HI/Prabhupada 0708 - मछली के जीवन और मेरे जीवन के बीच का अंतर: Difference between revisions

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क्योंकि मैं आत्मा हूं, मेरा इस भौतिक वातावरण से कुछ लेना देना नहीं है । असंगो अयम् पुरष: । आत्मा का लेना देना नहीं है । लेकिन उसकी भौतिक संग के कारण, अलग, अलग प्रक्रियाओं से, हम, मेरे कहने का मतलब है, इस शरीर को पाया है, भौतिक शरीर, और अब हम हैं ... यही उलझना है । जैसे एक मछली जाल में उलझ जाती है इसी तरह, हम, जीव, हम उलझे हुए हैं भौतिक तत्वों के इस जाल में । तो बहुत मुश्किल स्थिति है । जैसे मछुआरे के जाल में फसी मछली की तरह, , या माया इसी तरह, हम अब भौतिक प्रकृति के द्वारा बनाई गई जाल के भीतर फंस गए हैं । प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्व...... ([[Vanisource:BG 3.27|भ गी ३।२७]]) क्योंकि हम प्रकृति की भौतिक गुणों के साथ जुड़े हैं, इसलिए अब हम उलझे हुए हैं । जैसे मछली उलझी है, इसी तरह, हम भी उलझे हैं । यह भौतिक दुनिया एक बड़े महासागर की तरह माना जाता है, भवार्णव । अर्णव का मतलब है सागर, और भव का मतलब है वह स्थिति जहां जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति होती है । इसे भवार्णव कहा जाता है । अनादि कर्म फले, पडि भवार्णव-जले । अनादि कर्म फले: "निर्माण से पहले मेरे कर्मों के फल थे, और किसी न किसी तरह से, मैं अब इस भवार्णव महासागर में गिर गया हूँ, जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति । " मछली की तरह, उलझे हुए, वह अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है, जाल से बाहर निकलें कैसे ... वह शांतिपूर्ण नहीं है । तुम पाअोगे, जैसे ही वह फँसता है, " फट ! फट! फट ! फट !" वह बाहर निकलना चाहता है । तो अस्तित्व के लिए हमारा संघर्ष है, कैसे बाहर निकलें । हम नहीं जानते ।  
क्योंकि मैं आत्मा हूं, मेरा इस भौतिक वातावरण से कुछ लेना देना नहीं है । असंगो अयम पुरष: । आत्मा का लेना देना नहीं है । लेकिन उसके भौतिक संग के कारण, अलग, अलग प्रक्रियाओं से, हमने, मेरे कहने का मतलब है, इस शरीर को पाया है, भौतिक शरीर, और अब हम हैं... यही उलझना है । जैसे एक मछली जाल में उलझ जाती है, इसी तरह, हम, जीव, हम उलझे हुए हैं भौतिक तत्वों के इस जाल में । तो बहुत मुश्किल स्थिति है । जैसे मछुआरे के जाल में फसी मछली की तरह, या माया की जाल में, इसी तरह, हम अब भौतिक प्रकृति के द्वारा बनाई गई जाल के भीतर फंस गए हैं ।  


तो इस से बाहर निकलना, कृष्ण की कृपा से ही हो सकता है । वे सब कुछ कर सकते हैं । वे तुरंत इस उलझन से बाहर निकाल सकते हैं । अन्यथा वे कैसे सर्वशक्तिमान हैं ? मैं बाहर नहीं निकल सकता । मछली बाहर नहीं निकल सकती है, लेकिन ..., अगर मछुआरा चाहता है, वह उसे तुरंत बाहर निकाल सकता है और पानी में फेंक सकता है । तब वह फिर से जीवन पाता है । इसी तरह, अगर हम कृष्ण को आत्मसमर्पण करते हैं, वे तुरंत बाहर निकाल सकते हैं । और वे कहते हैं, अहम् त्वाम सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) तुम केवल आत्मसमर्पण करो । जैसे मछुआरा देख रहा है " फट! फट! " लेकिन अगर मछली समर्पण करती है ... वह आत्मसमर्पण करना चाहता है, लेकिन वह भाषा नहीं जानता है । इसलिए वह जाल में ही रहता है । लेकिन अगर मछुआरा चाहे, वह उसे बाहर निकाल सकता है और पानी में फेंक सकता है । इसी तरह, अगर हम कृष्ण को आत्मसमर्पण करें.... उस आत्मसमर्पण की प्रक्रिया के लिए यह मानव जीवन बना है । अन्य जीवन में - मछली नहीं कर सकती है, लेकिन मैं कर सकता हूँ । यही अंतर है मछली के जीवन और मेरे जीवन के बीच । जाल में उलझी मछली, उसकी कोई शक्ति नहीं है । उसकी बर्बादी निश्चित है ।
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्व... ([[HI/BG 3.27|भ.गी. ३.२७]]) | क्योंकि हम भौतिक प्रकृति के गुणों के साथ जुड़े हैं, इसलिए अभी हम उलझे हुए हैं । जैसे मछली उलझी है, इसी तरह, हम भी उलझे हैं । यह भौतिक दुनिया एक बड़े महासागर की तरह माना जाता है, भवार्णव । अर्णव का मतलब है सागर, और भव का मतलब है वह स्थिति जहां जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति होती है । इसे भवार्णव कहा जाता है । अनादि कर्म फले, पडि भवार्णव-जले ।
 
अनादि कर्म फले: "निर्माण से पहले मेरे कर्मों के फल थे, और किसी न किसी तरह से, मैं अब इस भवार्णव महासागर में गिर गया हूँ, जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति ।" मछली की तरह, उलझे हुए, वह अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है, जाल से बाहर निकलें कैसे... वह शांत नहीं है । तुम पाअोगे, जैसे ही वह फँसता है, "फट ! फट! फट ! फट !" वह बाहर निकलना चाहता है । तो अस्तित्व के लिए हमारा संघर्ष है, कैसे बाहर निकलें । हम नहीं जानते ।
 
तो इस से बाहर निकलना, कृष्ण की कृपा से ही हो सकता है । वे सब कुछ कर सकते हैं । वे तुरंत इस उलझन से बाहर निकाल सकते हैं । अन्यथा वे कैसे सर्वशक्तिमान हैं ? मैं बाहर नहीं निकल सकता । मछली बाहर नहीं निकल सकती है, लेकिन..., अगर मछुआरा चाहता है, वह उसे तुरंत बाहर निकाल सकता है और पानी में फेंक सकता है । तब वह फिर से जीवन पाता है । इसी तरह, अगर हम कृष्ण को आत्मसमर्पण करते हैं, वे तुरंत बाहर निकाल सकते हैं । और वे कहते हैं, अहम त्वाम सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) | तुम केवल आत्मसमर्पण करो ।  
 
जैसे मछुआरा देख रहा है " फट! फट! " लेकिन अगर मछली समर्पण करती है... वह आत्मसमर्पण करना चाहती है, लेकिन वह भाषा नहीं जानती है । इसलिए वह जाल में ही रहती है । लेकिन अगर मछुआरा चाहे, वह उसे बाहर निकाल सकता है और पानी में फेंक सकता है । इसी तरह, अगर हम कृष्ण को आत्मसमर्पण करें... उस आत्मसमर्पण की प्रक्रिया के लिए यह मानव जीवन बना है । अन्य जीवन में - मछली नहीं कर सकती है, लेकिन मैं कर सकता हूँ । यही अंतर है मछली के जीवन और मेरे जीवन के बीच । जाल में उलझी मछली, उसकी कोई शक्ति नहीं है । उसकी बर्बादी निश्चित है ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on SB 3.26.32 -- Bombay, January 9, 1975

क्योंकि मैं आत्मा हूं, मेरा इस भौतिक वातावरण से कुछ लेना देना नहीं है । असंगो अयम पुरष: । आत्मा का लेना देना नहीं है । लेकिन उसके भौतिक संग के कारण, अलग, अलग प्रक्रियाओं से, हमने, मेरे कहने का मतलब है, इस शरीर को पाया है, भौतिक शरीर, और अब हम हैं... यही उलझना है । जैसे एक मछली जाल में उलझ जाती है, इसी तरह, हम, जीव, हम उलझे हुए हैं भौतिक तत्वों के इस जाल में । तो बहुत मुश्किल स्थिति है । जैसे मछुआरे के जाल में फसी मछली की तरह, या माया की जाल में, इसी तरह, हम अब भौतिक प्रकृति के द्वारा बनाई गई जाल के भीतर फंस गए हैं ।

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्व... (भ.गी. ३.२७) | क्योंकि हम भौतिक प्रकृति के गुणों के साथ जुड़े हैं, इसलिए अभी हम उलझे हुए हैं । जैसे मछली उलझी है, इसी तरह, हम भी उलझे हैं । यह भौतिक दुनिया एक बड़े महासागर की तरह माना जाता है, भवार्णव । अर्णव का मतलब है सागर, और भव का मतलब है वह स्थिति जहां जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति होती है । इसे भवार्णव कहा जाता है । अनादि कर्म फले, पडि भवार्णव-जले ।

अनादि कर्म फले: "निर्माण से पहले मेरे कर्मों के फल थे, और किसी न किसी तरह से, मैं अब इस भवार्णव महासागर में गिर गया हूँ, जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति ।" मछली की तरह, उलझे हुए, वह अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है, जाल से बाहर निकलें कैसे... वह शांत नहीं है । तुम पाअोगे, जैसे ही वह फँसता है, "फट ! फट! फट ! फट !" वह बाहर निकलना चाहता है । तो अस्तित्व के लिए हमारा संघर्ष है, कैसे बाहर निकलें । हम नहीं जानते ।

तो इस से बाहर निकलना, कृष्ण की कृपा से ही हो सकता है । वे सब कुछ कर सकते हैं । वे तुरंत इस उलझन से बाहर निकाल सकते हैं । अन्यथा वे कैसे सर्वशक्तिमान हैं ? मैं बाहर नहीं निकल सकता । मछली बाहर नहीं निकल सकती है, लेकिन..., अगर मछुआरा चाहता है, वह उसे तुरंत बाहर निकाल सकता है और पानी में फेंक सकता है । तब वह फिर से जीवन पाता है । इसी तरह, अगर हम कृष्ण को आत्मसमर्पण करते हैं, वे तुरंत बाहर निकाल सकते हैं । और वे कहते हैं, अहम त्वाम सर्व-पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: (भ.गी. १८.६६) | तुम केवल आत्मसमर्पण करो ।

जैसे मछुआरा देख रहा है " फट! फट! " लेकिन अगर मछली समर्पण करती है... वह आत्मसमर्पण करना चाहती है, लेकिन वह भाषा नहीं जानती है । इसलिए वह जाल में ही रहती है । लेकिन अगर मछुआरा चाहे, वह उसे बाहर निकाल सकता है और पानी में फेंक सकता है । इसी तरह, अगर हम कृष्ण को आत्मसमर्पण करें... उस आत्मसमर्पण की प्रक्रिया के लिए यह मानव जीवन बना है । अन्य जीवन में - मछली नहीं कर सकती है, लेकिन मैं कर सकता हूँ । यही अंतर है मछली के जीवन और मेरे जीवन के बीच । जाल में उलझी मछली, उसकी कोई शक्ति नहीं है । उसकी बर्बादी निश्चित है ।