हारे पास स्तर है जीवन को सफल बनाने के लिए । यहाँ भगवद गीता है । इसे समझने की कोशिश करो, अपने जीवन को सफल बनाअो, , और उसके बाद पूरी दुनिया में यह संदेश प्रसारित करो । यही परोपकार है । तो वास्तव में, भारत और भारत के लोग, वे परोपकार के लिए हैं । हम दूसरों के शोषण के लिए नहीं बने हैं । यह हमारा मिशन नहीं है । असल में यह हो रहा है।

हर कोई भारत से बाहर चला जाता है । वे शोषण करने के लिए वहाँ जाते हैं । लेकिन यह पहली बार है कि भारत बाहरी लोगों को कुछ दे रहा है, यह आध्यात्मिक ज्ञान । और सबूत आप देख सकते हैं । हम दे रहे हैं, ले नहीं रहे हैं । हम भीख माँगने के लिए नहीं जाते हैं, "मुझे गेहूं दे दो, मुझे पैसे दो, मुझे यह दो, मुझे वह दो ।" नहीं । हम कुछ ठोस दे रहे हैं, और वे आभार महसूस कर रहे हैं । नहीं तो, क्यों, ये युवक और लड़कियॉ रहे, वे इस कृष्ण भावनामृत आंदोलन को अपना रहे हैं ? वे कुछ महसूस कर रहे हैं, उन्हें कुछ ठोस मिल रहा है । तो इसमें शक्ति है, बहुत अच्छी शक्ति । वे अमेरिकि या कनाडावासी या ऑस्ट्रेलियन की तरह महसूस नहीं कर रहे हैं । हम भी भारतीयों के जैसा महसूस नहीं कर रहे हैं । आध्यात्मिक मंच पर हम एक हैं ।

विद्या-विनय-सम्पन्ने
ब्रह्मणे गवि हस्तिने
शुनि चैव श्व-पाके च
पंडिता: सम-दर्शिन:
(भ.गी. ५.१८)

यह असली सीख है । अात्मवत सर्व-भूतेषु | यहां तक ​​कि महान राजनीतिज्ञ, चाणक्य पंडित, वे कहते हैं, मातृवत पर-दारेषु, पर द्रव्येषु लोष्ट्रवत अात्मवत सर्व-भुतेषु य: पश्यति स पंडित: | तो यह एक महान संस्कृति है, भगवद गीता यथार्थ । तो जो जिम्मेदार देविया और सज्जन जो यहां उपस्थित हैं, इस केंद्र को बहुत सफल बनाऍ और यहाँ आऍ, भगवद गीता यथार्थ का अध्ययन करें किसी भी मूर्खता पूर्वक के अर्थघटन के बिना । मैं मूर्ख बार - बार कहता हूँ क्योंकि अर्थघटन की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है । सब कुछ स्पष्ट है शुरू से ही ।

धर्म श्रेत्रे कुरु क्षेत्रे
समवेता युयुत्सव:
मामका: पांडवाश चैव
किम अकुर्वत संजय
(भ.गी. १.१) ।

इतना स्पष्ट ।