HI/Prabhupada 1055 - देखो कि अपना कर्तव्य करते हुए अापने भगवान को प्रसन्न किया है या नहीं

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750522 - Conversation B - Melbourne

प्रभुपाद: किसी भी विभाग में ज्ञान की उन्नति, यह बहुत अच्छा है । लेकिन उद्देश्य क्या है ? उद्देश्य है परमेश्वर भगवान की महिमा करना । जैसे आप वकील हैं । आपने किसी कठिनाई के समय हमारी मदद की । क्यूँ ? क्योंकि आप प्रभु की महीमा को जारी रखना चाहते हैं, कि "ये लोग अच्छा कर रहे हैं । क्यों उन्हें परेशान किया जाना चाहिए ?" इसका मतलब है कि अापने प्रभु की महिमा में मदद की । तो वकील के रूप में यह अापकी सफलता है । तो जो भी इस आंदोलन की मदद करता है, कि "वे कृष्ण भावनामृत, भगवान भावनामृत को फैला रहे हैं । "उनकी हर तरीके से मदद की जानी चाहिए " यही पूर्णता है । सब कुछ आवश्यक है, लेकिन इसका अंतिक उद्देश्य है परमेश्वर की महिमा । तो यह पूर्ण है । एक और जगह में ... (एक तरफ :) इस श्लोक का पता लगाअो:

अत: पुंभिर् द्विज श्रेष्ठा
वर्णाश्रम विभागश:
स्वनुस्थितस्य धर्मस्य
संसिद्धिर हरि तोषनं
(श्री भ १।२।१३)

। जैसे आपने एक मुश्किल स्थिति में इस संस्था की मदद की है । इसका मतलब है कि आपने श्री कृष्ण को प्रसन्न किया है । वह अापकी सफलता है । मेरे भक्त कठिनाई में हैं । उन्हं कुछ कानूनी मदद की अावश्यक्ता थी । अाप, एक वकील के रूप में, उनकी मदद की, तो आपने श्री कृष्ण को प्रसन्न किया है, भगवान । यही जीवन का उद्देश्य है । चाहे अलग अगल क्षेत्रों में मेरे काम से, - एक वकील, एक व्यापारी के रूप में, या एक अर्थशास्त्री के रूप में, एक वैज्ञानिक के रूप में, एक दार्शनिक के रूप में, एक विद्वान के रूप में ... कई मांगें हैं । इससे फर्क नहीं पड़ता । लेकिन आपको देखना है कि अाप सफल हैं या नहीं । और सफलता का मानक क्या है ? सफलता का मानक है कि क्या भगवान अापसे प्रसन्न हैं या नहीं । (एक तरफ :) तुम पढ़ो । अत: पुंभिर्द्वि ज-श्रेष्ठा: ...

श्रुतकीर्ति : अत: ...

प्रभुपाद: पुंभिर्श्रु

तकीर्ति : अत: पुंभिर् द्विज श्रेष्ठा: ।

प्रभुपाद: हम्म । इस श्लोक का पता लगाअो ।

श्रुतकीर्ति :

अत: पुंभिर् द्विज श्रेष्ठा
वर्णाश्रम विभागश:
स्वनुस्थितस्य धर्मस्य
संसिद्धिर हरि तोषनं
(श्री भ १।२।१३)

"हे श्रुष्ठ द्विज बंधु, इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि उच्चतम पूर्णता जो कोई प्राप्त कर सकता है अपने निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए, धर्म, वर्भ अौर अाश्रम के अनुसार, भगवान को प्रसन्न करना है, हरि ।"

प्रभुपाद: यह बात है । यह होना चाहिए ... कि " चाहे मेरे पेशे से, मेरे व्यवसाय से, अपनी प्रतिभा से, मेरी क्षमता से ..." - विभिन्न श्रेणि हैं - "मैंने भगवान को प्रसन्न किया है या नहीं ?" तो यह सफलता है । अगर अापने वकील होने के कारण भगवान की प्रसन्न किया है, आप एक अलग वस्त्र मे हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता है । अाप उतने ही अच्छे हैं जितना कि वे जो पूरा समय भगवान की सेवा मे लगे हैं । क्योंकि उनका काम ही है भगवान को प्रसन्न करना । इसी तरह, अगर आपने भगवान को प्रसन्न किया है, तो वकील होकर भी, आप साधु से कम नहीं । यही उद्देश्य होना चाहिए: "क्या मैंने अपने पेशे से या व्यावसाय से भगवान को प्रसन्न किया है या नहीं ?" यही मानक है । लोगों को यह अपनाना है । हम नहीं कहता हैं कि "आप अपनी स्थिति को बदलें । आप एक सन्यासी बन जाअो या आप अपने पेशे को छोड़ दो और गंजे हो जाअो । " नहीं, हम ऐसा नहीं कहते हैं । (हंसते हुए) हम स्वभाव से ही हैं । (हंसी) तो यही कृष्ण भावनामृत है, कि आप अपनी स्थिति में रहें, लेकिन, यह देखें कि आपके कर्तव्य पालन से भगवान प्रसन्न हैं या नहीं । तब सब कुछ ठीक हो जाएगा ।