HI/Prabhupada 0622 - जो कृष्ण भावनामृत में लगे हुए हैं, उनके साथ अपना संग करो: Difference between revisions

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अगर तुम्हारी इच्छा इस भौतिक दुनिया में आनंद लेने की है, फिर भी तुम कृष्ण भावनामृत को अपनाअो । कृष्ण तुम्हें संतुष्ट करेंगे । वे तुम्हें देंगे । अपने भौतिक आनंद के लिए कुछ और करने की कोई जरूरत नहीं है । अगर तुम चाहो.......क्योंकि हम भौतिक आनंद नहीं त्याग सकते । हम आदी हो गए हैं अति प्राचीन काल से बस इन्द्रिय संतुष्टि के लिए हर जन्म में । यह विचार का त्याग करना बहुत आसान नहीं है । इसलिए शास्त्र कहता है कि अगर इन्द्रिय संतुष्टि का विचार है तुममे फिर भी तुम कृष्ण भावनामृत क अपनाअो । अन्य कोशिश मत करो । जैसे देवताअों की तरह । सारी इन्द्रिय संतुष्टि की सुविधाएं हैं उनके पास । इन्द्रिय संतुष्टि का अर्थ है उदार-उपस्थ-जिह्वा ([[Vanisource:NOI 1|भ र सि १]]) जिह्वा, यह जीभ, और पेट और जननांग । यह प्रमुख इन्द्रिय संतुष्टि के स्रोत हैं । बहुत स्वादिष्ट व्यंजन, पेट जितना संभव हो भरना, और उसके बाद सेक्स का आनंद लेना । यह भौतिक है । आध्यात्मिक दुनिया में ये बातें अनुपस्थित हैं । भौतिक संसार में इन बातों का बहुत महत्व है । तो प्रहलाद महाराजा अपने मित्रों ने चेतावनी देते हैं कि अगर हम इस इन्द्रिय संतुष्टि के लिए संलग्न हो जाते हैं, फिर विमोचितुम काम दृशाम विहार क्रीए मृगो यन् निगडो विसर्ग: निगाड, निगाड का मतलब है जड़, मूल कारण भौतक शरीर को स्वीकार करने का । ये बातें इन्द्िरय संतुष्टि हैं । ततो विदूरात: दूरस्थ स्थान से । ततो विदूरात परिहृत्य दैत्या । " मेरे प्यारे दोस्तों हालांकि तुम दैत्य परिवार में जन्मे हो, मैं भी जन्मा हूँ" - उनके पिता भी दैत्य हैं । दैत्येषु संगम विषयात्मकेषुर् : "उनको त्याग दो..." असत संग त्याग एइ वैष्णव अाचार ([[Vanisource:CC Madhya 22.87|चै च मध्य २२।८७]]) एक ही बात । चैतन्य महाप्रभु नें भी कहा । तो एक वैष्णव कौन है ? वैष्णव, उन्होंने तुरंत समझाया, कि वैष्णव, वैष्णव का कर्तव्य क्या है ? कुछ भक्तों नें चैतन्य महाप्रभु से पूछा, "श्रीमान, एक वैष्णव का कर्तव्य क्या है ?" तो उन्होंने तुरंत जवाब दिया दो पंक्तियों में असत संग त्याग एइ वैष्णव अाचार : "भौतिकवादी व्यक्तियों के संग को त्यगाना ।" तो अगला सवाल हो सकता है, " भौतिकवादी कौन है ?" असत एक स्त्री संगी : "जो स्त्री में अासक्त है वह असत है ।" और कृष्ण-भक्त आर, "और जो कृष्ण का भक्त नहीं है ।" तो हमें त्यागाना होगा । तो नियामक सिद्धांत इसलिए है । कम से कम, कोई अवैध सेक्स नहीं । अपनी शादी करो, एक सज्जन की तरह रहो, जिम्मेदारी लो, फिर धीरे - धीरे तुम यह सेक्स की इच्छा को त्यागनें में सक्षम हो जाअोगे । जब तक हम इस सेक्स की इच्छा को छोड़ते नहीं, बिना किसी उत्तेजना के भौतिक जन्म की इस पुनरावृत्ति को रोकने की कोई संभावना नहीं है - जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी । यह संभव नहीं है । इसलिए प्रहलाद महाराज सलाह देते हैं, दैत्येषु संगम विषयातकेषु : "उनके साथ संग मत करो...." असत-संग, एक ही बात है, चैतन्य महाप्रभु की तरह.... असत-संग-त्याग एइ वैष्णव अाचार । यही वैष्णव का काम है । असत का संग मत करो, जो भौतिकता में डूबे हुए हैं । यह बहुत मुश्किल संग है । तो फिर यह संभव है उपेत नारायणम अादि देवम स मुक्त संगैर इषितो अपवर्ग: इसलिए संग बहुत ..., सज्जति सिद्धाशये । जो कृष्ण भावनामृत में लगे हुए हैं, भक्ति सेवा, उनके साथ अपना संग करो । इसलिए हम हर किसी भक्त को संग का अवसर देने के लिए विभिन्न केन्द्र खोल रहे हैं । जहां तक ​​संभव हो, हम आश्रय दे रहे हैं, हम प्रसादम दे रहे हैं, हम निर्देश दे रहे हैं, हम श्री कृष्ण की पूजा करने का अवसर दे रहे हैं । क्यों? लोग संग का लाभ ले सकें, नारायण । नारायणम अादि देवम, वे नारायण के साथ संग कर सकते हैं । नारायण और नारायण की भक्ति सेवा में निष्पादित कुछ भी - नारायण, कृष्ण, विष्णु, एक ही श्रेणी ... नारायण पारो अव्यक्तात । नारायणा का मतलब है जो ..., जिसकी स्थिति उत्कृष्ट है, नारायण । इसलिए जैसे ही तुम नारायण के संपर्क में आते हो, लक्षमी है, भाग्य की देवी है । हम दरिद्र-नारायण की पूजा नहीं कर रहे हैं, मनगढ़ंत, नहीं ।
अगर तुम्हारी इच्छा इस भौतिक दुनिया में आनंद लेने की है, फिर भी तुम कृष्ण भावनामृत को अपनाअो । कृष्ण तुम्हें संतुष्ट करेंगे । वे तुम्हें देंगे । अपने भौतिक आनंद के लिए कुछ और करने की कोई जरूरत नहीं है । अगर तुम चाहो... क्योंकि हम भौतिक आनंद नहीं त्याग सकते । हम आदी हो गए हैं अति प्राचीन काल से, हर जन्म में बस इन्द्रिय संतुष्टि करने के लिए । यह विचार का त्याग करना बहुत आसान नहीं है । इसलिए शास्त्र कहता है कि अगर इन्द्रिय संतुष्टि का विचार है तुममे फिर भी तुम कृष्ण भावनामृत क अपनाअो । अन्य कोशिश मत करो । जैसे देवताअों की तरह । सारी इन्द्रिय संतुष्टि की सुविधाएं हैं उनके पास ।  
 
इन्द्रिय संतुष्टि का अर्थ है उदर-उपस्थ-जिह्वा ([[Vanisource:NOI 1|उपदेशामृत १]]), जिह्वा, यह जीभ, और पेट और जननांग । यह प्रमुख इन्द्रिय संतुष्टि के स्रोत हैं । बहुत स्वादिष्ट व्यंजन, पेट जितना संभव हो भरना, और उसके बाद यौन जीवन का आनंद लेना । यह भौतिक है । आध्यात्मिक दुनिया में ये बातें अनुपस्थित हैं । भौतिक संसार में इन बातों का बहुत महत्व है ।  
 
तो प्रहलाद महाराज अपने मित्रों को चेतावनी देते हैं कि अगर हम इस इन्द्रिय संतुष्टि के लिए संलग्न हो जाते हैं, फिर विमोचितुम काम दृशाम विहार क्रीडा मृगो यन निगडो विसर्ग: ([[Vanisource:SB 7.6.17-18|श्रीमद भागवतम ७.६.१७-१८]]) निगाड, निगाड का मतलब है जड़, भौतक शरीर को स्वीकार करने का मूल कारण । ये बातें इन्द्रिय संतुष्टि हैं । ततो विदूरात: दूरस्थ स्थान से । ततो विदूरात परिहृत्य दैत्या ([[Vanisource:SB 7.6.17-18|श्रीमद भागवतम ७.६.१७-१८]]) । "मेरे प्यारे मित्रो, हालांकि तुम दैत्य परिवार में जन्मे हो, मैं भी जन्मा हूँ" - उनके पिता भी दैत्य हैं । दैत्येषु संगम विषयात्मकेषु: "उनको त्याग दो..." असत संग त्याग एइ वैष्णव अाचार ([[Vanisource:CC Madhya 22.87|चैतन्य चरितामृत मध्य २२.८७]]) | एक ही बात । चैतन्य महाप्रभु नें भी कहा ।  
 
तो एक वैष्णव कौन है ? वैष्णव, उन्होंने तुरंत समझाया, कि वैष्णव, वैष्णव का कर्तव्य क्या है ? कुछ भक्तों नें चैतन्य महाप्रभु से पूछा, "प्रभु, एक वैष्णव का कर्तव्य क्या है ?" तो उन्होंने तुरंत जवाब दिया दो पंक्तियों में असत संग त्याग एइ वैष्णव अाचार: "भौतिकवादी व्यक्तियों के संग को त्यगाना ।" तो अगला सवाल हो सकता है, "भौतिकवादी कौन है ?" असत एक स्त्री संगी: "जो स्त्री में अासक्त है वह असत है ।" और कृष्ण-भक्त आर, "और जो कृष्ण का भक्त नहीं है ।" तो हमें त्यागना होगा । तो नियामक सिद्धांत इसलिए है ।  
 
कम से कम, कोई अवैध मैथुन नहीं । अपनी शादी करो, एक सज्जन की तरह रहो, जिम्मेदारी लो, फिर धीरे-धीरे तुम यह मैथुन की इच्छा को त्यागनें में सक्षम हो जाअोगे । जब तक हम इस मैथुन की इच्छा को छोड़ते नहीं, बिना किसी उत्तेजना के, भौतिक जन्म की इस पुनरावृत्ति को रोकने की कोई संभावना नहीं है - जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी । यह संभव नहीं है । इसलिए प्रहलाद महाराज सलाह देते हैं, दैत्येषु संगम विषयातकेषु : "उनके साथ संग मत करो..." असत-संग, एक ही बात है, चैतन्य महाप्रभु की तरह... असत-संग-त्याग एइ वैष्णव अाचार । यही वैष्णव का काम है ।  
 
असत का संग मत करो, जो भौतिकता में डूबे हुए हैं । यह बहुत मुश्किल संग है । तो फिर यह संभव है उपेत नारायणम अादि देवम स मुक्त संगैर इषितो अपवर्ग: ([[Vanisource:SB 7.6.17-18|श्रीमद भागवतम ७.६.१७-१८]]) | इसलिए संग..., सज्जति सिद्धाशये । जो कृष्ण भावनामृत में लगे हुए हैं, भक्ति सेवा, उनके साथ अपना संग करो । इसलिए हम हर कोई भक्त को संग का अवसर देने के लिए विभिन्न केन्द्र खोल रहे हैं । जहां तक ​​संभव हो, हम आश्रय दे रहे हैं, हम प्रसादम दे रहे हैं, हम निर्देश दे रहे हैं, हम श्री कृष्ण की पूजा करने का अवसर दे रहे हैं । क्यों? लोग संग का, नारायण का, लाभ ले सकें । नारायणम अादि देवम, वे नारायण के साथ संग कर सकते हैं । नारायण और नारायण की भक्ति सेवा में निष्पादित कुछ भी - नारायण, कृष्ण, विष्णु, एक ही श्रेणी... नारायण परो अव्यक्तात । नारायण का मतलब है जो..., जिनका पद दिव्य है, नारायण । इसलिए जैसे ही तुम नारायण के संपर्क में आते हो, लक्ष्मी है, भाग्य की देवी है । हम दरिद्र-नारायण की पूजा नहीं कर रहे हैं, मनगढ़ंत, नहीं ।  
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Latest revision as of 11:19, 17 October 2018



Lecture on SB 7.6.17-18 -- New Vrindaban, July 1, 1976

अगर तुम्हारी इच्छा इस भौतिक दुनिया में आनंद लेने की है, फिर भी तुम कृष्ण भावनामृत को अपनाअो । कृष्ण तुम्हें संतुष्ट करेंगे । वे तुम्हें देंगे । अपने भौतिक आनंद के लिए कुछ और करने की कोई जरूरत नहीं है । अगर तुम चाहो... क्योंकि हम भौतिक आनंद नहीं त्याग सकते । हम आदी हो गए हैं अति प्राचीन काल से, हर जन्म में बस इन्द्रिय संतुष्टि करने के लिए । यह विचार का त्याग करना बहुत आसान नहीं है । इसलिए शास्त्र कहता है कि अगर इन्द्रिय संतुष्टि का विचार है तुममे फिर भी तुम कृष्ण भावनामृत क अपनाअो । अन्य कोशिश मत करो । जैसे देवताअों की तरह । सारी इन्द्रिय संतुष्टि की सुविधाएं हैं उनके पास ।

इन्द्रिय संतुष्टि का अर्थ है उदर-उपस्थ-जिह्वा (उपदेशामृत १), जिह्वा, यह जीभ, और पेट और जननांग । यह प्रमुख इन्द्रिय संतुष्टि के स्रोत हैं । बहुत स्वादिष्ट व्यंजन, पेट जितना संभव हो भरना, और उसके बाद यौन जीवन का आनंद लेना । यह भौतिक है । आध्यात्मिक दुनिया में ये बातें अनुपस्थित हैं । भौतिक संसार में इन बातों का बहुत महत्व है ।

तो प्रहलाद महाराज अपने मित्रों को चेतावनी देते हैं कि अगर हम इस इन्द्रिय संतुष्टि के लिए संलग्न हो जाते हैं, फिर विमोचितुम काम दृशाम विहार क्रीडा मृगो यन निगडो विसर्ग: (श्रीमद भागवतम ७.६.१७-१८) निगाड, निगाड का मतलब है जड़, भौतक शरीर को स्वीकार करने का मूल कारण । ये बातें इन्द्रिय संतुष्टि हैं । ततो विदूरात: दूरस्थ स्थान से । ततो विदूरात परिहृत्य दैत्या (श्रीमद भागवतम ७.६.१७-१८) । "मेरे प्यारे मित्रो, हालांकि तुम दैत्य परिवार में जन्मे हो, मैं भी जन्मा हूँ" - उनके पिता भी दैत्य हैं । दैत्येषु संगम विषयात्मकेषु: "उनको त्याग दो..." असत संग त्याग एइ वैष्णव अाचार (चैतन्य चरितामृत मध्य २२.८७) | एक ही बात । चैतन्य महाप्रभु नें भी कहा ।

तो एक वैष्णव कौन है ? वैष्णव, उन्होंने तुरंत समझाया, कि वैष्णव, वैष्णव का कर्तव्य क्या है ? कुछ भक्तों नें चैतन्य महाप्रभु से पूछा, "प्रभु, एक वैष्णव का कर्तव्य क्या है ?" तो उन्होंने तुरंत जवाब दिया दो पंक्तियों में असत संग त्याग एइ वैष्णव अाचार: "भौतिकवादी व्यक्तियों के संग को त्यगाना ।" तो अगला सवाल हो सकता है, "भौतिकवादी कौन है ?" असत एक स्त्री संगी: "जो स्त्री में अासक्त है वह असत है ।" और कृष्ण-भक्त आर, "और जो कृष्ण का भक्त नहीं है ।" तो हमें त्यागना होगा । तो नियामक सिद्धांत इसलिए है ।

कम से कम, कोई अवैध मैथुन नहीं । अपनी शादी करो, एक सज्जन की तरह रहो, जिम्मेदारी लो, फिर धीरे-धीरे तुम यह मैथुन की इच्छा को त्यागनें में सक्षम हो जाअोगे । जब तक हम इस मैथुन की इच्छा को छोड़ते नहीं, बिना किसी उत्तेजना के, भौतिक जन्म की इस पुनरावृत्ति को रोकने की कोई संभावना नहीं है - जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और बीमारी । यह संभव नहीं है । इसलिए प्रहलाद महाराज सलाह देते हैं, दैत्येषु संगम विषयातकेषु : "उनके साथ संग मत करो..." असत-संग, एक ही बात है, चैतन्य महाप्रभु की तरह... असत-संग-त्याग एइ वैष्णव अाचार । यही वैष्णव का काम है ।

असत का संग मत करो, जो भौतिकता में डूबे हुए हैं । यह बहुत मुश्किल संग है । तो फिर यह संभव है उपेत नारायणम अादि देवम स मुक्त संगैर इषितो अपवर्ग: (श्रीमद भागवतम ७.६.१७-१८) | इसलिए संग..., सज्जति सिद्धाशये । जो कृष्ण भावनामृत में लगे हुए हैं, भक्ति सेवा, उनके साथ अपना संग करो । इसलिए हम हर कोई भक्त को संग का अवसर देने के लिए विभिन्न केन्द्र खोल रहे हैं । जहां तक ​​संभव हो, हम आश्रय दे रहे हैं, हम प्रसादम दे रहे हैं, हम निर्देश दे रहे हैं, हम श्री कृष्ण की पूजा करने का अवसर दे रहे हैं । क्यों? लोग संग का, नारायण का, लाभ ले सकें । नारायणम अादि देवम, वे नारायण के साथ संग कर सकते हैं । नारायण और नारायण की भक्ति सेवा में निष्पादित कुछ भी - नारायण, कृष्ण, विष्णु, एक ही श्रेणी... नारायण परो अव्यक्तात । नारायण का मतलब है जो..., जिनका पद दिव्य है, नारायण । इसलिए जैसे ही तुम नारायण के संपर्क में आते हो, लक्ष्मी है, भाग्य की देवी है । हम दरिद्र-नारायण की पूजा नहीं कर रहे हैं, मनगढ़ंत, नहीं ।