HI/Prabhupada 0834 - भक्ति केवल भगवान के लिए ही है: Difference between revisions

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जीवन में भौतिक गुणों से कम प्रभावित होने के लिए हमें ज्ञान, वैराज्ञ और भक्ति के इस मंच पर अाना होगा । अन्यथा यह संभव नहीं है। और वह, वही प्रक्रिया पर फिर से जोर दिया जा रहा है: न युजगयमानया भक्त्या भगवति..... भक्ति, कहॉ लागू करना चाहिए ? कोई कहता है "मेरे पास भक्तिभाव है ।" तुम्हारे पास भक्ति भाव कहां है ? "अब, मेरी अपने पत्नी के प्रति बहुत ज्यादा भक्ति है। मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ । मैं उसकी देखभाल करता हूँ । अगर मैं उसे देख नहीं देखता हूँ, तो मैं पागल हो जाता हूँ ।" तो उस तरह की भक्ति यहाँ नहीं समझाई गई है। "मेरे अपने परिवार के लिए भक्ति है। मेरे देश के लिए, मेरी भक्ति है । मेरी देवी दुर्गा के लिए भक्ति है। मेरी इतने सारे देवताअों के लिए भक्ति है ... " नहीं । उस तरह की भक्ति से काम नहीं चलेगा। इसलिए यह विशेष रूप से कहा गया है भक्त्या भगवती । भगवती, " भगवान को अर्पण " किस तरह ाक भगवान? अब, आजकल तो कई भगवान हैं। ऐसे नहीं नकली भगवान नहीं, लकिन किस तरह के ? अखिलात्मनि । तुम इस तथाकथित नकली भगवान से पूछो कि "क्या तुम अखिलात्मनि हो? क्या तुम हर किसी के ह्दय में मौजूद हो ? क्या तुम बता सकते हो कि अब मैं क्या सोच रहा हूँ ? " तो भगवान् मतलब वे अखिलात्मनि हैं । तथाकथित भगवान द्वारा गुमराह मत होना। सब कुछ है यहाॉ । भगवान मतलब अखिलात्मनि । वे जानते हैं । कृष्ण कहते हैं भगवद गीता में,ईष्वर: सर्व भूतानाम् ह्रद देशे ([[Vanisource:BG 18.61|भ गी १८।६१]]) अगर तुम ईश्वर हो, तो तुम्हे हर किसी के ह्दय में मौजूद होना चाहिए । सर्वस्य चाहम् ह्रदि सन्निविषठ: ([[Vanisource:BG 15.15|गी १५।१५]]) । ईश्वर ... श्री कृष्ण ईश्वर हैं । इसलिए वे कहते हैं, : "सर्वस्य चाहम् ह्रदि सन्निविषठ : मैं हर किसी के ह्रदय में रहता हूँ" तो अगर तुम ईष्वर: हो, अगर तुम भगवान हो, तो तुम मेरे ह्रदय में हो? क्या तुम जानते हो कि अब मैं क्या सोच रहा हूँ ? तो अखिलात्मनि । सब कुछ बहुत बारीकी से अध्ययन किया जाना चाहिए। भक्ति केवल भगवान के लिए ही है । ऐसा नहीं है कि "मेरी भक्ति इस देवता के लिए, उस देवता के लिए, मेरे परिवार के लिए, अपने देश के लिए, अपने समाज के लिए, अपने कुत्ते के लिए, अपनी बिल्ली के लिए, अपनी पत्नी के लिए। " यह भक्ति नहीं है। वे केवल नकली है । यह वासना है। यह इच्छा है। यह भक्ति नहीं है। भक्ति का मतलब है भगवती । भगवती मतलब अखिलात्मनि । तो अगर हम कृष्ण भावनामृत को विकसित करते हैं, भक्ति, तब हमारा जीवन, सफल जीवन, ब्रह्म-सिद्धये, पूर्ण आत्म-बोध, संभव हो जाएगा। इसलिए यह कहा गया है, सदृश: अस्ति शिव: पंथा : नहीं । कोई अन्य विकल्प नहीं है ।" अगर तुम ... ब्रह्म सिद्धये । ब्रह्मण, पर-ब्रह्मण श्री कृष्ण हैं। ब्रह्म-सिद्धये मतलब यह समझना कि क्या संबंध है... "मैं ब्रह्मण हूं।" यह ठीक है। अहम् ब्रह्मास्मि । लेकिन पर-ब्रह्मण के साथ तुम्हारा संबंध क्या है ? यही ब्रह्म सिद्धि है । ब्रह्मण और पर-ब्रह्मण, दो ब्रह्मण हैं। क्यों हैं ...? अात्मा और परमात्मा, ईश्वर और परमेश्वर । तो जीव और भगवान । नि्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम ( कथा उपनिषद २।२।१३) ये वैदिक जानकारी है । दो हमेशा, दो हैं। अात्मा, परमात्मा, ब्रह्मण, परब्रह्मण । तो ... और ब्रह्म-सिद्धये मतलब है कि न केवल मैं समझता हूँ कि "मैं ब्रह्मण हूं" लेकिन मुझे यह समझना होगा कि मेरा संबंध पर-ब्रह्मण के साथ क्या है । यही ब्रह्म-सिद्धि है। इसका मतलब है कि हमें पता होना चाहिए कि परब्रह्मण क्या है । वह परब्रह्मण श्री कृष्ण हैं ।
जीवन में भौतिक गुणों से कम प्रभावित होने के लिए, हमें ज्ञान, वैराज्ञ और भक्ति के इस मंच पर अाना होगा । अन्यथा यह संभव नहीं है । और वह, वही प्रक्रिया पर फिर से जोर दिया जा रहा है: न युज्यमानया भक्त्या भगवती... भक्ति, कहॉ लागू करना चाहिए ? कोई कहता है "मेरे पास भक्तिभाव है ।" तुम्हारे पास भक्ति भाव कहां है ? "अब, मेरी अपने पत्नी के प्रति बहुत ज्यादा भक्ति है । मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ । मैं उसकी देखभाल करता हूँ । अगर मैं उसे देख नहीं देखता हूँ, तो मैं पागल हो जाता हूँ ।" तो उस तरह की भक्ति यहाँ नहीं समझाई गई है । "मेरे अपने परिवार के लिए भक्ति है । मेरे देश के लिए, मेरी भक्ति है । मेरी देवी दुर्गा के लिए भक्ति है । मेरी इतने सारे देवताअों के लिए भक्ति है... " नहीं । उस तरह की भक्ति से काम नहीं चलेगा । इसलिए यह विशेष रूप से कहा गया है, भक्त्या भगवती । भगवती, "भगवान को अर्पण " किस तरह के भगवान ?  
 
अब, आजकल तो कई भगवान हैं । ऐसे नकली भगवान नहीं, लकिन किस तरह के ? अखिलात्मनि । तुम इस तथाकथित नकली भगवान से पूछो की "क्या तुम अखिलात्मनि हो ? क्या तुम हर किसी के ह्दय में मौजूद हो ? क्या तुम बता सकते हो कि अब मैं क्या सोच रहा हूँ ?" तो भगवान मतलब वे अखिलात्मनि हैं । तथाकथित भगवान द्वारा गुमराह मत होना । सब कुछ है यहाँ । भगवान मतलब अखिलात्मनि । वे जानते हैं । कृष्ण कहते हैं भगवद गीता में, ईश्वर: सर्व भूतानाम हृद देशे ([[HI/BG 18.61|भ.गी. १८.६१]]) | अगर तुम ईश्वर हो, तो तुम्हे हर किसी के हृदय में मौजूद होना चाहिए ।  
 
सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्ट: ([[HI/BG 15.15|भ.गी. १५.१५]]) । ईश्वर... कृष्ण ईश्वर हैं । इसलिए वे कहते हैं,: "सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्ट: मैं हर किसी के हृदय में रहता हूँ |" तो अगर तुम ईश्वर: हो, अगर तुम भगवान हो, तो तुम मेरे हृदय में हो ? क्या तुम जानते हो की अब मैं क्या सोच रहा हूँ ? तो अखिलात्मनि । सब कुछ बहुत बारीकी से अध्ययन किया जाना चाहिए । भक्ति केवल भगवान के लिए ही है । ऐसा नहीं है की "मेरी भक्ति इस देवता के लिए, उस देवता के लिए, मेरे परिवार के लिए, अपने देश के लिए, अपने समाज के लिए, अपने कुत्ते के लिए, अपनी बिल्ली के लिए, अपनी पत्नी के लिए ।" यह भक्ति नहीं है । वे केवल नकली है । यह वासना है । यह इच्छा है । यह भक्ति नहीं है । भक्ति का मतलब है भगवती । भगवती मतलब अखिलात्मनि ।  
 
तो अगर हम कृष्ण भावनामृत को विकसित करते हैं, भक्ति, तब हमारा जीवन, सफल जीवन, ब्रह्म-सिद्धये, पूर्ण आत्म-बोध, संभव हो जाएगा । इसलिए यह कहा गया है, सदृश: अस्ति शिव: पंथा: "नहीं । कोई अन्य विकल्प नहीं है ।" अगर तुम... ब्रह्म सिद्धये । ब्रह्म, पर-ब्रह्म कृष्ण हैं । ब्रह्म-सिद्धये मतलब यह समझना कि क्या संबंध है... "मैं ब्रह्म हूं ।" यह ठीक है । अहम ब्रह्मास्मि । लेकिन पर-ब्रह्म के साथ तुम्हारा संबंध क्या है ? यही ब्रह्म सिद्धि है । ब्रह्म और पर-ब्रह्म, दो ब्रह्म हैं। क्यों हैं...? अात्मा और परमात्मा, ईश्वर और परमेश्वर । तो जीव और भगवान । नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | ये वैदिक जानकारी है ।  
 
दो हमेशा, दो हैं । अात्मा, परमात्मा, ब्रह्म, परब्रह्म । तो... और ब्रह्म-सिद्धये मतलब है की न केवल मैं समझता हूँ की "मैं ब्रह्म हूं," लेकिन मुझे यह समझना होगा कि मेरा संबंध पर-ब्रह्म के साथ क्या है । यही ब्रह्म-सिद्धि है । इसका मतलब है कि हमें पता होना चाहिए कि परब्रह्म क्या है । वह परब्रह्म कृष्ण हैं ।  
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Latest revision as of 17:51, 1 October 2020



Lecture on SB 3.25.19 -- Bombay, November 19, 1974

जीवन में भौतिक गुणों से कम प्रभावित होने के लिए, हमें ज्ञान, वैराज्ञ और भक्ति के इस मंच पर अाना होगा । अन्यथा यह संभव नहीं है । और वह, वही प्रक्रिया पर फिर से जोर दिया जा रहा है: न युज्यमानया भक्त्या भगवती... भक्ति, कहॉ लागू करना चाहिए ? कोई कहता है "मेरे पास भक्तिभाव है ।" तुम्हारे पास भक्ति भाव कहां है ? "अब, मेरी अपने पत्नी के प्रति बहुत ज्यादा भक्ति है । मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ । मैं उसकी देखभाल करता हूँ । अगर मैं उसे देख नहीं देखता हूँ, तो मैं पागल हो जाता हूँ ।" तो उस तरह की भक्ति यहाँ नहीं समझाई गई है । "मेरे अपने परिवार के लिए भक्ति है । मेरे देश के लिए, मेरी भक्ति है । मेरी देवी दुर्गा के लिए भक्ति है । मेरी इतने सारे देवताअों के लिए भक्ति है... " नहीं । उस तरह की भक्ति से काम नहीं चलेगा । इसलिए यह विशेष रूप से कहा गया है, भक्त्या भगवती । भगवती, "भगवान को अर्पण " किस तरह के भगवान ?

अब, आजकल तो कई भगवान हैं । ऐसे नकली भगवान नहीं, लकिन किस तरह के ? अखिलात्मनि । तुम इस तथाकथित नकली भगवान से पूछो की "क्या तुम अखिलात्मनि हो ? क्या तुम हर किसी के ह्दय में मौजूद हो ? क्या तुम बता सकते हो कि अब मैं क्या सोच रहा हूँ ?" तो भगवान मतलब वे अखिलात्मनि हैं । तथाकथित भगवान द्वारा गुमराह मत होना । सब कुछ है यहाँ । भगवान मतलब अखिलात्मनि । वे जानते हैं । कृष्ण कहते हैं भगवद गीता में, ईश्वर: सर्व भूतानाम हृद देशे (भ.गी. १८.६१) | अगर तुम ईश्वर हो, तो तुम्हे हर किसी के हृदय में मौजूद होना चाहिए ।

सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्ट: (भ.गी. १५.१५) । ईश्वर... कृष्ण ईश्वर हैं । इसलिए वे कहते हैं,: "सर्वस्य चाहम हृदि सन्निविष्ट: मैं हर किसी के हृदय में रहता हूँ |" तो अगर तुम ईश्वर: हो, अगर तुम भगवान हो, तो तुम मेरे हृदय में हो ? क्या तुम जानते हो की अब मैं क्या सोच रहा हूँ ? तो अखिलात्मनि । सब कुछ बहुत बारीकी से अध्ययन किया जाना चाहिए । भक्ति केवल भगवान के लिए ही है । ऐसा नहीं है की "मेरी भक्ति इस देवता के लिए, उस देवता के लिए, मेरे परिवार के लिए, अपने देश के लिए, अपने समाज के लिए, अपने कुत्ते के लिए, अपनी बिल्ली के लिए, अपनी पत्नी के लिए ।" यह भक्ति नहीं है । वे केवल नकली है । यह वासना है । यह इच्छा है । यह भक्ति नहीं है । भक्ति का मतलब है भगवती । भगवती मतलब अखिलात्मनि ।

तो अगर हम कृष्ण भावनामृत को विकसित करते हैं, भक्ति, तब हमारा जीवन, सफल जीवन, ब्रह्म-सिद्धये, पूर्ण आत्म-बोध, संभव हो जाएगा । इसलिए यह कहा गया है, सदृश: अस्ति शिव: पंथा: "नहीं । कोई अन्य विकल्प नहीं है ।" अगर तुम... ब्रह्म सिद्धये । ब्रह्म, पर-ब्रह्म कृष्ण हैं । ब्रह्म-सिद्धये मतलब यह समझना कि क्या संबंध है... "मैं ब्रह्म हूं ।" यह ठीक है । अहम ब्रह्मास्मि । लेकिन पर-ब्रह्म के साथ तुम्हारा संबंध क्या है ? यही ब्रह्म सिद्धि है । ब्रह्म और पर-ब्रह्म, दो ब्रह्म हैं। क्यों हैं...? अात्मा और परमात्मा, ईश्वर और परमेश्वर । तो जीव और भगवान । नित्यो नित्यानाम चेतनश चेतनानाम (कठ उपनिषद २.२.१३) | ये वैदिक जानकारी है ।

दो हमेशा, दो हैं । अात्मा, परमात्मा, ब्रह्म, परब्रह्म । तो... और ब्रह्म-सिद्धये मतलब है की न केवल मैं समझता हूँ की "मैं ब्रह्म हूं," लेकिन मुझे यह समझना होगा कि मेरा संबंध पर-ब्रह्म के साथ क्या है । यही ब्रह्म-सिद्धि है । इसका मतलब है कि हमें पता होना चाहिए कि परब्रह्म क्या है । वह परब्रह्म कृष्ण हैं ।