HI/Prabhupada 0603 - यह मृदंग घर घर में जाएगा

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Lecture on SB 1.16.8 -- Los Angeles, January 5, 1974

यमराज का काम है यह देखना कि जीव कितना पापी है अौर उसे उस प्रकार का शरीर देना । कर्मणा दैव-नेत्रेन (श्री भ ३।३१।१) । तुम, तुम्हारी मृत्यु के बाद न्याय होगा, हम में से हर एक का । बेशक, अगर वह गंभीरता से कृष्ण भावनामृत को लेता है, तो पथ स्वचालित है । स्वचालित रूप से तुम वापस देवत्व को, घर को वापस जाअोगे । न्याय का कोई सवाल ही नहीं है । न्याया अपराधियों के लिए है, जो दुष्ट कृष्ण के प्रति जागरूक नहीं हैं । लेकिन अगर तुम कृष्ण के प्रति जागरूक होते हो, भले ही तुम यह काम इस जीवन में खत्म नहीं कर सको आप तुम विफल भी हुए, फिर भी, तुम्हे मानव शरीर का एक और मौका दिया जाएगा, वहॉ से शुरू करने के लिए जहॉ तुमने समाप्त किया था, उस स्तर से शुरू करना जहाॉ से तुम गिरे । यह है ... इसलिए स्वल्पम अपि अस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात । अगर तुम कृष्ण भावनामृत को अपनाते हो, इसे बहुत गंभीरता से अमल करने की कोशिश करते हो, मतलब है नियम और विनियमन का पालन करना और हरे कृष्ण का जाप करना । बस । पांच चीजें । अवैध सेक्स नहीं, जुआ नहीं , मांस खाना नहीं ... हम सेक्स को प्रतिबंधित नहीं करते हैं, लेकिन अवैध सेक्स सबसे बडा पाप है । सबसे बडा पाप । दुर्भाग्य से, वे इतने दुष्ट हैं, एक सेक्स से दूसरा, दूसरे सेक्स से अगला, एक और सेक्स ... यही माया का भ्रम है, प्रभाव । लेकिन अगर तुम कृष्ण से जुडए रहते हो ... माम एव ये प्रपद्यन्ते एताम तरन्ति ते (भ गी ७।१४) अगर तुम बहुत कसकर कृष्ण के चरण कमलों को पकड़ते हो, तो तुम नीचे नहीं गिरोगे । लेकिन अगर तुम एक तथाकथित ब्रह्मचारी, तथाकथित गृहस्थ, या तथाकथित सन्यासी होने का दिखावा करते हो, तो तुम नीचे गिर जाअोगे । हम यह अनुभव कर रहे हैं । तो तुम्हे नीचे गिरना होगा । कृष्ण दोषी को बर्दाश्त नहीं करेंगे, एक दिखावटी भक्त । माया बहुत बलवान है । उस पर तुरंत कब्जा: "चलो । तुम यहाँ क्यों अाए ? तुम क्यों इस समाज में हो ? बाहर निकलो ।" यह यमराज का कर्तव्य है । लेकिन अगर तुम कृष्ण भावनामृत में रहते हैं यमराज तुम्हे नहीं छुऍगे । तुम्हारी मौत वहॉ खत्म होती है जहॉ तुम कृष्ण भावनामृत शुरू करते हो । तुम्हारी मौत खतम हो जाती है । कोई भी मरने के लिए तैयार नहीं है । यह एक तथ्य है । तुम कह सकते हो, मैं कह सकता हूँ, "नहीं, मैं मौत से नहीं डरता ।" यह एक और धूर्तता है । हर कोई मौत से डरता है, और कोई नहीं मरना चाहता है । यह एक तथ्य है । लकिन अगर तुम इस बात पर गंभीर हो, कि "मैं इस मरने की प्रक्रिया को रोकूँगा, मरने की प्रक्रिया," तो यह कृष्ण भावानमृत है । इसलिए यह सलाह दी जाती है, अहो नृ लोके पीयेत हरि-लीलामृतम् वच: "हे मानव समाज, तुम्हे यह शरीर मिला है । बस कृष्ण-कथा के अमृत को पीते जाअो ।" यह यहां सलाह दी गई है । विशेष रूप से यह सलाह दी गई है नृ लोके, मानव समाज । यह कुत्ता लोके या बिल्ली लोके को संबोधित नहीं किया गया है । वे नहीं कर सकते । उनकी कोई क्षमता नहीं है । इसलिए यह कहा गया है: नृ लोके । नायम् देहो देह-भाजाम् नृ-लोके । पांचवें सर्ग में एक और श्लोक: नायम् देहो देह-भाजाम् नृ-लोके कश्टान कामान अर्हते विड-भुजाम ये (श्री भ ५।५।१) ये भागवत हैं । कोई तुलना नहीं है । कोई साहित्य नहीं है पूरे ब्रह्मांड में श्रीमद-भागवतम की तरह । कोई तुलना नहीं है । कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है । हर शब्द मानव समाज की भलाई के लिए है । हर शब्द, हर एक शब्द । इसलिए हम पुस्तक वितरण पर इतना ज़ोर देते हैं । किसी न किसी तरह से, अगर किताब किसी के हाथ में चला जाता है, तो वह लाभान्वित होगा । कम से कम वह देखेंगा "ओह, उन्होंने इतना कीमत लिया है । मुझे देखना है कि है क्या इसमें ।" अगर वह एक श्लोक पढ़ता है, उसका जीवन सफल हो जाएगा । यदि एक श्लोक, एक शब्द । यह इतनी अच्छी बातें हैं । इसलिए हम इतना जोर देते हैं, " पुस्तक वितरण करो, पुस्तक वितरण करो, पुस्तक वितरण करो ।" एक बड़ा मृदंग । हम जप कर रहे हैं, अपने मृदंग को बजा रहे हैं । यह इस कमरे के भीतर या थोड़ा अधिक सुना जाता है । लेकिन यह मृदंग घर घर में जाएगा, देश से देश, समुदाय से समुदाय, यह मृदंग । तो यह सलाह दी गई है नृ-लोके । नृ-लोके का मतलब है मनुष्य शरीर, मानव समाज में । हम त्यागते नहीं हैं कि "यह अमेरिकी समाज है" " या यह भारतीय समाज है" "यह यूरोपीय समाज है" ....नहीं, सब मनुष्य । सभी मनुष्य । फर्क नहीं पड़ता है कि वह क्या है । सभी मनुष्य । सभ्य लोगों कि क्या बात करें, यहां तक ​​कि असभ्य भी, अनार्य । वे भी भागवतम में वर्णित हैं । किरात-हुणान्ध्र-पुलिंद-पुल्कशा अभीर-शूम्भा यावना: खसादय: (श्री भ २।४।१८) ये नाम हैं । किरात । किरातका मतलब है काले, अफ्रीकि । वे किरात कहे जाते हैं । किरात-हुण आंध्र । हुण, राष्ट्र या समुदाय उत्तरी ध्रुव पर, रूस के ऊपर, जर्मन, वे हुण कहे जाते हैं । बहुत सारे हैं, हम नहीं जानते । खसादय: , मंगोलिया खसादय: का मतलब है जो पर्याप्त मूंछें और दाढ़ी नहीं उगते, यह मंगोलियाई समूह । किरात-हुणान्ध्र-पुलिंद-पुल्कशा अभीर-शूम्भा यावना: खसादय: यावन, म्लेछा, यावन, मतलब जो मुसलमान हैं और अन्य । तो वे भी शामिल किए गए हैं । नृ लोके । क्योंखि यह नृ लोके है । हर मनुष्य । कृत्रिम रूप से, बाहरी तौर पर, हो सकता हैं यह देश उस देश की तुलना में बेहतर है । यह तथ्य है आर्य और अनार्य । वर्ग हैं : सभ्य, असभ्य: शिक्षित, अशीक्षित; सुसंस्कृत, संस्कृत विहीन; काले, सफेद, यह और वह । वहाँ हैं ... बाहरी तौर पर ... लेकिन वह भेद शरीर का है ।