HI/Prabhupada 0712 - कृष्ण नें अादेश दिया " तुम पश्चिमी देशों में जाओ । उन्हें सिखाओ ": Difference between revisions

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जब आप कृष्ण चेतना में आते हैं, तो आपका जीवन एकदम सही हो जाता है । और पूरी तरह से कृष्ण के प्रति सजग हैं, तो आप इस शरीर को त्याग देने के बाद - त्यक्त्वा देहम् पुनर जन्म नौति ([[Vanisource:BG 4.9|भ गी ४।९]]) और कोई भौतिक शरीर नहीं । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है । और यह अभिभावकों का कर्तव्य है जैसे राज्य, पिता, गुरु की तरह उन्हें आश्रितों के हित को देखना चाहिए, अधीनस्थ, के वह अच्छी तरह से अपनी कृष्ण भावनामृत को विकसित कर रहे हैं । यही कर्तव्य है । जो जब यह कर्तव्य नहीं किया जाता है ... जैसे ... हमें यहॉ तक आने की कोई अावश्यक्ता नहीं है । वृन्दावन में मैं राधा दामोदर मंदिर में बहुत शांति से रह सकता हूँ, अभी भी दो कमरे वहाँ हैं । लेकिन क्योंकि कृष्ण भावनामृत है, ... कृष्ण भावनामृत का मतलब है प्रभु की सेवा । यही कृष्ण भावनामृत है । तो कृष्ण नें अादेश दिया "तुम किसी भी परेशानी के बिना बहुत शांति से यहां बैठे हो । नहीं, तुम पश्चिमी देशों में जाओ । उन्हें सिखाओ ।" तो यह भी कृष्ण भावनमृत है,, विकसित कृष्ण भावनामृत । सेवा प्रदान करना, अज्ञानियों को कृष्ण भावनामृत की । यह बेहतर है क्योंकि व्यासदेव नें देखा कि माया, मायावी शक्ति या छाया, अंधेरा, ... यया संमोहित जीव । पूरी दुनिया, जीव, सश्कत आत्मा, वे इस माया से भ्रमित हैं । यया संमोहितो जीव अात्मानम् त्रि-गुणात्मकम ([[Vanisource:SB 1.7.5|श्रीभ १।७।५]]) इस शरीर को अात्मा मान कर, मूर्ख, मूढ । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्री भ १०।८४।१३]]) जो यह सोचता है कि "मैं यह शरीर हूँ," वह कुत्ते और बिल्ली से बेहतर नहीं । किनते भी अच्छी तरह से वह कपड़े पहने, वह एक बिल्ली है, एक कुत्ता है । बस । पशु से अधिक नहीं । क्योंकि उश्रे अपने अात्मा का ज्ञान नहीं है । (एक तरफ :) ऐसा मत करो । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके...... (एक तरफ :) तुम इस तरह से नहीं बैठ सकते ? हाँ । स्व धि: कलत्रादषु भौम इज्य धि: । यह चल रहा है । लोग भ्रमित हैं, यह सोच कर कि "मैं यह शरीर हूँ," बस बिल्लियों और कुत्तों की तरह । "और शरीर या शरीर से जुडए मुद्दे, मेरे हैं ।" स्व धि: कलत्रादषु । "मेरा औरत के साथ कुछ संबंध है, शारीरिक संबंध इसलिए वह मेरी पत्नी है या वह मेरी रक्षा में है," कुछ एसा । बच्चों, वही बात, शारीरिक । उन्हें आत्मा का कोई पता नहीं है, बस शरीर । "तो यह शरीर एक विशेष भूमि में पैदा होता है । इसलिए मैं राष्ट्रीय हूँ ।" भौम इज्य धि: । वे इतना त्याग कर रहे हैं, अपनी ऊर्जा, विशेष रूप से देश के लिए, क्योंकि किसी कारण, वह उस देश में पैदा हुआ है । सब कुछ भागवत में वर्णित है । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके स्व धि: कलत्रादषु भौम इज्य धि: ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्री भ १०।८४।१३]]) भौम का मतलब है भूमि । तो यह हो रहा है । इसे भ्रम कहा जाता है । उसका इन सब बातों के साथ कोई संबंध नहीं है । जब यह एहसास होता है, " मेरा इस शरीर के साथ कोई संबंध नहीं है, इस देश, इस पत्नी, इन बच्चों से, समाज... वे सब भ्रामक हैं ।" उसे मुक्ति कहा जाता है ।
जब आप कृष्ण भावनामृत में आते हैं, तो आपका जीवन एकदम सही हो जाता है । और पूरी तरह से कृष्ण भावनाभावित हैं, तो आप इस शरीर को त्याग देने के बाद - त्यक्त्वा देहम पुनर जन्म नौति (([[HI/BG 4.9|भ.गी. ४.९]])), और कोई भौतिक शरीर नहीं । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है । और यह अभिभावकों का कर्तव्य है जैसे राज्य, पिता, गुरु की तरह, उन्हें आश्रितों के, अधीनस्थ के, हित को देखना चाहिए, के वह अच्छी तरह से अपने कृष्ण भावनामृत को विकसित कर रहे हैं । यही कर्तव्य है । जो जब यह कर्तव्य नहीं किया जाता है... जैसे... हमें यहॉ तक आने की कोई अावश्यक्ता नहीं है ।  
 
वृन्दावन में मैं राधा दामोदर मंदिर में बहुत शांति से रह सकता हूँ, अभी भी दो कमरे वहाँ हैं । लेकिन क्योंकि कृष्ण भावनामृत है... कृष्ण भावनामृत का मतलब है भगवान की सेवा । यही कृष्ण भावनामृत है । तो कृष्ण नें अादेश दिया "तुम किसी भी परेशानी के बिना बहुत शांति से यहां बैठे हो । नहीं, तुम पश्चिमी देशों में जाओ । उन्हें सिखाओ ।" तो यह भी कृष्ण भावनमृत है, विकसित कृष्ण भावनामृत । अज्ञानियों को कृष्ण भावनामृत की सेवा प्रदान करना । यह बेहतर है क्योंकि व्यासदेव नें देखा कि माया, मायावी शक्ति या छाया, अंधेरा... यया संमोहित जीव । पूरी दुनिया, जीव, बद्ध आत्मा, वे इस माया से भ्रमित हैं । यया संमोहितो जीव अात्मानम त्रि-गुणात्मकम ([[Vanisource:SB 1.7.5|श्रीमद भागवतम १.७.५]]) | इस शरीर को अात्मा मान कर, मूर्ख, मूढ । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]]) |
 
जो यह सोचता है कि "मैं यह शरीर हूँ," वह कुत्ते और बिल्ली से बेहतर नहीं है । किनते भी अच्छी तरह से वह कपड़े पहने, वह एक बिल्ली है, एक कुत्ता है । बस । पशु से अधिक नहीं । क्योंकि उसे अपने अात्मा का ज्ञान नहीं है । (एक तरफ:) ऐसा मत करो । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके... (एक तरफ:) तुम इस तरह से नहीं बैठ सकते ? हाँ । स्व धि: कलत्रादिषु भौम इज्य धि: । यह चल रहा है । लोग भ्रमित हैं, यह सोच कर कि "मैं यह शरीर हूँ," बस बिल्लियों और कुत्तों की तरह । "और शरीर या शरीर से जुड़े मुद्दे, मेरे हैं ।" स्व धि: कलत्रादिषु । "मेरा स्त्री के साथ कुछ संबंध है, शारीरिक संबंध | इसलिए वह मेरी पत्नी है या वह मेरी रक्षा में है," कुछ एसा ।  
 
बच्चे, वही बात, शारीरिक । उन्हें आत्मा का कोई पता नहीं है, बस शरीर । "तो यह शरीर एक विशेष भूमि में पैदा होता है । इसलिए मैं राष्ट्रीय हूँ ।" भौम इज्य धि: । वे इतना त्याग कर रहे हैं, अपनी ऊर्जा, विशेष रूप से देश के लिए, क्योंकि किसी कारण, वह उस देश में पैदा हुआ है । सब कुछ भागवत में वर्णित है । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके स्व धि: कलत्रादिषु भौम इज्य धि: ([[Vanisource:SB 10.84.13|श्रीमद भागवतम १०.८४.१३]]) भौम का मतलब है भूमि । तो यह चल रहा है । इसे भ्रम कहा जाता है । उसका इन सब बातों के साथ कोई संबंध नहीं है । जब यह एहसास होता है, "मेरा इस शरीर के साथ, इस देश के साथ, कोई संबंध नहीं है, इस पत्नी, ये बच्चों के साथ, समाज के साथ... वे सब भ्रामक हैं ।" उसे मुक्ति कहा जाता है ।  
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020



Lecture on SB 1.16.22 -- Hawaii, January 18, 1974

जब आप कृष्ण भावनामृत में आते हैं, तो आपका जीवन एकदम सही हो जाता है । और पूरी तरह से कृष्ण भावनाभावित हैं, तो आप इस शरीर को त्याग देने के बाद - त्यक्त्वा देहम पुनर जन्म नौति ((भ.गी. ४.९)), और कोई भौतिक शरीर नहीं । तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन है । और यह अभिभावकों का कर्तव्य है जैसे राज्य, पिता, गुरु की तरह, उन्हें आश्रितों के, अधीनस्थ के, हित को देखना चाहिए, के वह अच्छी तरह से अपने कृष्ण भावनामृत को विकसित कर रहे हैं । यही कर्तव्य है । जो जब यह कर्तव्य नहीं किया जाता है... जैसे... हमें यहॉ तक आने की कोई अावश्यक्ता नहीं है ।

वृन्दावन में मैं राधा दामोदर मंदिर में बहुत शांति से रह सकता हूँ, अभी भी दो कमरे वहाँ हैं । लेकिन क्योंकि कृष्ण भावनामृत है... कृष्ण भावनामृत का मतलब है भगवान की सेवा । यही कृष्ण भावनामृत है । तो कृष्ण नें अादेश दिया "तुम किसी भी परेशानी के बिना बहुत शांति से यहां बैठे हो । नहीं, तुम पश्चिमी देशों में जाओ । उन्हें सिखाओ ।" तो यह भी कृष्ण भावनमृत है, विकसित कृष्ण भावनामृत । अज्ञानियों को कृष्ण भावनामृत की सेवा प्रदान करना । यह बेहतर है क्योंकि व्यासदेव नें देखा कि माया, मायावी शक्ति या छाया, अंधेरा... यया संमोहित जीव । पूरी दुनिया, जीव, बद्ध आत्मा, वे इस माया से भ्रमित हैं । यया संमोहितो जीव अात्मानम त्रि-गुणात्मकम (श्रीमद भागवतम १.७.५) | इस शरीर को अात्मा मान कर, मूर्ख, मूढ । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) |

जो यह सोचता है कि "मैं यह शरीर हूँ," वह कुत्ते और बिल्ली से बेहतर नहीं है । किनते भी अच्छी तरह से वह कपड़े पहने, वह एक बिल्ली है, एक कुत्ता है । बस । पशु से अधिक नहीं । क्योंकि उसे अपने अात्मा का ज्ञान नहीं है । (एक तरफ:) ऐसा मत करो । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके... (एक तरफ:) तुम इस तरह से नहीं बैठ सकते ? हाँ । स्व धि: कलत्रादिषु भौम इज्य धि: । यह चल रहा है । लोग भ्रमित हैं, यह सोच कर कि "मैं यह शरीर हूँ," बस बिल्लियों और कुत्तों की तरह । "और शरीर या शरीर से जुड़े मुद्दे, मेरे हैं ।" स्व धि: कलत्रादिषु । "मेरा स्त्री के साथ कुछ संबंध है, शारीरिक संबंध | इसलिए वह मेरी पत्नी है या वह मेरी रक्षा में है," कुछ एसा ।

बच्चे, वही बात, शारीरिक । उन्हें आत्मा का कोई पता नहीं है, बस शरीर । "तो यह शरीर एक विशेष भूमि में पैदा होता है । इसलिए मैं राष्ट्रीय हूँ ।" भौम इज्य धि: । वे इतना त्याग कर रहे हैं, अपनी ऊर्जा, विशेष रूप से देश के लिए, क्योंकि किसी कारण, वह उस देश में पैदा हुआ है । सब कुछ भागवत में वर्णित है । यस्यात्म-बुद्धि: कुणपे त्रि-धातुके स्व धि: कलत्रादिषु भौम इज्य धि: (श्रीमद भागवतम १०.८४.१३) । भौम का मतलब है भूमि । तो यह चल रहा है । इसे भ्रम कहा जाता है । उसका इन सब बातों के साथ कोई संबंध नहीं है । जब यह एहसास होता है, "मेरा इस शरीर के साथ, इस देश के साथ, कोई संबंध नहीं है, इस पत्नी, ये बच्चों के साथ, समाज के साथ... वे सब भ्रामक हैं ।" उसे मुक्ति कहा जाता है ।