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HI/Hindi Main Page - Random Audio Clips from Srila Prabhupada: Difference between revisions

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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680826QA-MONTREAL_ND_02.mp3</mp3player>|एक ब्राह्मण से काम करने की उम्मीद नहीं की जाती है । वह धन प्रतिग्रह है । प्रतिग्रह का अर्थ है दूसरों से मिलने वाले उपहारो को स्वीकार करना । ठीक वैसे ही जैसे तुमने मुझे बहुत सी चीजें अर्पित की हैं - पैसा, वस्त्र, भोजन - तो संन्यासी, ब्राह्मण, स्वीकार कर सकता है । दूसरे नहीं । एक गृहस्थ नहीं कर सकता । उस पर प्रतिबंध हैं । एक ब्रह्मचारी स्वीकार कर सकता है, लेकिन वह अपने आध्यात्मिक गुरु के लिए स्वीकार कर सकता है, खुद के लिए नहीं । ये नियम हैं ।|Vanisource:680826 - Conversation - Montreal|680826 - बातचीत - मॉन्ट्रियल}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680826QA-MONTREAL_ND_02.mp3</mp3player>|एक ब्राह्मण से काम करने की उम्मीद नहीं की जाती है । वह धन प्रतिग्रह है । प्रतिग्रह का अर्थ है दूसरों से मिलने वाले उपहारो को स्वीकार करना । ठीक वैसे ही जैसे तुमने मुझे बहुत सी चीजें अर्पित की हैं - पैसा, वस्त्र, भोजन - तो संन्यासी, ब्राह्मण, स्वीकार कर सकता है । दूसरे नहीं । एक गृहस्थ नहीं कर सकता । उस पर प्रतिबंध हैं । एक ब्रह्मचारी स्वीकार कर सकता है, लेकिन वह अपने आध्यात्मिक गुरु के लिए स्वीकार कर सकता है, खुद के लिए नहीं । ये नियम हैं ।|Vanisource:680826 - Conversation - Montreal|680826 - बातचीत - मॉन्ट्रियल}}


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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680830RA-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|राधारानी कृष्ण का विस्तार है । कृष्ण शक्तिमान है, और राधारानी उनकी शक्ति है । जिस तरह आप शक्तिमान से शक्ति को अलग नहीं कर सकते । आग और गर्मी आप अलग नहीं कर सकते । जहां भी अग्नि होती है वहां गर्मी होती है, और जहां भी गर्मी होती है वहाँ अग्नि, इसी तरह, जहां कहीं भी कृष्ण है वहां राधा है । और जहां कहीं राधा है वहां कृष्ण है । वे अविभाज्य हैं । लेकिन वे आनंद ले रहे हैं । तो स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने राधा कृष्ण के इस जटिल विषय के बारे में वर्णन एक श्लोक में किया है, बहुत अच्छा श्लोक है । राधा कृष्ण प्रणय विकृतिर आह्लादिनी-शक्तिर अस्माद एकात्मानाव अपि भुवि पूरा देह-भेदम गतौ तौ ([[Vanisource:CC Adi 1.5|चै.च. आदि १.५]]) । तो राधा और कृष्ण एक परम भगवान है, लेकिन आनंद लेने के लिए, वे दो में विभाजित हुए हैं । फिर से भगवान चैतन्य दो में से एक बन गए । चैतन्याख्यम प्रकटम अधुना । वो एक का अर्थ यहाँ है कृष्ण जो की राधा के परमानंद में है । कई बार कृष्ण राधा के परमानंद में होते है । और कभी राधा कृष्ण के परमानंद में । यह चल रहा है । लेकिन पूरी बात यह है की राधा और कृष्ण का मतलब एक ही है, परम भगवान ।|Vanisource:680830 - Lecture Festival Appearance Day, Srimati Radharani, Radhastami - Montreal|680830 - उत्सव प्रवचन, श्रीमती राधारानी  आविर्भाव दिन, राधाष्टमी - मोंट्रियल}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680830RA-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|राधारानी कृष्ण का विस्तार है । कृष्ण शक्तिमान है, और राधारानी उनकी शक्ति है । जिस तरह आप शक्तिमान से शक्ति को अलग नहीं कर सकते । आग और गर्मी आप अलग नहीं कर सकते । जहां भी अग्नि होती है वहां गर्मी होती है, और जहां भी गर्मी होती है वहाँ अग्नि, इसी तरह, जहां कहीं भी कृष्ण है वहां राधा है । और जहां कहीं राधा है वहां कृष्ण है । वे अविभाज्य हैं । लेकिन वे आनंद ले रहे हैं । तो स्वरूप दामोदर गोस्वामी ने राधा कृष्ण के इस जटिल विषय के बारे में वर्णन एक श्लोक में किया है, बहुत अच्छा श्लोक है । राधा कृष्ण प्रणय विकृतिर आह्लादिनी-शक्तिर अस्माद एकात्मानाव अपि भुवि पूरा देह-भेदम गतौ तौ ([[Vanisource:CC Adi 1.5|चै.च. आदि १.५]]) । तो राधा और कृष्ण एक परम भगवान है, लेकिन आनंद लेने के लिए, वे दो में विभाजित हुए हैं । फिर से भगवान चैतन्य दो में से एक बन गए । चैतन्याख्यम प्रकटम अधुना । वो एक का अर्थ यहाँ है कृष्ण जो की राधा के परमानंद में है । कई बार कृष्ण राधा के परमानंद में होते है । और कभी राधा कृष्ण के परमानंद में । यह चल रहा है । लेकिन पूरी बात यह है की राधा और कृष्ण का मतलब एक ही है, परम भगवान ।|Vanisource:680830 - Lecture Festival Appearance Day, Srimati Radharani, Radhastami - Montreal|680830 - उत्सव प्रवचन, श्रीमती राधारानी  आविर्भाव दिन, राधाष्टमी - मोंट्रियल}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660311BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|अब तथ्य यह है कि माता के गर्भ में जन्म होते ही हमारे शरीर का विकास होना शुरू हो जाता है, ठीक उसी प्रकार माँ के गर्भ से बाहर आकर भी शरीर का विकास होता है । लेकिन आत्मा वही रहती है । शरीर का विकास होता है । अत:... अब, यह विकास - छोटे शिशु से, बड़ा बच्चा बन जाता है, फिर कुमार और तत्पश्चात किशोर अवस्था और फिर धीरे-धीरे मेरी तरह वृद्ध पुरूष, और फिर धीरे-धीरे जब यह शरीर किसी काम का नहीं रहता तो, इसे त्यागना ही पड़ता है और दूसरा शरीर ग्रहण करना ही पड़ता है । इस प्रक्रिया को आत्मा का देहान्तर कहते हैं । मेरे विचार से इस सरल प्रक्रिया को समझने में कोई कठिनाई नहीं है ।|Vanisource:660311 - Lecture BG 02.13 - New York|660311 - प्रवचन भ.गी. २.१३ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660311BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|अब तथ्य यह है कि माता के गर्भ में जन्म होते ही हमारे शरीर का विकास होना शुरू हो जाता है, ठीक उसी प्रकार माँ के गर्भ से बाहर आकर भी शरीर का विकास होता है । लेकिन आत्मा वही रहती है । शरीर का विकास होता है । अत:... अब, यह विकास - छोटे शिशु से, बड़ा बच्चा बन जाता है, फिर कुमार और तत्पश्चात किशोर अवस्था और फिर धीरे-धीरे मेरी तरह वृद्ध पुरूष, और फिर धीरे-धीरे जब यह शरीर किसी काम का नहीं रहता तो, इसे त्यागना ही पड़ता है और दूसरा शरीर ग्रहण करना ही पड़ता है । इस प्रक्रिया को आत्मा का देहान्तर कहते हैं । मेरे विचार से इस सरल प्रक्रिया को समझने में कोई कठिनाई नहीं है ।|Vanisource:660311 - Lecture BG 02.13 - New York|660311 - प्रवचन भ.गी. २.१३ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660328BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|अभी जो हमने संकीर्तन किया है, वह दिव्य ध्वनि की लहर है । यह हमारे मन पर चढ़ी धूल की परत को साफ़ करने में सहायता करेगी। सत्य यह है कि यह हमारा मिथ्याबोध है । वास्तव में हम शुद्ध चेतना और शुद्ध आत्मा है तो स्वभाविक है कि हम भौतिक संदूषण से भिन्न हैं । लेकिन दीर्घ काल से भौतिक वातावरण के संपर्क में होने के कारण, हमने बहुत गहरी धूल की परत अपने हृदय पर चढ़ा ली है । जैसे ही यह धूल की परत साफ़ हो जाती है, फिर हम स्वयं के स्वरूप को देख सकते हैं ।|Vanisource:660328 - Lecture BG 02.46-47 - New York|660328 - प्रवचन भ.गी. २.४६-४७ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660328BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|अभी जो हमने संकीर्तन किया है, वह दिव्य ध्वनि की लहर है । यह हमारे मन पर चढ़ी धूल की परत को साफ़ करने में सहायता करेगी। सत्य यह है कि यह हमारा मिथ्याबोध है । वास्तव में हम शुद्ध चेतना और शुद्ध आत्मा है तो स्वभाविक है कि हम भौतिक संदूषण से भिन्न हैं । लेकिन दीर्घ काल से भौतिक वातावरण के संपर्क में होने के कारण, हमने बहुत गहरी धूल की परत अपने हृदय पर चढ़ा ली है । जैसे ही यह धूल की परत साफ़ हो जाती है, फिर हम स्वयं के स्वरूप को देख सकते हैं ।|Vanisource:660328 - Lecture BG 02.46-47 - New York|660328 - प्रवचन भ.गी. २.४६-४७ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670315SB-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|"इस युग मे, कलियुग, भगवान का अवतार है। वह क्या है, भगवान का अवतार? वह त्विष आकर्षणम। उनका शारीरिक रंग काला नहीं है। कृष्ण काले हैं, पर वह कृष्ण है, वह भगवान श्री चैतन्य। भगवान श्री चैतन्य कृष्णा। और उनका कार्य  क्या है ? अब, कृष्णा- वर्णनम। वह हमेशा जपते है हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा, हरे हरे, हरे रामा हरे..., वरनयाती। कृष्णा- वर्णनम त्विष कृष्णम और संगोपंगासत्र ([[Vanisource:SB 11.5.32|श्री भ ११.५.३२]])। वह संघ हैं... आप चित्र देख रहे हैं। वह चार अन्य लोगों के संघ में हैं। और इस चित्र में भी आप देखेंगे वह,संग है। तो आप इस चित्र या इस रूप को अपने पहले रखें और बस जपते नाचते रहे। इसे पू़ंजना केहते हैै।"|Vanisource:670315 - Lecture SB 07.07.29-31 - San Francisco|670315 - Lecture SB 07.07.29-31 - San Francisco}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670315SB-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|"इस युग मे, कलियुग, भगवान का अवतार है। वह क्या है, भगवान का अवतार? वह त्विष आकर्षणम। उनका शारीरिक रंग काला नहीं है। कृष्ण काले हैं, पर वह कृष्ण है, वह भगवान श्री चैतन्य। भगवान श्री चैतन्य कृष्णा। और उनका कार्य  क्या है ? अब, कृष्णा- वर्णनम। वह हमेशा जपते है हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा, हरे हरे, हरे रामा हरे..., वरनयाती। कृष्णा- वर्णनम त्विष कृष्णम और संगोपंगासत्र ([[Vanisource:SB 11.5.32|श्री भ ११.५.३२]])। वह संघ हैं... आप चित्र देख रहे हैं। वह चार अन्य लोगों के संघ में हैं। और इस चित्र में भी आप देखेंगे वह,संग है। तो आप इस चित्र या इस रूप को अपने पहले रखें और बस जपते नाचते रहे। इसे पू़ंजना केहते हैै।"|Vanisource:670315 - Lecture SB 07.07.29-31 - San Francisco|670315 - Lecture SB 07.07.29-31 - San Francisco}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680824BG-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|"तो भगवद गीता भगवान का विज्ञान है। हर चीज को समझने की वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। श्रीमद-भागवतम में कहा गया है, ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ([[Vanisource:SB 2.9.31|SB 2.9.31]])। भगवान का ज्ञान, या विज्ञान बहुत गोपनीय है। यह विज्ञान साधारण विज्ञान नहीं है। यह बहुत गोपनीय है। ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्। विज्ञान का अर्थ है ... वि का अर्थ है विशिष्ट। यह विशिष्ट ज्ञान है, और इसे विशिष्ट प्रक्रिया से समझना होगा।"|Vanisource:680824 - Lecture BG 04.01 - Montreal|680824 - प्रवचन BG 04.01 - मॉन्ट्रियल}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680824BG-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|"तो भगवद गीता भगवान का विज्ञान है। हर चीज को समझने की वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। श्रीमद-भागवतम में कहा गया है, ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ([[Vanisource:SB 2.9.31|SB 2.9.31]])। भगवान का ज्ञान, या विज्ञान बहुत गोपनीय है। यह विज्ञान साधारण विज्ञान नहीं है। यह बहुत गोपनीय है। ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्। विज्ञान का अर्थ है ... वि का अर्थ है विशिष्ट। यह विशिष्ट ज्ञान है, और इसे विशिष्ट प्रक्रिया से समझना होगा।"|Vanisource:680824 - Lecture BG 04.01 - Montreal|680824 - प्रवचन BG 04.01 - मॉन्ट्रियल}}
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{{Nectar Drops navigation - All Languages|Hindi|HI/670120b प्रवचन - श्रील प्रभुपाद सैन फ्रांसिस्को में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं|670120b|HI/670122 प्रवचन - श्रील प्रभुपाद सैन फ्रांसिस्को में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं|670122}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670121CC-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|हरेर नाम हरेर नाम हरेर नाम एव केवलम (चै.च. आदि १७.२१) । की "इस युग में हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जप करने के अलावा आत्म-साक्षात्कार का कोई दूसरा विकल्प नहीं है । हरेर नाम, भगवान का पवित्र नाम है । तो वर्तमान समय के पतित ते युग को देखते हुए, भगवान इतने दयालु और करुणामयी हैं कि वे खुद को ध्वनि, ध्वनि कंपन के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसे हर कोई अपनी जीभ से बोल सकता है और सुन सकता हैं, और भगवान वहां मौजूद हैं ।|Vanisource:670121 - Lecture CC Madhya 25.29 - San Francisco|670121 - प्रवचन चै.च. मध्य २५.२९ - सैन फ्रांसिस्को}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670121CC-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|हरेर नाम हरेर नाम हरेर नाम एव केवलम (चै.च. आदि १७.२१) । की "इस युग में हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जप करने के अलावा आत्म-साक्षात्कार का कोई दूसरा विकल्प नहीं है । हरेर नाम, भगवान का पवित्र नाम है । तो वर्तमान समय के पतित ते युग को देखते हुए, भगवान इतने दयालु और करुणामयी हैं कि वे खुद को ध्वनि, ध्वनि कंपन के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिसे हर कोई अपनी जीभ से बोल सकता है और सुन सकता हैं, और भगवान वहां मौजूद हैं ।|Vanisource:670121 - Lecture CC Madhya 25.29 - San Francisco|670121 - प्रवचन चै.च. मध्य २५.२९ - सैन फ्रांसिस्को}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660401BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि यह भौतिक शरीर परायी वस्तु है । हमने आपको यह पहले भी विस्तार से बताया है कि यह केवल एक पोशाक (आवरण) है । पोशाक । पोशाक मेरे शरीर के लिए परायी वस्तु है । उसी प्रकार यह स्थूल और सूक्ष्म शरीर - स्थूल शरीर भौतिक पाँच तत्वों से बना है और सूक्ष्म शरीर मन, अहंकार और बुद्धि - वे मेरी परायी वस्तुएँ हैं । अत: अब मैं इन परायी वस्तुओं में जकड़ा हुआ हूँ । इन बाह्य वस्तुओं से निकलना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है । मैं अपने वास्तविक अध्यात्मिक शरीर में ही स्थित रहना चाहता हूँ । अगर आप अभ्यास करो तो वह प्राप्त किया जा सकता है ।|Vanisource:660401 - Lecture BG 02.48-49 - New York|660401 - प्रवचन भ.गी. २.४८-४९ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660401BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि यह भौतिक शरीर परायी वस्तु है । हमने आपको यह पहले भी विस्तार से बताया है कि यह केवल एक पोशाक (आवरण) है । पोशाक । पोशाक मेरे शरीर के लिए परायी वस्तु है । उसी प्रकार यह स्थूल और सूक्ष्म शरीर - स्थूल शरीर भौतिक पाँच तत्वों से बना है और सूक्ष्म शरीर मन, अहंकार और बुद्धि - वे मेरी परायी वस्तुएँ हैं । अत: अब मैं इन परायी वस्तुओं में जकड़ा हुआ हूँ । इन बाह्य वस्तुओं से निकलना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है । मैं अपने वास्तविक अध्यात्मिक शरीर में ही स्थित रहना चाहता हूँ । अगर आप अभ्यास करो तो वह प्राप्त किया जा सकता है ।|Vanisource:660401 - Lecture BG 02.48-49 - New York|660401 - प्रवचन भ.गी. २.४८-४९ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670210CC-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरे कृष्ण के जप के बारे में अपने व्यावहारिक अनुभव का वर्णन कर रहे हैं । जब उन्होने खुद को देखा कि "मैं लगभग एक पागल की तरह हो रहा हूं," तो उन्होने फिर से अपने आध्यात्मिक गुरु का संपर्क किया और कहा, "पूज्य गुरुदेव, मुझे नहीं पता कि आपने मुझसे किस तरह का जप करने के लिए कहा है ।" क्योंकि महाप्रभु हमेशा खुद को एक मूर्ख कि तरह पेश करते थे और कि वे अनुभव नहीं कर सकते, कि वे समझ नहीं सकते कि क्या हो रहा है, लेकिन उन्होने अपने गुरु से कहा कि "ये मेरे द्वारा विकसित किए गए लक्षण हैं: कभी-कभी मैं रोता हूं, कभी-कभी मैं हंसता हूं, कभी-कभी मैं नाचता हूं । ये कुछ लक्षण हैं । इसलिए मुझे लगता है कि मैं पागल हो गया हूं ।"|Vanisource:670210 - Lecture CC Adi 07.80-95 - San Francisco|670210 - प्रवचन चै.च. आदि ७.८०-९५ - सैन फ्रांसिस्को}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670210CC-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरे कृष्ण के जप के बारे में अपने व्यावहारिक अनुभव का वर्णन कर रहे हैं । जब उन्होने खुद को देखा कि "मैं लगभग एक पागल की तरह हो रहा हूं," तो उन्होने फिर से अपने आध्यात्मिक गुरु का संपर्क किया और कहा, "पूज्य गुरुदेव, मुझे नहीं पता कि आपने मुझसे किस तरह का जप करने के लिए कहा है ।" क्योंकि महाप्रभु हमेशा खुद को एक मूर्ख कि तरह पेश करते थे और कि वे अनुभव नहीं कर सकते, कि वे समझ नहीं सकते कि क्या हो रहा है, लेकिन उन्होने अपने गुरु से कहा कि "ये मेरे द्वारा विकसित किए गए लक्षण हैं: कभी-कभी मैं रोता हूं, कभी-कभी मैं हंसता हूं, कभी-कभी मैं नाचता हूं । ये कुछ लक्षण हैं । इसलिए मुझे लगता है कि मैं पागल हो गया हूं ।"|Vanisource:670210 - Lecture CC Adi 07.80-95 - San Francisco|670210 - प्रवचन चै.च. आदि ७.८०-९५ - सैन फ्रांसिस्को}}
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{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/670209CC-SAN_FRANCISCO_ND_02.mp3</mp3player>|उद्देश्य यह है कि जो बुद्धिमान हैं, वे
अपने आध्यात्मिक गुरु से संदेश लेते हैं - जो कुछ भी गुरु कहते हैं - उनको उस विशेष आदेश को बिना किसी विचलन के पूरा करना होगा । वो उसे पूरी तरह से उत्तम बनाएगा । अलग-अलग शिष्यों के लिए अलग-अलग आदेश हो सकते हैं, लेकिन एक शिष्य को अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश को अपने जीवन के रूप में लेना चाहिए: "यह आदेश दिया गया है, इसलिए मुझे बिना किसी विचलन के इसे निभाना है ।" वह उसे सिद्ध बनाएगा ।|Vanisource:670209 - Lecture CC Adi 07.77-81 - San Francisco|670209 - प्रवचन चै.च. आदि ७.७७-८१ - सैन फ्रांसिस्को}}
अपने आध्यात्मिक गुरु से संदेश लेते हैं - जो कुछ भी गुरु कहते हैं - उनको उस विशेष आदेश को बिना किसी विचलन के पूरा करना होगा । वो उसे पूरी तरह से उत्तम बनाएगा । अलग-अलग शिष्यों के लिए अलग-अलग आदेश हो सकते हैं, लेकिन एक शिष्य को अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश को अपने जीवन के रूप में लेना चाहिए: "यह आदेश दिया गया है, इसलिए मुझे बिना किसी विचलन के इसे निभाना है ।" वह उसे सिद्ध बनाएगा ।|Vanisource:670209 - Lecture CC Adi 07.77-81 - San Francisco|670209 - प्रवचन चै.च. आदि ७.७७-८१ - सैन फ्रांसिस्को}}
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{{Audiobox_NDrops|Nectar Drops from Srila Prabhupada|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660725BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|परम भगवान ने यह प्रमाणित किया है की यह भौतिक जगत दुःखों की जगह है । अब यदि यह जगत उसी उद्देश्य से ही बना है की यह हमें दुख ही देगा तो हम इसे सुखमय कैसे बना सकते हैं ? यह जगत उसी उद्देश्य से बना है । अत: भगवान कृष्ण कहते हैं कि कोई भी जीव जो मेरे पास आता है वह पुन: इस दुखालय में नहीं आता । त्यक्त्वा देहम पुनर्जन्म नैति मामेति ([[Vanisource:BG 4.9 (1972)|भ.गी ४.९]]) ।|Vanisource:660725 - Lecture BG 04.09-11 - New York|660725 - प्रवचन भ.गी.४.९-११ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|Nectar Drops from Srila Prabhupada|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660725BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|परम भगवान ने यह प्रमाणित किया है की यह भौतिक जगत दुःखों की जगह है । अब यदि यह जगत उसी उद्देश्य से ही बना है की यह हमें दुख ही देगा तो हम इसे सुखमय कैसे बना सकते हैं ? यह जगत उसी उद्देश्य से बना है । अत: भगवान कृष्ण कहते हैं कि कोई भी जीव जो मेरे पास आता है वह पुन: इस दुखालय में नहीं आता । त्यक्त्वा देहम पुनर्जन्म नैति मामेति ([[Vanisource:BG 4.9 (1972)|भ.गी ४.९]]) ।|Vanisource:660725 - Lecture BG 04.09-11 - New York|660725 - प्रवचन भ.गी.४.९-११ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680309IV-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|"कृष्णा का मतलब है पूर्ण आकर्षक, और यह भगवान का उत्तम नाम है। जब तक ईश्वर सर्व आकर्षक नहीं होंगे, तोह वह भगवान् नहीं कहलायेंगे, वह भगवान नहीं है। भगवान सिर्फ हिन्दू' के ईश्वर या च्रिस्तियंस के  ईश्वर या यहूदियों के ईश्वर या मुसलमानो के ही ईश्वर नहीं। भगवान सबके लिए है, वह पूर्ण आकर्षक है। वह पूर्णता से धनि है। वह पूरी तरह ज्ञान में है, ज्ञान में परिपूर्ण, सुंदरता में परिपूर्ण, त्याग में परिपूर्ण, प्रसिद्धि में परिपूर्ण, ताकत में परिपूर्ण है। इस तरह से वह पूर्ण आकर्षक है। तो हमें परमेश्वर के साथ हमारे संबंध को जानना चाहिए। यह इस पुस्तक का पहला विषय है, भगवद गीता यथा रूप। तो जब हम हमारे संबंध को समझ पाएंगे, तो हम तदनुसार कार्य कर सकते हैं।"|Vanisource:680309 - Interview - San Francisco|680309 - Interview - San Francisco}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680309IV-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|"कृष्णा का मतलब है पूर्ण आकर्षक, और यह भगवान का उत्तम नाम है। जब तक ईश्वर सर्व आकर्षक नहीं होंगे, तोह वह भगवान् नहीं कहलायेंगे, वह भगवान नहीं है। भगवान सिर्फ हिन्दू' के ईश्वर या च्रिस्तियंस के  ईश्वर या यहूदियों के ईश्वर या मुसलमानो के ही ईश्वर नहीं। भगवान सबके लिए है, वह पूर्ण आकर्षक है। वह पूर्णता से धनि है। वह पूरी तरह ज्ञान में है, ज्ञान में परिपूर्ण, सुंदरता में परिपूर्ण, त्याग में परिपूर्ण, प्रसिद्धि में परिपूर्ण, ताकत में परिपूर्ण है। इस तरह से वह पूर्ण आकर्षक है। तो हमें परमेश्वर के साथ हमारे संबंध को जानना चाहिए। यह इस पुस्तक का पहला विषय है, भगवद गीता यथा रूप। तो जब हम हमारे संबंध को समझ पाएंगे, तो हम तदनुसार कार्य कर सकते हैं।"|Vanisource:680309 - Interview - San Francisco|680309 - Interview - San Francisco}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/681018LE-SEATTLE_ND_02.mp3</mp3player>|जैसे हजारों और हजारों मील दूर आप टेलीविजन चित्र या अपनी रेडियो ध्वनि स्थानांतरित कर सकते हैं, उसी तरह, यदि आप खुद को तैयार कर सकते हैं, तो आप हमेशा गोविंद को देख सकते हैं । यह मुश्किल नहीं है । यह ब्रह्म-संहिता मे कहा गया है - प्रेमाँजन छुरित भक्ति विलोचनेन । बस आपको अपनी आंखें, अपने दिमाग को उस तरह से तैयार करना होगा । आपके दिल के भीतर एक टेलीविजन बॉक्स है । यह योग की पूर्णता है । यह नहीं है कि आपको एक मशीन, या टेलीविज़न सेट खरीदना है । यह वहां है ही, और ईश्वर भी वहीं है । आप देख सकते हैं, आप सुन सकते हैं, आप बात कर सकते हैं, बशर्ते आपको मशीन मिल गई हो, आपको उसकी मरम्मत करना है, बस । ये मरम्मत की प्रक्रिया कृष्ण भावनामृत है ।|Vanisource:681018 - Lecture - Seattle|681018 - प्रवचन - सिएटल}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/681018LE-SEATTLE_ND_02.mp3</mp3player>|जैसे हजारों और हजारों मील दूर आप टेलीविजन चित्र या अपनी रेडियो ध्वनि स्थानांतरित कर सकते हैं, उसी तरह, यदि आप खुद को तैयार कर सकते हैं, तो आप हमेशा गोविंद को देख सकते हैं । यह मुश्किल नहीं है । यह ब्रह्म-संहिता मे कहा गया है - प्रेमाँजन छुरित भक्ति विलोचनेन । बस आपको अपनी आंखें, अपने दिमाग को उस तरह से तैयार करना होगा । आपके दिल के भीतर एक टेलीविजन बॉक्स है । यह योग की पूर्णता है । यह नहीं है कि आपको एक मशीन, या टेलीविज़न सेट खरीदना है । यह वहां है ही, और ईश्वर भी वहीं है । आप देख सकते हैं, आप सुन सकते हैं, आप बात कर सकते हैं, बशर्ते आपको मशीन मिल गई हो, आपको उसकी मरम्मत करना है, बस । ये मरम्मत की प्रक्रिया कृष्ण भावनामृत है ।|Vanisource:681018 - Lecture - Seattle|681018 - प्रवचन - सिएटल}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680306SB-SAN-FRANCISCO_ND_02.mp3</mp3player>|"इसलिए भागवत सबसे बुद्धिमान व्यक्ति को सलाह देता है कि तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो: "अगर आप बुद्धिमान हैं, तो आपको अपनी कृष्ण चेतना को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करना चाहिए।" क्यों? न लभ्यते यद्भ्रमतामुपर्यध: ([[Vanisource:SB 1.5.18|SB 1.5.18]]): "क्योंकि यह कृष्ण चेतना इतनी मूल्यवान और दुर्लभ है कि यदि आप अपने स्पुतनिक या किसी अन्य चीज़ से अंतरिक्ष की यात्रा करते हैं, तो भी आप कहीं भी इस कृष्ण चेतना को प्राप्त नहीं कर सकते।"|Vanisource:680306 - Lecture SB 07.06.01 - San Francisco|680306 - प्रवचन SB 07.06.01 - सैन फ्रांसिस्को}}
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{{Audiobox_NDrops|Nectar Drops from Srila Prabhupada|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660718BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|भगवद गीता में यह स्पष्ट वर्णित है कि, "मेरे प्रिय अर्जुन, तुमने भी कईं जन्म लिए । तुम मेरे निरन्तर साथी रहे थे और अभी भी हो । अत: जब-जब मैं किसी भी ग्रह पर अवतरित होता हूँ, तो तुम भी जन्म लेते हो । अत: जब मैं सूर्य ग्रह पर अवतरित हुआ तब मैंने भगवद गीता, सूर्य देव को सुनाई, तुम भी वहाँ पर उपस्थित थे, लेकिन दुर्भाग्यवश तुम उसे भूल चुके हो । क्योंकि तुम जीवधारी हो और मैं परम भगवान हूँ ।" भगवान और जीव में यही अन्तर है... कि मुझे स्मरण नहीं रह सकता । भूलना मेरा स्वभाव है ।|Vanisource:660718 - Lecture BG 04.03-6 - New York|660718 -  प्रवचन भ.गी. ४.३-६ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|Nectar Drops from Srila Prabhupada|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660718BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|भगवद गीता में यह स्पष्ट वर्णित है कि, "मेरे प्रिय अर्जुन, तुमने भी कईं जन्म लिए । तुम मेरे निरन्तर साथी रहे थे और अभी भी हो । अत: जब-जब मैं किसी भी ग्रह पर अवतरित होता हूँ, तो तुम भी जन्म लेते हो । अत: जब मैं सूर्य ग्रह पर अवतरित हुआ तब मैंने भगवद गीता, सूर्य देव को सुनाई, तुम भी वहाँ पर उपस्थित थे, लेकिन दुर्भाग्यवश तुम उसे भूल चुके हो । क्योंकि तुम जीवधारी हो और मैं परम भगवान हूँ ।" भगवान और जीव में यही अन्तर है... कि मुझे स्मरण नहीं रह सकता । भूलना मेरा स्वभाव है ।|Vanisource:660718 - Lecture BG 04.03-6 - New York|660718 -  प्रवचन भ.गी. ४.३-६ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|Nectar Drops from Srila Prabhupada|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660530BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|एक साधु सभी जीवधारियों का मित्र होता है । वह केवल मनुष्यों का ही नहीं होता । वह पशुओं का भी मित्र होता है । वह पेड़ों का भी मित्र है । वह चींटियों, कीड़ों मकोड़ों, रेंगने वाले जीव-जन्तुओं, साँपों और प्रत्येक जीव के मित्र होता हैं । तितिक्षव: कारूणिका: सुह्द: सर्वदेहिनाम । और अजातशत्रु । और क्योंकि वह सभी का मित्र है, इसलिए उसका कोई शत्रु नहीं है । लेकिन दुर्भाग्यवश यह जगत इतना धर्मनिन्दक है कि ऐसे साधु के भी दुश्मन हैं । जिस प्रकार भगवान जीसस क्राईस्ट के भी कुछ शत्रु थे, महात्मा गाँधी के भी कुछ शत्रु थे, जिन्होंने उन्हें मृत्यु के घाट उतार दिया । अत: यह जगत इतना विश्वासघाती है । और देखो कि ऐसे साधु के भी शत्रु हो सकते हैं । लेकिन साधु की तरफ़ से उसका कोई शत्रु नहीं होता । वह तो सब का मित्र है । तितिक्षव कारूणिका सुह्द सर्वदेहिनाम । ([[Vanisource:SB 3.25.21|श्री.भा. ३.२५.२१]]) । और अजात-शत्रव: शान्त:, सदैव शान्त रहता हैं । यही एक साधु, संत पुरूष के गुण हैं ।|Vanisource:660530 - Lecture BG 03.21-25 - New York|660530 - भ.गी. ३.२१-२५ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660801BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति, प्रकृति के तीन गुणों, सतो गुण, रजों गुण और तमों गुण के प्रभाव के अधीन है । सम्पूर्ण मानव जाति को हम एक ही श्रेणी में नहीं गिन सकते । जब तक हम इस भौतिक जगत में हैं, तब तक सभी को एक ही स्तर पर नहीं रख सकते । यह इस लिए संभव नहीं क्योंकि प्रत्येक जीव प्रकृति के अलग-अलग गुणों के अधीन कर्म कर रहा है । इसलिए इसका विभाजन होना निश्चित है । इस मुद्दे पर हमने पहले भी वार्तालाप किया है । लेकिन जब हम इस भौतिक स्तर से परे हो जाते हैं, तब सब समान होते हैं । तब कोई विभाजन नहीं होता । तो फिर परे कैसे हो ? वह दिव्य प्रकृति कृष्ण भावनामृत है । जैसे ही हम कृष्ण भावनामृत में पूर्णतया लीन हो जाते हैं तो हम प्रकृति के इन तीन गुणों से परे दिव्यता प्राप्त कर लेते हैं ।|Vanisource:660801 - Lecture BG 04.13-14 - New York|660801 - प्रवचन भ.गी. ४.१३-१४ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660801BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|सम्पूर्ण भौतिक प्रकृति, प्रकृति के तीन गुणों, सतो गुण, रजों गुण और तमों गुण के प्रभाव के अधीन है । सम्पूर्ण मानव जाति को हम एक ही श्रेणी में नहीं गिन सकते । जब तक हम इस भौतिक जगत में हैं, तब तक सभी को एक ही स्तर पर नहीं रख सकते । यह इस लिए संभव नहीं क्योंकि प्रत्येक जीव प्रकृति के अलग-अलग गुणों के अधीन कर्म कर रहा है । इसलिए इसका विभाजन होना निश्चित है । इस मुद्दे पर हमने पहले भी वार्तालाप किया है । लेकिन जब हम इस भौतिक स्तर से परे हो जाते हैं, तब सब समान होते हैं । तब कोई विभाजन नहीं होता । तो फिर परे कैसे हो ? वह दिव्य प्रकृति कृष्ण भावनामृत है । जैसे ही हम कृष्ण भावनामृत में पूर्णतया लीन हो जाते हैं तो हम प्रकृति के इन तीन गुणों से परे दिव्यता प्राप्त कर लेते हैं ।|Vanisource:660801 - Lecture BG 04.13-14 - New York|660801 - प्रवचन भ.गी. ४.१३-१४ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680315SB-SAN_FRANCISCO_ND_02.mp3</mp3player>|"चाणक्य पंडित कहते है कि 'समय इतना मूल्यवान है कि यदि आप लाखों स्वर्ण मुद्राएं देते हैं, तो भी आप एक पल भी वापस नहीं ला सकते।' जो खो गया है वह अच्छे के लिए खो गया है।  'न चेन्निरर्थकं नीति:'  यदि आप ऐसे मूल्यवान समय को तुच्छ चीज़ के लिए खराब करते हैं, बिना किसी लाभ के, 'का च हानिस्ततोऽधिका', बस कल्पना कीजिए कि आप कितना खो रहे हैं, आप कितने हारे हुए हैं। वह चीज जो आप लाखों डॉलर का भुगतान करके वापस नहीं पा सकते हैं, अगर वह तुच्छ चीज़ के लिए खोते है, तो कैसे आप बहुत कुछ खो रहे हैं, बस कल्पना करें। तो वही बात: प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि 'धर्मान् भागवतानिह', कृष्ण के प्रति सचेत होने के लिए, या ईश्वर के प्रति सचेत रहने के लिए, यह इतना महत्वपूर्ण है कि हमें एक पल का भी समय नहीं गंवाना चाहिए। तुरंत ही हमें शुरू करना चाहिए। क्यों? दुर्लभं मानुषं जन्म ([[Vanisource:SB 7.6.1|SB 7.6.1]])। उनका कहना है कि यह मानव रूपी शरीर बहुत दुर्लभ है। यह कई जन्मों, कई जन्मों के बाद प्राप्त होता है। आधुनिक सभ्यता, वे यह नहीं समझते हैं कि इस मानव रूप का मूल्य क्या है।"|Vanisource:680315 - Lecture SB 07.06.01 - San Francisco|680315 - प्रवचन SB 07.06.01 - सैन फ्रांसिस्को}}
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{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/690109BG-LOS_ANGELES_ND_04.mp3</mp3player>|"यह कृष्ण चेतना है, यह समझने के लिए कि सब कृष्णा का है। अगर कोई इस तरह से काम करता है तो सब कुछ...ईशावास्यं इदं सर्वं ([[:Vanisource:ISO 1|ISO 1]]). श्री इसोपनिषद ने कहा है, 'सब कुछ भगवान कह है', पर भगवान ने मुझे यह मौका दिया है कि मैं इन चीजों को संभाल सकूं। इसीलिए मेरा ज्ञान और बुद्धि रहेगा अगर मैं इसका भगवान की सेवा में उपयोग करू। जैसे ही मैं इन चीजों का उपयोग अपने इंद्रिय तृप्ति के लिए करता हूं, तब मैं फस जाता हूं। वही उदाहरण दिया जा सकता है: अगर बैंक का केशियर सोचता है, ओह, मेरे निपटान मैं लाखों डॉलर है। इससे मुझे अपने जेब में डाल दे दो, तो वह फस जाता है। अन्यथा तुम आनंद लो। तुम्हें अच्छा वेतन मिलता है। तुम्हें अच्छा आराम मिलता है और तुम अच्छे से कृष्णा के लिए काम करो। यह कृष्ण चेतना है। हर कोई चीज को कृष्णा का मानना चाहिए। मेरा कुछ भी नहीं। वह कृष्ण चेतना है।"|Vanisource:690109 - Lecture BG 04.19-25 - Los Angeles|690109 - Lecture BG 04.19-25 - Los Angeles}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/690109BG-LOS_ANGELES_ND.mp3</mp3player>|"बाहर वाले कहेंगे, "यह कृष्ण चेतना क्या है? यह लोग अच्छे से घर में रहते हैं और अच्छा खाते हैं, नाचते है, गायन करते हैं। इसमें अंतर क्या है? हम भी वह चीज करते हैं। हम भी क्लब जाते हैं और अच्छा खाते हैं और नाचते भी है। अंतर क्या है? इस में अंतर है। और वह अंतर क्या है? एक दूध का पदार्थ विकार का कारण बनता है, और दूसरे दूध का पदार्थ इलाज का कारण। यह व्यवहारिक है। दूसरे दूध का पदार्थ आपका इलॉज करता है। अगर तुम क्लब में नाचते रहोगे और क्लब में खाओगे तो धीरे-धीरे शारीरिक रूप से रोग ग्रस्त हो जाओगे। और वही यहाँ पर नाचना और खाना तुम्हें आध्यात्मिक रूप से उन्नति देगा। कुछ भी रोकने की जरूरत नहीं है। बस इसकी एक विशेषज्ञ चिकित्सक के द्वारा दिशा बदलनी होगी। बस इतना ही। विशेषज्ञ चिकित्सक आपको कुछ दवाओं के साथ दही मिलाकर देता है। असल में दवा बस रोगी को झांसा देने के लिए होती है। दरअसल दही काम करता है। उसी तरह से हमें सब कुछ करना होगा पर क्योंकि यह कृष्ण चेतना की दवाई के साथ मिला हुआ है, यह तुम्हारे भौतिक रोग का इलाज करेगा। यही प्रक्रिया है।"|Vanisource:690109 - Lecture BG 04.19-25 - Los Angeles|690109 - Lecture BG 04.19-25 - Los Angeles}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/690109BG-LOS_ANGELES_ND.mp3</mp3player>|"बाहर वाले कहेंगे, "यह कृष्ण चेतना क्या है? यह लोग अच्छे से घर में रहते हैं और अच्छा खाते हैं, नाचते है, गायन करते हैं। इसमें अंतर क्या है? हम भी वह चीज करते हैं। हम भी क्लब जाते हैं और अच्छा खाते हैं और नाचते भी है। अंतर क्या है? इस में अंतर है। और वह अंतर क्या है? एक दूध का पदार्थ विकार का कारण बनता है, और दूसरे दूध का पदार्थ इलाज का कारण। यह व्यवहारिक है। दूसरे दूध का पदार्थ आपका इलॉज करता है। अगर तुम क्लब में नाचते रहोगे और क्लब में खाओगे तो धीरे-धीरे शारीरिक रूप से रोग ग्रस्त हो जाओगे। और वही यहाँ पर नाचना और खाना तुम्हें आध्यात्मिक रूप से उन्नति देगा। कुछ भी रोकने की जरूरत नहीं है। बस इसकी एक विशेषज्ञ चिकित्सक के द्वारा दिशा बदलनी होगी। बस इतना ही। विशेषज्ञ चिकित्सक आपको कुछ दवाओं के साथ दही मिलाकर देता है। असल में दवा बस रोगी को झांसा देने के लिए होती है। दरअसल दही काम करता है। उसी तरह से हमें सब कुछ करना होगा पर क्योंकि यह कृष्ण चेतना की दवाई के साथ मिला हुआ है, यह तुम्हारे भौतिक रोग का इलाज करेगा। यही प्रक्रिया है।"|Vanisource:690109 - Lecture BG 04.19-25 - Los Angeles|690109 - Lecture BG 04.19-25 - Los Angeles}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680315SB-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|"एक व्यक्ति को कृष्णा सचेत या ईश्वर के प्रति सचेत होना चाहिए, क्यों? क्योंकि वह आपके स्व का स्वामी है और सबसे अंतरंग मित्र है, सुहृत। यथा आत्मेश्वर। आत्मेश्वर, इसका मतलब है कि हम स्वयं अलग हैं और वह मूल उत्तम स्व है। वर्तमान में हम इस शरीर को पसंद करते हैं, हम इस शरीर को प्यार करते हैं ... क्यों? क्योंकि शरीर आत्मा का उत्पादन है। आत्मा के बिना, कोई शरीर नहीं है। "|Vanisource:680315 - Lecture SB 07.06.01 - San Francisco|680315 - प्रवचन SB 07.06.01 - सैन फ्रांसिस्को}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680315SB-SAN_FRANCISCO_ND_01.mp3</mp3player>|"एक व्यक्ति को कृष्णा सचेत या ईश्वर के प्रति सचेत होना चाहिए, क्यों? क्योंकि वह आपके स्व का स्वामी है और सबसे अंतरंग मित्र है, सुहृत। यथा आत्मेश्वर। आत्मेश्वर, इसका मतलब है कि हम स्वयं अलग हैं और वह मूल उत्तम स्व है। वर्तमान में हम इस शरीर को पसंद करते हैं, हम इस शरीर को प्यार करते हैं ... क्यों? क्योंकि शरीर आत्मा का उत्पादन है। आत्मा के बिना, कोई शरीर नहीं है। "|Vanisource:680315 - Lecture SB 07.06.01 - San Francisco|680315 - प्रवचन SB 07.06.01 - सैन फ्रांसिस्को}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660729BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|कुछ निश्चित नहीं कि अगले जन्म में मैं क्या बनूँगा । वह मेरे कर्म पर निर्भर करता है क्योंकि यह शरीर भौतिक प्रकृति का दिया है । यह मेरे आदेशानुसार नहीं बनाया गया है । प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश: ([[Vanisource:BG 3.27|भ.गी. ३.२७]]) । यहाँ तुम्हें कर्म करने का अवसर मिला है, परन्तु तुम्हारे कर्म के आधार पर निर्णय लिया जायेगा कि अगला जन्म क्या होना चाहिए । वह तुम्हारी समस्या है । नहीं, यह जीवन सिर्फ पचास, साठ, या सत्तर या फिर सौ वर्ष का ही मत मानो । तुम्हारा जीवन तो एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण होता ही रहता है । तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि यह चलता ही रहता है ।|Vanisource:660729 - Lecture BG 04.12-13 - New York|660729 - प्रवचन भ.गी. ४.१२-१३ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660729BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|कुछ निश्चित नहीं कि अगले जन्म में मैं क्या बनूँगा । वह मेरे कर्म पर निर्भर करता है क्योंकि यह शरीर भौतिक प्रकृति का दिया है । यह मेरे आदेशानुसार नहीं बनाया गया है । प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश: ([[Vanisource:BG 3.27|भ.गी. ३.२७]]) । यहाँ तुम्हें कर्म करने का अवसर मिला है, परन्तु तुम्हारे कर्म के आधार पर निर्णय लिया जायेगा कि अगला जन्म क्या होना चाहिए । वह तुम्हारी समस्या है । नहीं, यह जीवन सिर्फ पचास, साठ, या सत्तर या फिर सौ वर्ष का ही मत मानो । तुम्हारा जीवन तो एक शरीर से दूसरे शरीर में देहान्तरण होता ही रहता है । तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि यह चलता ही रहता है ।|Vanisource:660729 - Lecture BG 04.12-13 - New York|660729 - प्रवचन भ.गी. ४.१२-१३ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660812BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|वैदिक शास्त्रों के अनुसार मानव समाज का विभाजन चार वर्ण में हुआ है: ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास । ब्रह्मचारी का अर्थ विद्यार्थी जीवन से है, लगभग विद्यार्थी जीवन; गृहस्थ का अर्थ, विद्यार्थी जीवन के पश्चात परिवारिक जीवन से है । वानप्रस्थ, अर्थात निवृत जीवन । और सन्यास का अर्थ है पूर्णतया त्याग का जीवन व्यतीत करना । उनका सांसारिक कर्मों से कोई संबन्ध नहीं होता । तो मानव समाज के ये चार विभिन्न स्तर हैं ।|Vanisource:660812 - Lecture BG 04.24-34 - New York|660812 - प्रवचन भ.गी. ४.२४-३४ - न्यूयार्क}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/660812BG-NEW_YORK_ND_01.mp3</mp3player>|वैदिक शास्त्रों के अनुसार मानव समाज का विभाजन चार वर्ण में हुआ है: ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास । ब्रह्मचारी का अर्थ विद्यार्थी जीवन से है, लगभग विद्यार्थी जीवन; गृहस्थ का अर्थ, विद्यार्थी जीवन के पश्चात परिवारिक जीवन से है । वानप्रस्थ, अर्थात निवृत जीवन । और सन्यास का अर्थ है पूर्णतया त्याग का जीवन व्यतीत करना । उनका सांसारिक कर्मों से कोई संबन्ध नहीं होता । तो मानव समाज के ये चार विभिन्न स्तर हैं ।|Vanisource:660812 - Lecture BG 04.24-34 - New York|660812 - प्रवचन भ.गी. ४.२४-३४ - न्यूयार्क}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680317BG-SAN_FRANCISCO_ND_02.mp3</mp3player>|"हमारा कार्य है कि कृष्ण के प्रति लगाव कैसे विकसित किया जाए। यदि आपने उस लगाव को एक सेकंड के भीतर विकसित किया है, तो व्यापार एक सेकंड के भीतर समाप्त हो जाता है। और यदि आप वर्षों तक उस लगाव को विकसित नहीं कर सकते हैं, तो यह बहुत मुश्किल है।" एकमात्र परीक्षण यह है कि आपने कृष्ण के लिए अपना लगाव कैसे विकसित किया है। यदि आप इसके बारे में गंभीर हैं, तो यह एक सेकंड के भीतर किया जा सकता है। यदि आप इसके बारे में गंभीर नहीं हैं, तो यह कई जीवन में नहीं किया जा सकता है। तो यह आपकी गंभीरता पर निर्भर करता है। कृष्ण कोई भौतिक वस्तु नहीं है कि इसके लिए कुछ विशेष समय की आवश्यकता है या ... नहीं। केवल एक ही चीज है मय्यासक्तमनाः  ([[Vanisource:BG 7.1|BG 7.1]]). आपको कृष्ण के लिए अपना पूर्ण लगाव विकसित करना होगा। "|Vanisource:680317 - Lecture BG 07.01 - San Francisco|680317 - प्रवचन BG 07.01 - सैन फ्रांसिस्को}}
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{{Audiobox_NDrops|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680817VP-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|"आध्यात्मिक गुरु का मतलब है कि वह बादल की तरह होना चाहिए। यह कैसे संभव है? यह संभव है। यह इस तरह से संभव है, बशर्ते वह आध्यात्मिक गुरु के शिष्य उत्तराधिकार का पालन करें। तब यह संभव है। उसे श्रेष्ठ स्रोत से शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। फिर यह संभव है कि उनके शिक्षण से, उनके पाठों से, जंगल की आग जो हमारे दिल के भीतर जल रही है, उसे बुझाया जा सके, और जिस व्यक्ति को इस तरह के आध्यात्मिक निर्देश प्राप्त होते हैं, वह पूरी तरह से संतुष्ट हो जाता है। "|Vanisource:680817 - Lecture Festival Appearance Day, Sri Vyasa-puja - Montreal|680817 - प्रवचन Festival Appearance Day, श्री व्यास-पूजा - मॉन्ट्रियल}}
{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680817VP-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|"आध्यात्मिक गुरु का मतलब है कि वह बादल की तरह होना चाहिए। यह कैसे संभव है? यह संभव है। यह इस तरह से संभव है, बशर्ते वह आध्यात्मिक गुरु के शिष्य उत्तराधिकार का पालन करें। तब यह संभव है। उसे श्रेष्ठ स्रोत से शक्ति प्राप्त करनी चाहिए। फिर यह संभव है कि उनके शिक्षण से, उनके पाठों से, जंगल की आग जो हमारे दिल के भीतर जल रही है, उसे बुझाया जा सके, और जिस व्यक्ति को इस तरह के आध्यात्मिक निर्देश प्राप्त होते हैं, वह पूरी तरह से संतुष्ट हो जाता है। "|Vanisource:680817 - Lecture Festival Appearance Day, Sri Vyasa-puja - Montreal|680817 - प्रवचन Festival Appearance Day, श्री व्यास-पूजा - मॉन्ट्रियल}}
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{{Audiobox NDrops2 for Mainpages|HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी|<mp3player>https://s3.amazonaws.com/vanipedia/Nectar+Drops/680623SB-MONTREAL_ND_01.mp3</mp3player>|""क्या आपको लगता है कि पूरब की दिशा सूरज की मां है? क्योंकि सूरज पूर्वी हिस्से से पैदा होता है, आप यह मान सकते हैं कि पूर्व दिशा सूर्य की मां है। इसी तरह, कृष्ण भी इसी तरह प्रकट होते है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह जन्म लेते है। चौथा अध्याय, भगवद् गीता: जनम कर्म च में दिव्यम  एवं यो वेति तत्वतः में कहा गया है। 'जो कोई भी सत्य को समझता है कि मैं अपना जन्म कैसे लेता हूं, मैं कैसे काम करता हूं, मैं कैसे अभावी हूं ...' इन तीनों चीजों को जानने के द्वारा - कैसे  कृष्ण जन्म लेते है, और वह कैसे काम करते  है और उनका वास्तविक स्थान क्या है- परिणाम यह है क़ि त्यक्त्वा देहम पुनर जन्म नैती मॉम इति कौन्तेय:(बीजी ४.९) 'मेरे प्रिय अर्जुन, इन तीनों चीजों को जानकर, जीवात्मा इस भौतिक शरीर को छोड़ने के बाद मेरे पास आता है। '' पुनर जन्म नैती: 'वह फिर कभी वापस नहीं आता '। इसका अर्थ है, दूसरे शब्दों में, अगर आप कृष्ण के जन्म को समझ सकते हैं, तो आप अपने और जन्म रोक देंगे। इस जन्म और मृत्यु से मुक्त हो जाएगा। तो समझने की कोशिश करो कि कैसे कृष्ण  प्रकट होते है । ""|Vanisource:680623 - Lecture SB 07.06.06-9 - Montreal|680623 - Lecture SB 07.06.06-9 - Montreal}}
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Latest revision as of 14:20, 27 April 2019


HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
""क्या आपको लगता है कि पूरब की दिशा सूरज की मां है? क्योंकि सूरज पूर्वी हिस्से से पैदा होता है, आप यह मान सकते हैं कि पूर्व दिशा सूर्य की मां है। इसी तरह, कृष्ण भी इसी तरह प्रकट होते है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह जन्म लेते है। चौथा अध्याय, भगवद् गीता: जनम कर्म च में दिव्यम एवं यो वेति तत्वतः में कहा गया है। 'जो कोई भी सत्य को समझता है कि मैं अपना जन्म कैसे लेता हूं, मैं कैसे काम करता हूं, मैं कैसे अभावी हूं ...' इन तीनों चीजों को जानने के द्वारा - कैसे कृष्ण जन्म लेते है, और वह कैसे काम करते है और उनका वास्तविक स्थान क्या है- परिणाम यह है क़ि त्यक्त्वा देहम पुनर जन्म नैती मॉम इति कौन्तेय:(बीजी ४.९) 'मेरे प्रिय अर्जुन, इन तीनों चीजों को जानकर, जीवात्मा इस भौतिक शरीर को छोड़ने के बाद मेरे पास आता है। पुनर जन्म नैती: 'वह फिर कभी वापस नहीं आता '। इसका अर्थ है, दूसरे शब्दों में, अगर आप कृष्ण के जन्म को समझ सकते हैं, तो आप अपने और जन्म रोक देंगे। इस जन्म और मृत्यु से मुक्त हो जाएगा। तो समझने की कोशिश करो कि कैसे कृष्ण प्रकट होते है । ""
680623 - Lecture SB 07.06.06-9 - Montreal



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