HI/Prabhupada 0479 - जब तुम अपने वास्तविक स्थिति को समझते हो, फिर तुम्हारी गतिविधियॉ वास्तव में शुरू होती हैं

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Lecture -- Seattle, October 7, 1968

तो यहाँ कृष्ण भगवद गीता बोल रहे हैं, मै अासक्त मना: , योग प्रणाली के बारे में । उन्हेने पहले ही निष्कर्ष निकाला है छठे अध्याय - योग प्रणाली में । पहले छह अध्यायों में, यह समझाया गया है, जीव की संवैधानिक स्थिति क्या है । भगवद गीता में अठारह अध्याय हैं । पहले छह अध्याय जीव की ही संवैधानिक स्थिति बताते हैं । और जब यह समझा जाता है ... जैसे जब तुम अपने वास्तविक स्थिति को समझते हो, फिर तुम्हारी गतिविधियॉ वास्तव में शुरू होते हैं । अगर तुम अपनी वास्तविक स्थिति को नहीं जानते हो .... मान लीजिए कार्यालय में, अगर तुम्हारा पद स्थिर नहीं है, क्या कर्तव्य है तुम्हारा निष्पादित करने के लिए , तो तुम बहुत अच्छी तरह से कुछ नहीं कर सकते हो । यहाँ एक टाइपिस्ट, है यहाँ क्लर्क है, यहाँ एक चपरासी है, यहॉ यह है अौर वह है । तो वे बहुत अच्छी तरह से अपने काम को क्रियान्वित कर रहे हैं । तो हमें जीव की संवैधानिक स्थिति क्या है यह समझना होगा । तो यह पहले छह अध्यायों में विस्तार से बताया गया है । अद्येन शश्टेन उपासकस्य जीवस्य स्वरूप-प्रापति-साधनम् च प्रधानम निम् प्रोक्तम बलदेव विद्याभूशन, भगवद गीता पर एक बहुत अच्छे अधिकृत टीकाकार, वे कहते हैं कि पहले छह अध्यायों में, जीव की संवैधानिक स्थिति को बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है । और कैसे हम उसकी संवैधानिक स्थिति समझ सकते हैं , वह भी विस्तार से बताया गया है । तो योग प्रणाली का मतलब है उसकी संवैधानिक स्थिति को समझना । योग इन्द्रिय-सम्यम: हम इन्द्रियों की गतिविधियों के साथ व्यस्त हैं । भौतिक जीवन का मतलब है इन्द्रियों की गतिविधियों का कारोबार । पूरी दुनिया की गतिविधियॉ, जब तुम सड़क पर खड़े होते हो, तुम देखेोगे कि सब लोग बहुत व्यस्त हैं । दुकानदार व्यस्त है, मोटर चालक व्यस्त है । सब लोग बहुत व्यस्त हैं - इतने व्यस्त हैं कि व्यापार में कई दुर्घटनाऍ होती हैं - अब, क्यों वे व्यस्त ,हैं? अगर तुम बरीकी से अध्ययन करो कि क्या उनका व्यवसाय है व्यापार है इन्द्रिय संतुष्टि । बस । हर कोई व्यस्त हैं कि कैसे इन्द्रिय को तृप्त करें । यह भौतिक है । और योग का मतलब है इंद्रियों को नियंत्रित करना, मेरे आध्यात्मिक स्थिति को समझना, मेरी संवैधानिक स्थिति । जैसे एक लड़के की तरह जो केवल खेलने का आदी है, वह अपने अध्ययन में ध्यान केंद्रित नहीं कर सकता हैं, अपने भविष्य के जीवन को समझने में, या खुद को उन्नत करने में, एक उच्च स्थिति में । इसी तरह, हम जीवन का भविष्य जाने बिना बच्चे की तरह लगे हुए हैं, बस इन्द्रियों के साथ खेल रहे हैं, यही भौतिक जीवन कहा जाता है । भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन के बीच अंतर है, कि अगर कोई बस इन्द्रिय संतुष्टि में लगा हअा है, तो उसे भौतिक जीवन कहा जाता है । और इस तरह के कई हजारों भौतिकवादी व्यक्तियों में से, अगर कोई समझने की कोशिश कर रहा है, "मैं क्या हूँ? मैं यहाँ क्यों आया हूँ? क्यों मैं जीवन के इतने दुखी हालत में डाला गया हूँ? कोई उपाय है क्या ...? " ये सवाल, जब अाते हैं, फिर, व्यावहारिक रूप से, उसका आध्यात्मिक जीवन शुरू होता है । और मानव जीवन इसके लिए है ।