HI/Prabhupada 0748 - भगवान भक्त को संतुष्ट करना चाहते हैं

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Lecture on SB 1.8.29 -- Los Angeles, April 21, 1973

तो भगवान भगवद गीता में कहते हैं: परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम (भ.गी. ४.८) | तो दो उद्देश्य । जब भगवान अवतरति होते हैं, उनके दो उद्देश्य हैं । एक उद्देश्य है परित्राणाय साधूनाम अौर विनाशाय च दुष... एक उद्देश्य है श्रद्धालु भक्तों का, साधु का, उद्धार करना | साधु का मतलब है संत व्यक्ति । साधु... मैंने कई बार समझाया है । साधु का मतलब है भक्त । साधु का मतलब नहीं है सांसारिक ईमानदारी या बेईमानी, नैतिकता या अनैतिकता । इसका भौतिक गतिविधियों के साथ कुछ लेना देना नहीं है । यह केवल आध्यात्मिक है, साधु । लेकिन कभी कभी हम निष्कर्ष निकालते हैं, "साधु," एक व्यक्ति की भौतिक अच्छाई, नैतिकता ।

लेकिन वास्तव में "साधु" का मतलब है दिव्य मंच में । जो भक्ति सेवा में लगे हुए हैं । स गुणान समतीत्यैतान (भ.गी. १४.२६) । साधु भौतिक गुणों के परे है । तो परित्राणाय साधुनाम । परित्राणाय का मतलब है मुक्त करना । अब अगर साधु पहले से ही मुक्त है, वह तो दिव्य मंच पर है, तो उसे मुक्त करने की क्या आवश्यकता है ? यह सवाल है । इसलिए यह शब्द प्रयोग किया जाता है, विडंबनम । यह विस्मयकारी है । यह विरोधाभासी है ।

यह विरोधाभासी प्रतीत होता है । अगर एक साधु पहले से ही मुक्त है... दिव्य मंच का मतलब है वह तीन गुणों के नियंत्रण में नहीं है सत्व, रजो, तमो गुण । क्योंकि यह स्पष्ट रूप से भगवद गीता में कहा गया है: गुणान समतीत्यैतान (भ.गी. १४.२६) । वे भौतिक गुणों के परे हैं । एक साधु, भक्त । फिर मुक्ति का कहॉ सवाल है ? उद्धार... उसे उद्धार की आवश्यकता नहीं है, एक साधु को, लेकिन क्योंकि वह भगवान को देखने को इतना इच्छुक है आमने सामने, यह उसकी आंतरिक इच्छा है, इसलिए कृष्ण आते हैं । उद्धार के लिए । वह पहले से ही मुक्त है । वह पहले से ही मुक्त है भोतिक चंगुल से । लेकिन उसे संतुष्ट करने के लिए, कृष्ण हमेशा... जैसे एक भक्त सभी मामलों में भगवान को संतुष्ट करना चाहता है, इसी प्रकार भक्त की तुलना से अधिक, भगवान भक्त को संतुष्ट करना चाहते हैं । यही प्रेम का अादान प्रदान है ।

जैसे तुम्हारे, हमारे साधारण व्यवहार में, अगर तुम किसी से प्यार करते हो, तो तुम उसे संतुष्ट करना चाहते हो । इसी तरह, वह भी विनिमय करना चाहता है । तो अगर यह प्रेम का विनिमय भौतिक दुनिया में है यह कितना उन्नत होगा आध्यात्मिक दुनिया में ? तो एक श्लोक है: "साधु मेरा हृदय है, और मैं भी साधु के हृदय में हूँ ।" साधु हमेशा कृष्ण के बारे में सोच रहा है, और कृष्ण हमेशा भक्त के बारे में, साधु ।