HI/Prabhupada 0769 - वैष्णव खुद बहुत खुश रहता है, क्योंकि उसका कृष्ण के साथ सीधा संबंध है

Revision as of 17:43, 1 October 2020 by Elad (talk | contribs) (Text replacement - "(<!-- (BEGIN|END) NAVIGATION (.*?) -->\s*){2,15}" to "<!-- $2 NAVIGATION $3 -->")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)


Lecture on SB 6.1.6-7 -- Honolulu, June 8, 1975

महाराज परिक्षित एक वैष्णव है । वैष्णव का मतलब भक्त होता है । इसलिए वह किसी को भी पीड़ा में नहीं देख सकते थे । यही एक वैष्णव का स्वभाव है । वैष्णव खुद बहुत खुश रहता है, क्योंकि उसका कृष्ण के साथ सीधा संबंध है । एक वैष्णव की निजी तौर पर कोई शिकायत नहीं होती, क्योंकि वह बस कृष्ण की सेवा करके संतुष्ट हो जाता है । बस इतना ही । वह कुछ भी नहीं चाहता है। कम से कम चैतन्य महाप्रभु, तो हमें यही सिखाते हैं ।

चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, न धनम न जनम न सुन्दरीम कविताम वा जगदीश कामये (चैतन्य चरितामृत अन्त्य २०.२९) । धनम का मतलब है धन, और जनम का मतलब बहुत सारे अनुयायी या परिवार के सदस्य, बड़ा परिवार, बड़े कारखाने । कई व्यापारी हैं, वे बड़े कारखाने चला रहे हैं, और हजारों लोग उसके नीचे काम कर रहे हैं । तो यह भी एक प्रकार का ऐश्वर्य है । और पैसे की काफी राशि होना, वह भी एक प्रकार का ऐश्वर्य है । धनम जनम । और एक सुंदर, आज्ञाकारी, बहुत आकर्षक, अच्छी पत्नी होना भी और एक ऐश्वर्य है । तो ये सब भौतिक आवश्यकताएं हैं । लोग आम तौर पर इन तीन चीज़ों के लिए कामना करते हैं: धन, कई अनुयायी, और घर पर एक अच्छी पत्नी । लेकिन चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, न धनम: "मुझे धन पाने की कोई अभिलाषा नहीं है ।" दूसरे लोगों से विपरीत ।

हर कोई धन चाहता है । लेकिन उन्होंने कहा, "नहीं, मैं धन नहीं चाहता ।" न धनम न जनम: "मुझे बड़ी संख्या में अनुयायियों की कोई इच्छा नहीं है ।" अब देखिये इसके ठीक विपरीत । सभी चाहते हैं । राजनेता, योगी, तथाकथित स्वामी, हर कोई चाहता है, "मेरे कई सौ या हजारों अनुयायी हो सकते हैं ।" मगर चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की, "नहीं, मुझे नहीं चाहिए ।" न धनम न जनम न सुन्दरीम कविताम वा जगदीश कामये । "ना ही मुझे बहुत अच्छी, सुंदर, आज्ञाकारी पत्नी चाहिए ।" फिर तुम्हें क्या चाहिए ? मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद भक्तिर अहैतुकी: "जन्म प्रति जन्म, हे भगवन, मुझे आपका वफादार सेवक रहने दीजिये ।" यही है वैष्णव । उसेे कुछ नहीं चाहिए ।

भला उसे क्यों इन सब की इच्छा होगी ? यदि वह स्वयं कृष्ण का दास बन जाए, फिर उसे किसकी जरूरत रह जाएगी ? यदि आप किसी बहुत बड़े व्यक्ति का नौकर बन जाते हो, फिर सवाल ही कहाँ उठता है आपकी जरूरतों का ? यही बुद्धिमानी है । किसी भी बड़े व्यक्ति का नौकर, वह अपने मालिक से भी बड़ा होता है, क्योंकि उसे पहले से ही सब मिला हुआ है... उसके मालिक को बहुत तरह के व्यंजन मिलते हैं । मालिक थोड़ा सा ही खाता है, और बाकि बचा हुआ नौकर खाता है। (हंसते हुए) फिर जरूरतें कहा हैं ? उसकी ज़रूरतों का सवाल ही नहीं है । बस भगवान के दास बनने का प्रयास करो, और आपकी सारी ज़रूरते पर्याप्त रूप से पूरी हो जाएगीं । यह बुद्धिमानी है ।

जिस तरह एक अमीर आदमी का बच्चा, क्या उसे पिता से कुछ चाहिए ? नहीं, वह सिर्फ पिता, माता चाहता है । पिता, माता, जानते हैं, की वह क्या चाहता है, कैसे खुश रहेगा । यह पिता और माता का कर्तव्य है । इसी तरह, यह बहुत ही अच्छी बुद्धिमानी है: बस कृष्ण का ईमानदार सेवक बनने के लिए प्रयास किजिए । आपके जीवन की सभी आवश्यकताऍ पर्याप्त रूप से पूरी हो जाएगीं । अलग से मांगने का कोई सवाल ही नहीं है । इसलिए बुद्धिमान भक्त, वे नहीं मांगते, मूर्ख भक्त चर्च में जाकर भगवान से प्रार्थना करतें हैं कि, "हमें हमारी रोज़ की रोटी प्रदान कीजिए ।" वह भगवान का सेवक है, तो क्या उसे अपनी रोटी नहीं मिलेगी ?

क्या आपको अलग से भगवान से मांगना पड़ेगा ? नही । भगवान अस्सी लाख अन्य जीवों को रोटी दे रहे है । पक्षी, जानवर, बाघ, हाथी, वे रोटी मांगने के लिए चर्च नहीं जा रहे हैं । लेकिन फिर भी उन्हें मिल रहा है । तो अगर भगवान हर किसी की खाद्य आपूर्ति कर रहे है, क्यों वह आप की आपूर्ति नहीं करेगे ? वह आपूर्ति कर रहे है । इसलिए हमें भगवान के पास कोई भौतिक लाभ मांगने के लिए नहीं जाना चाहिए । वह वास्तविक भक्ति नहीं है । हमे भगवान के पास उनकी सेवा में लगने की याचना के लिए जाना चाहिए । यही याचना होनी चाहिए: "हरे कृष्ण," इसका मतलब है... हरे का मतलब है "ओ भगवान की शक्ति, और कृष्ण, हे कृष्ण, श्री कृष्ण, कृपया करके आप मुझे अपनी सेवा में संलग्न करें।" यह हरे कृष्ण है ।

हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे
हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे ।

बस यह प्रार्थना, "हे मेरे प्रभु कृष्ण, हे श्रीमती राधारानी, कृष्ण​​ की शक्ति, कृपया आपकी सेवा में मुझे नियुक्त करें।" बस इतना ही । समाप्त, और सभी काम । यह वैष्णव है । तो वैष्णव की कोई इच्छा नहीं है । उसे पता है कि "मेरी कोई ज़रूरत नहीं है । मेरा केवल एक ही कार्य है कृष्ण की सेवा करना ।" इसलिए वह सब स्थिति में खुश है ।