HI/Prabhupada 0706 - असली शरीर भीतर है

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Lecture on SB 3.26.29 -- Bombay, January 6, 1975

इसलिए प्रयास होना चाहिए मुक्त होने के लिए इस भौतिक अस्तित्व से, और हमारे आध्यात्मिक मंच पर आने के लिए । यही मानव जीवन का प्रयास होना चाहिए । बिल्लि और कुत्ते, वे ऐसी कोई उन्नत चेतना नहीं रखते हैं । वे इसके लिए कोशिश नहीं कर सकते हैं । वे इस भौतिक शरीर और भौतिक इंद्रियों से संतुष्ट हैं । लेकिन मनुष्य शरीर में समझने के लिए मौका है कि ये इंद्रियॉ, शरीर का यह भौतिक गठन, झूठा है, या अस्थायी है, या इस अर्थ से निराधार है कि - यह मेरा वास्तविक शरीर नहीं है । वास्तविक शरीर इस भौतिक शरीर के भीतर है । वही आध्यात्मिक शरीर है ।

अस्मिन देहे देहिन: । देहिनो अस्मिन, तथा देहान्तर-प्राप्ति: (भ.गी. २.१३) । अस्मिन देहिन: | तो आध्यात्मिक शरीर वास्तव में शरीर है, और यह भौतिक शरीर उसको ढकता है । यह भगवद गीता में अलग तरीके से समझाया गया है । वासांसी जीर्णानि यथा विहाय (भ.गी. २.२२) । यह भौतिक शरीर एक वस्त्र की तरह है । वस्त्र... मैं शर्ट पहनता हूँ, तुम शर्ट और कोट पहनते हो । यह बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं है | महत्वपूर्ण बात है शर्ट के भीतर का शरीर । इसी प्रकार, यह भोतिक शरीर बस आध्यात्मिक शरीर को भौतिक वातावरण से बस ढकने वाला है, लेकिन असली शरीर भीतर है । देहिनो अस्मिन यथा देहे (भ.गी. २.१३) | यह बाहरी, भौतिक शरीर देह कहा जाता है, और इस देह के मालिक को देही कहा जाता है, "जो इस देह का मालिक है ।" हमें यह समझना होगा... यह भगवद गीता का पहले निर्देश है ।

तो हमें जिज्ञासु होना चाहिए, "कैसे यह भौतिक शरीर अस्तित्व में आया, अपने आप को, आध्यात्मिक शरीर को, ढक कर - अहम ब्रह्मास्मि को ढक कर ? " तो इस विज्ञान को समझने के लिए, कपिलदेव प्राकृतिक सांख्य तत्वज्ञान समझा रहे हैं, कैसे चीजें विकसित होती हैं । यह समझने के लिए... वही बात: इस सरल बात को समझने के लिए, कि "मैं यह शरीर नहीं हूँ । शरीर आत्मा से विकसित हुअा है ।" इसलिए हम भौतिक वैज्ञानिकों को चुनौती देते हैं । वे कहते हैं कि आत्मा शरीर से विकसित हुअा है । नहीं । आत्मा शरीर से विकसित नहीं हुअा है । बल्कि शरीर आत्मा से विकसित हुअा है । बिल्कुल विपरीत ।

भौतिक वैज्ञानिक, वे समझते हैं कि इन भौतिक तत्वों का संयोजन एक स्थिति पैदा करता है जहां, जहॉ जीवन है, जीवन के लक्षण । नहीं । एसा नहीं है । वास्तविकता यह है, तथ्य यह है कि आत्मा है । वे पूरे ब्रह्मांड में भटक रहे हैं, ब्रह्माण्ड ब्रह्मण । ब्रह्माण्ड का मतलब है पूरे ब्रह्मांड में । आत्मा कभी कभी जीवन की एक प्रजाति में होता है; कभी कभी वह जीवन की एक और प्रजाति में होता है । कभी कभी वह इस ग्रह में, कभी कभी किसी और ग्रह में होता है । इस तरह, अपने कर्म के अनुसार वह भटक रहा है । यही उसका भौतिक जीवन है । तो एइ रुप ब्रह्माणड भ्रमिते (चैतन्य चरितामृत मध्य १९.१५१) । वह किसी भी उद्देश्य के बिना भटक रहा है । "जीवन का उद्देश्य क्या है? क्यों मैं इस हालत में डाल दिया गया, इस भौतिक शरीर को अपनाना पडा, जो सब दुखों का स्रोत है ?" ये सवाल पूछे जाने चाहिए । यही ब्रह्म-जिज्ञासा कहा जाता है । और इसका ठीक से जवाब दिया जाना चाहिए । तब हमारा जीवन सफल होगा । अन्यथा यह एक बिल्ली या एक कुत्ते के शरीर के रूप में बेकार है - कोई समझ नहीं, मूढ । मूढ ।