HI/Prabhupada 0715 - आप भगवान का प्रेमी बन जाओ । यह प्रथम श्रेणी का धर्म है: Difference between revisions

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भवान हि वेद तत् सर्वम् यन् माम् धर्मानुपृच्छसि । तो, धर्मराज, या यमराज, वे बारह अधिकृत व्यक्तियों में से एक हैं ठीक से मानव सभ्यता को बनाए रखने के लिए । सिद्धांत धर्म है । धर्म का अर्थ नहीं है एक धार्मिक भावना । धर्म का अर्थ है व्यावसायिक कर्तव्य । हर किसी का कुछ व्यावसायिक कर्तव्य होता है । तो धर्मम् तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्री ६।३।१९]]) । वह व्यावसायिक कर्तव्य देवत्व की परम व्यक्तित्व द्वारा सौंपा जाता है । तेन त्यक्तेन भुन्जिता: ([[Vanisource:ISO 1|ईशो १]]) । असल में, धर्म का सिद्धांत, हम भगवद गीता से सीखते हैं ... कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परितज्य माम एकम शरणम व्रज ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) मत निर्माण करो,अपने सिद्धांत का धर्म, मत बनाअो, मनगढ़ंत । यही कठिनाई है । धर्मम् तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्री ६।३।१९]]) । हमने कई बार यह समझाया है, कि धर्म का अर्थ है - धर्म, इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया है, "मज़हब" धर्म का मतलब है भगवान के कानूनों का पालन करना । यही धर्म है । हमारे द्वारा निर्मित कोई भावुक धार्मिक प्रणाली नहीं । उस तरह का धर्म हमारी मदद नहीं करेगा । इसलिए, श्रीमद-भागवतम में, शुरुआत में यह कहा जाता है : धर्म: प्रोजित: कैतवो अत्र ([[Vanisource:SB 1.1.2|श्री १।१।२]]) "धोखा देने वाली धार्मिक प्रणाली को बाहर निकाल दिया जाता है ।" यही भागवत-धर्म है । कोई धोखा नहीं । धोखाधड़ी और धर्म के नाम पर, धार्मिक सिद्धांत यह मानव सभ्यता की मदद नहीं करेगा ।  
भवान हि वेद तत सर्वम यन माम धर्मानुपृच्छसि । तो, धर्मराज, या यमराज, वे बारह अधिकृत व्यक्तियों में से एक हैं ठीक से मानव सभ्यता को बनाए रखने के लिए । सिद्धांत धर्म है । धर्म का अर्थ नहीं है एक धार्मिक भावना । धर्म का अर्थ है व्यावसायिक कर्तव्य । हर किसी का कुछ व्यावसायिक कर्तव्य होता है । तो धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]]) । वह व्यावसायिक कर्तव्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा सौंपा जाता है । तेन त्यक्तेन भुन्जिथा: ([[Vanisource:ISO 1|ईशोपनिषद १]]) ।  


असली धर्म ... असली धर्म खुद भगवान द्वारा कहा गया है । धर्मम् तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्री ६।३।१९]]) । आपको कहीं और से सीखने की ज़रूरत नहीं है, केवल खुद भगवान से । तो भगवद गीता में यह बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है., सर्व-धर्मान परित्यज्य माम.... ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) देवत्व की परम व्यक्तित्व को आत्मसमर्पण करना, यही धर्म है । आत्मसमर्पण ही नहीं, लेकिन उनकी इच्छाओं के अनुकूल कार्य करना, या आप भगवान का प्रेमी बन जाअो । यह प्रथम श्रेणी धर्म का है । हमने कई बार समझाया है । स वै पुम्साम परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्शजे ([[Vanisource:SB 1.2.6|श्री भ १।२।६]]) वही प्रथम श्रेणी का धर्म है जो सिखाता है कि कैसे तुम्हे भगवान का प्रेमी बनना है । अगर तुम प्रेमी हो जाते हो, तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाता है । तो फिर तुम भगवान के लिए सब कुछ करोगे । अन्यथा, तुम बस सवाल करोगे, "क्यों करूँ एसे?"क्यों करूँ एसे?"क्यों करूँ एसे?" इसका मतलब है प्रेम नहीं है । यही प्रशिक्षण है । जैसे एक नौसिखिए को प्रशिक्षित किया जाता है, अौर उसे कोई प्रेम नहीं है, तो वह प्रश्न करता हूँ, "मैं क्यों करूँ? मैं करूँ क्यों? मुझे क्या लाभ प्राप्त होगा? मुझे क्या लाभ प्राप्त होगा? कई सवाल होंगे । लेकिन जब प्रेम है कोई सवाल नहीं है । तो इसलिए भगवद गीता में, बहुत सारी बातें शिक्षण देने के बाद, योग, ज्ञान, कर्म और कई अन्य चीजें, अंत में, कृष्ण कहते हैं, सर्व-गुह्यतमम् : "अब मैं तुम्हें सबसे अधिक गोपनीय निर्देश दे रहा हूँ ।" वह क्या है? सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणं व्रज.... ([[Vanisource:BG 18.66|भ गी १८।६६]]) । यह सबसे गोपनीय है ।
असल में, धर्म का सिद्धांत, हम भगवद गीता से सीखते हैं... कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परितज्य माम एकम शरणम व्रज ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) | अपने सिद्धांत के धर्म का, मनगढ़ंत धर्म का, निर्माण मत करो । यही कठिनाई है । धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]]) । हमने कई बार यह समझाया है, की धर्म का अर्थ है - धर्म, इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया है, "रिलिजियन" - धर्म का मतलब है भगवान के कानूनों का पालन करना । यही धर्म है । हमारे द्वारा निर्मित कोई भावुक धार्मिक प्रणाली नहीं । उस तरह का धर्म हमारी मदद नहीं करेगा । इसलिए, श्रीमद-भागवतम में, शुरुआत में यह कहा जाता है: धर्म: प्रोजित: कैतवो अत्र ([[Vanisource:SB 1.1.2|श्रीमद भागवतम १.१.२]]) "धोखा देने वाली धार्मिक प्रणाली को बाहर निकाल दिया जाता है ।" यही भागवत-धर्म है । कोई धोखा नहीं । धोखाधड़ी और धर्म के नाम पर, धार्मिक सिद्धांत, यह मानव सभ्यता की मदद नहीं करेगा ।
 
असली धर्म... असली धर्म खुद भगवान द्वारा कहा गया है । धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम ([[Vanisource:SB 6.3.19|श्रीमद भागवतम ६.३.१९]]) । आपको कहीं और से सीखने की ज़रूरत नहीं है, केवल खुद भगवान से । तो भगवद गीता में यह बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम... ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) | पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को आत्मसमर्पण करना, यही धर्म है । आत्मसमर्पण ही नहीं, लेकिन उनकी इच्छाओं के अनुकूल कार्य करना, या आप भगवान के प्रेमी बन जाअो । यह प्रथम श्रेणी धर्म का है । हमने कई बार समझाया है । स वै पुंसाम परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्षजे ([[Vanisource:SB 1.2.6|श्रीमद भागवतम १.२.६]]) |
 
वही प्रथम श्रेणी का धर्म है जो सिखाता है कि कैसे तुम्हे भगवान का प्रेमी बनना है । अगर तुम प्रेमी हो जाते हो, तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाता है । तो फिर तुम भगवान के लिए सब कुछ करोगे । अन्यथा, तुम बस सवाल करोगे, "क्यों करूँ एसे ? क्यों करूँ एसे ? क्यों करूँ एसे ?" इसका मतलब है प्रेम नहीं है । यही प्रशिक्षण है । जैसे एक नौसिखिए को प्रशिक्षित किया जाता है, अौर उसे कोई प्रेम नहीं है, तो वह प्रश्न करता हूँ, "मैं क्यों करूँ ? मैं क्यों करूँ ? मुझे क्या लाभ प्राप्त होगा ? मुझे क्या लाभ प्राप्त होगा ?" कई सवाल होंगे । लेकिन जब प्रेम है कोई सवाल नहीं है । तो इसलिए भगवद गीता में, बहुत सारी बातें शिक्षण देने के बाद, योग, ज्ञान, कर्म और कई अन्य चीजें, अंत में, कृष्ण कहते हैं, सर्व-गुह्यतमम: "अब मैं तुम्हें सबसे अधिक गोपनीय निर्देश दे रहा हूँ ।" वह क्या है? सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज... ([[HI/BG 18.66|भ.गी. १८.६६]]) । यह सबसे गोपनीय है ।  
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Latest revision as of 19:10, 17 September 2020



Lecture on SB 1.16.25 -- Hawaii, January 21, 1974

भवान हि वेद तत सर्वम यन माम धर्मानुपृच्छसि । तो, धर्मराज, या यमराज, वे बारह अधिकृत व्यक्तियों में से एक हैं ठीक से मानव सभ्यता को बनाए रखने के लिए । सिद्धांत धर्म है । धर्म का अर्थ नहीं है एक धार्मिक भावना । धर्म का अर्थ है व्यावसायिक कर्तव्य । हर किसी का कुछ व्यावसायिक कर्तव्य होता है । तो धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम (श्रीमद भागवतम ६.३.१९) । वह व्यावसायिक कर्तव्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान द्वारा सौंपा जाता है । तेन त्यक्तेन भुन्जिथा: (ईशोपनिषद १) ।

असल में, धर्म का सिद्धांत, हम भगवद गीता से सीखते हैं... कृष्ण कहते हैं, सर्व-धर्मान परितज्य माम एकम शरणम व्रज (भ.गी. १८.६६) | अपने सिद्धांत के धर्म का, मनगढ़ंत धर्म का, निर्माण मत करो । यही कठिनाई है । धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम (श्रीमद भागवतम ६.३.१९) । हमने कई बार यह समझाया है, की धर्म का अर्थ है - धर्म, इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया है, "रिलिजियन" - धर्म का मतलब है भगवान के कानूनों का पालन करना । यही धर्म है । हमारे द्वारा निर्मित कोई भावुक धार्मिक प्रणाली नहीं । उस तरह का धर्म हमारी मदद नहीं करेगा । इसलिए, श्रीमद-भागवतम में, शुरुआत में यह कहा जाता है: धर्म: प्रोजित: कैतवो अत्र (श्रीमद भागवतम १.१.२) "धोखा देने वाली धार्मिक प्रणाली को बाहर निकाल दिया जाता है ।" यही भागवत-धर्म है । कोई धोखा नहीं । धोखाधड़ी और धर्म के नाम पर, धार्मिक सिद्धांत, यह मानव सभ्यता की मदद नहीं करेगा ।

असली धर्म... असली धर्म खुद भगवान द्वारा कहा गया है । धर्मम तु साक्षाद भगवत-प्रणीतम (श्रीमद भागवतम ६.३.१९) । आपको कहीं और से सीखने की ज़रूरत नहीं है, केवल खुद भगवान से । तो भगवद गीता में यह बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है, सर्व-धर्मान परित्यज्य माम... (भ.गी. १८.६६) | पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को आत्मसमर्पण करना, यही धर्म है । आत्मसमर्पण ही नहीं, लेकिन उनकी इच्छाओं के अनुकूल कार्य करना, या आप भगवान के प्रेमी बन जाअो । यह प्रथम श्रेणी धर्म का है । हमने कई बार समझाया है । स वै पुंसाम परो धर्मो यतो भक्तिर अधोक्षजे (श्रीमद भागवतम १.२.६) |

वही प्रथम श्रेणी का धर्म है जो सिखाता है कि कैसे तुम्हे भगवान का प्रेमी बनना है । अगर तुम प्रेमी हो जाते हो, तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाता है । तो फिर तुम भगवान के लिए सब कुछ करोगे । अन्यथा, तुम बस सवाल करोगे, "क्यों करूँ एसे ? क्यों करूँ एसे ? क्यों करूँ एसे ?" इसका मतलब है प्रेम नहीं है । यही प्रशिक्षण है । जैसे एक नौसिखिए को प्रशिक्षित किया जाता है, अौर उसे कोई प्रेम नहीं है, तो वह प्रश्न करता हूँ, "मैं क्यों करूँ ? मैं क्यों करूँ ? मुझे क्या लाभ प्राप्त होगा ? मुझे क्या लाभ प्राप्त होगा ?" कई सवाल होंगे । लेकिन जब प्रेम है कोई सवाल नहीं है । तो इसलिए भगवद गीता में, बहुत सारी बातें शिक्षण देने के बाद, योग, ज्ञान, कर्म और कई अन्य चीजें, अंत में, कृष्ण कहते हैं, सर्व-गुह्यतमम: "अब मैं तुम्हें सबसे अधिक गोपनीय निर्देश दे रहा हूँ ।" वह क्या है? सर्व-धर्मान परित्यज्य माम एकम शरणम व्रज... (भ.गी. १८.६६) । यह सबसे गोपनीय है ।