HI/Prabhupada 0765 - तुम्हें पूरी तरह सचेत होना होगा कि, 'सब कुछ कृष्ण का है और अपना कुछ भी नहीं': Difference between revisions
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अकिंचन, अकिंचन का अर्थ है | अकिंचन, अकिंचन का अर्थ है कुछ भौतिक नहीं है । अकिंचन-गोचर । कुंती महारानी, जब वह कृष्ण का स्वागत कर रहीं थी, तब उन्होंने कहा, "मेरे प्रिय कृष्ण, आप अकिंचन-गोचर हैं ([[Vanisource:SB 1.8.26|श्रीमद भागवतम १.८.२६]]) । आपको वही व्यक्ति समझ सकता है जिसके पास कोई भौतिक वस्तु नहीं है । और अब आपने हमें अब इतनी सारी भौतिक वस्तुओं पर अधिकार दे दिया है । अब हम आपको कैसे समझ सकते हैं ?" कुंती इस पर पछतावा कर रहीं थी की "जब हम संकट में थे, आप हमेशा हमारे साथ थे । अब आपने हमें राज्य और सब कुछ दे दिया है । अब आप हमसे दूर द्वारका जा रहे हैं । यह सब क्या है, कृष्ण ? बेहतर होगा की आप फिर से हमे उसी परेशानी में रहने दें जिससे की आप सदैव हमारे साथ रहें ।" अकिंचन-गोचर। कृष्ण अकिंचन-गोचर हैं । जो कोई भी, भौतिक जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, उनके लिए पूरी तरह से कृष्ण भावनाभावित होना संभव नहीं है । यह बहुत ही रहस्यमय है । | ||
इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने कहा है | इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने कहा है की, निष्किंचनस्य भगवद-भजनोन्मूखस्य ([[Vanisource:CC Madhya 11.8|चैतन्य चरितामृत मध्य ११.८]]) । भगव-भजन, भक्त बनना, कृष्ण भावना भावित बनना, निष्किंचनस्य के लिए है, ऐसा व्यक्ति जिसके पास इस भौतिक जगत में कोई भोग्य वस्तु नहीं है । इसका अर्थ यह नहीं है की वह गरीब बन जाए । नहीं । उसे यह अच्छी तरह समझना चाहिये की "मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ कृष्ण का है । मैं सिर्फ कृष्ण का दास हूँ, और कुछ नहीं ।" इसे अकिंचन कहते हैं । यदि मैं ऐसा सोचता हूँ की "कृष्ण को भी समक्ष रख लूंगा और कुछ भोग भी कर लूंगा," तो वह भी एक तरह का पाखंड़ है । तुम्हें पूरी तरह सचेत होना होगा, की "सब कुछ कृष्ण का है और अपना कुछ भी नहीं ।" तब जाकर कृष्ण आपके मित्र बनते हैं । आपके सर्वोच्च हित की जवाबदारी वे स्वयं ले लेते हैं । | ||
तेषाम सतत युक्तानाम भजताम प्रीति पूर्वकम ददामि ([[HI/BG 10.10|भ.गी. १०.१०]]) । प्रीति पूर्वकम । यह दृढ़ संकल्प है, "हे कृष्ण, मुझे सिर्फ आप चाहिए, और कुछ नहीं । कुछ भी नहीं ।" न धनम न जनम न सुंदरीम कविताम वा जगदीश ([[Vanisource:CC Antya 20.29|चैतन्य चरितामृत २०.२९]]) । यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है । चैतन्य महाप्रभु ने इस तत्वज्ञान की शिक्षा को कई बार दोहराया है । निष्किंचनस्य भगवद-भजन । भगवद-भजन का अर्थ दर्शाने के लिये वे स्वयं निष्किंचन बन गए । वे स्वयं कृष्ण थे, सभी ऐश्वर्यो के स्वामी । त्यक्त्वा सुरेप्सितः, सुदुस्त्यज सुरेप्सित राज्य लक्ष्मीम ([[Vanisource:SB 11.5.34|श्रीमद भागवतम ११.५.३४]]) । चैतन्य महाप्रभु की पत्नी सबसे सुंदर थीं, समस्त ऐश्वर्यों की देवी, विष्णु प्रिया, लक्ष्मी प्रिया । परंतु सारे जगत के हित के लिये, स्वयं कृष्ण होते हुए भी, उन्होंने हमें आदर्श दर्शाया । वय के चौबीसवे साल में, उन्होंने सन्यास लिया । | |||
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Latest revision as of 17:43, 1 October 2020
Lecture on SB 1.13.11 -- Geneva, June 2, 1974
अकिंचन, अकिंचन का अर्थ है कुछ भौतिक नहीं है । अकिंचन-गोचर । कुंती महारानी, जब वह कृष्ण का स्वागत कर रहीं थी, तब उन्होंने कहा, "मेरे प्रिय कृष्ण, आप अकिंचन-गोचर हैं (श्रीमद भागवतम १.८.२६) । आपको वही व्यक्ति समझ सकता है जिसके पास कोई भौतिक वस्तु नहीं है । और अब आपने हमें अब इतनी सारी भौतिक वस्तुओं पर अधिकार दे दिया है । अब हम आपको कैसे समझ सकते हैं ?" कुंती इस पर पछतावा कर रहीं थी की "जब हम संकट में थे, आप हमेशा हमारे साथ थे । अब आपने हमें राज्य और सब कुछ दे दिया है । अब आप हमसे दूर द्वारका जा रहे हैं । यह सब क्या है, कृष्ण ? बेहतर होगा की आप फिर से हमे उसी परेशानी में रहने दें जिससे की आप सदैव हमारे साथ रहें ।" अकिंचन-गोचर। कृष्ण अकिंचन-गोचर हैं । जो कोई भी, भौतिक जीवन का आनंद लेना चाहते हैं, उनके लिए पूरी तरह से कृष्ण भावनाभावित होना संभव नहीं है । यह बहुत ही रहस्यमय है ।
इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने कहा है की, निष्किंचनस्य भगवद-भजनोन्मूखस्य (चैतन्य चरितामृत मध्य ११.८) । भगव-भजन, भक्त बनना, कृष्ण भावना भावित बनना, निष्किंचनस्य के लिए है, ऐसा व्यक्ति जिसके पास इस भौतिक जगत में कोई भोग्य वस्तु नहीं है । इसका अर्थ यह नहीं है की वह गरीब बन जाए । नहीं । उसे यह अच्छी तरह समझना चाहिये की "मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ कृष्ण का है । मैं सिर्फ कृष्ण का दास हूँ, और कुछ नहीं ।" इसे अकिंचन कहते हैं । यदि मैं ऐसा सोचता हूँ की "कृष्ण को भी समक्ष रख लूंगा और कुछ भोग भी कर लूंगा," तो वह भी एक तरह का पाखंड़ है । तुम्हें पूरी तरह सचेत होना होगा, की "सब कुछ कृष्ण का है और अपना कुछ भी नहीं ।" तब जाकर कृष्ण आपके मित्र बनते हैं । आपके सर्वोच्च हित की जवाबदारी वे स्वयं ले लेते हैं ।
तेषाम सतत युक्तानाम भजताम प्रीति पूर्वकम ददामि (भ.गी. १०.१०) । प्रीति पूर्वकम । यह दृढ़ संकल्प है, "हे कृष्ण, मुझे सिर्फ आप चाहिए, और कुछ नहीं । कुछ भी नहीं ।" न धनम न जनम न सुंदरीम कविताम वा जगदीश (चैतन्य चरितामृत २०.२९) । यही चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा है । चैतन्य महाप्रभु ने इस तत्वज्ञान की शिक्षा को कई बार दोहराया है । निष्किंचनस्य भगवद-भजन । भगवद-भजन का अर्थ दर्शाने के लिये वे स्वयं निष्किंचन बन गए । वे स्वयं कृष्ण थे, सभी ऐश्वर्यो के स्वामी । त्यक्त्वा सुरेप्सितः, सुदुस्त्यज सुरेप्सित राज्य लक्ष्मीम (श्रीमद भागवतम ११.५.३४) । चैतन्य महाप्रभु की पत्नी सबसे सुंदर थीं, समस्त ऐश्वर्यों की देवी, विष्णु प्रिया, लक्ष्मी प्रिया । परंतु सारे जगत के हित के लिये, स्वयं कृष्ण होते हुए भी, उन्होंने हमें आदर्श दर्शाया । वय के चौबीसवे साल में, उन्होंने सन्यास लिया ।