HI/470712 - महात्मा गांधी को लिखित पत्र, कानपुर
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कैम्प: नेवतिया हाऊज़
५६/५७, सतरंजी महल, कानपुर दिनांक १२/७/४७
प्रेषक: - अभय चरण डे
"बैक टू गॉडहेड" पत्रिका के संस्थापक व संपादक
नं.६, सीताकांत बैनरजी लेन, कलकत्ता
सेवा में:
महात्मा गांधीजी
भंगी कॉलॉनी
नई दिल्ली
प्रिय मित्र महात्माजी,
कृपया मेरे सादर नमस्कार स्वीकार करें। मैं आपका एक अज्ञात मित्र हूँ लेकिन मुझे समय समय पर आपको पत्र लिखने पड़े, हालांकि आपने कभी उनके उत्तर भेजने का कष्ट नहीं किया। मैंने आपको अपनी “बैक टू गॉडहेड” पत्रिकाएँ भेजीं, किन्तु मुझे आपके सेक्रेटरियों ने बताया कि आपके पास तो पत्र पढ़ने का भी समय नहीं है। मैंने आपसे मिलने का जब आग्रह किया तो आपके अत्यधिक व्यस्त सेक्रेटरियों के पास मेरे पत्र का उतर भेजने की भी फुर्सत नहीं थी। बहरहाल, अनजान होते हुए भी क्योंकि मैं आपका बहुत पुराना मित्र हूँ, इसलिए मैं आपको आपके योग्य स्थान पर लाने हेतु फिर से लिख रहा हूँ। आप जैसे व्यक्तित्व का सच्चा मित्र होने के कारण मुझे आपके प्रति अपने कर्तव्य से पथभ्रष्ट नहीं होना चाहिए।
आपके सच्चे मित्र के रूप में मैं आपसे कहता हूँ कि यदि आप एक निंदाजनक मृत्यु से बचना चाहते हैं तो तुरन्त सक्रिय राजनीति से निवृत्त हो जाईए। आपके पास आपकी इच्छा अनुसार १२५ वर्ष का जीवन हो तो भी, एक अपमानजनक मृत्यु होने से उसका कोई मूल्य न रह जाएगा। जो सम्मान और प्रतिष्ठा आपने वर्तमान जीवनकाल में अर्जित किया है वह तो आधुनिक युग में किसी के लिये भी मुमकिन नहीं था। किन्तु आपको यह ज्ञात होना ही चाहिए कि ये सम्मान और प्रतिष्ठा भगवान की माया नामक भ्रमित करने वाली शक्ति द्वारा उत्पन्न होने के कारण मिथ्या थे। मिथ्या से मेरा यह अर्थ नहीं है कि आपके इतने सारे मित्र झूठे थे या आप उनके प्रति सच्चे नहीं थे। इस मिथ्या से मेरा अर्थ है भ्रम या अन्य शब्दों में कहें तो वह अवास्तविक मित्रता और उससे पैदा होने वाला सम्मान माया की ही सृष्टि थे। फिर चाहे उन्हे झूठ कहो या क्षणभंगुर। लेकिन इस बात से आप ओर आपके मित्र, दोनो ही अनजान थे।
अब भगवान की कृपा से आपका भ्रम दूर होने वाला है। और इसीलिए आचार्य कृपलानी इत्यादि जैसे आपके वफादार मित्रों ने आप पर ये आरोप लगाने शुरु कर दिये हैं कि अब आप उन्हें वैसे कोई भी उपयोगी कार्यक्रम सुझाने में सक्षम नही हैं जैसे आपने असहयोग आंदोलन के प्रसिद्ध दिनों में बताए थे। अब आप आपके प्रतिद्वन्दियों द्वारा उलझाई हुई राजनैतिक गुत्थी को सुलझाने के लिये सही उपाए ढ़ूंढ़ते हुए दुर्दशा में भी पड़ गए हैं। इसलिए आपको चाहिए कि मुझ जैसे अपने तुच्छ मित्र की चेतावनी पर ध्यान दें, कि यदि आपने स्वयं को समय रहते राजनीति से रिटायर करके, भगवद्गीता के प्रचार में – जोकि महात्माओं का वास्तविक कर्तव्य है – शत प्रतिशत नहीं जुटा लिया, तो आपको भी मुस्सोलिनि, हिट्लर, तोजो या लॉयड जॉर्ज की ही तरह अपमानजनक मृत्यु प्राप्त होगी।
अब आप बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि किस प्रकार आपके राजनैतिक शत्रुओं (भारतीय और अंग्रेज़ दोनों) ने मित्रों के वेष में आपसे जानबूझ के छल किया और वही अनिष्ट करके आप दिल तोड़ दिया जिसे रोकने के लिए आपने इतने वर्षों तक कठोर परिश्रम किया था। आप मुख्यतः हिन्दू-मोस्लिम एकता चाहते थे और इन लोगों ने भारत-पाकिस्तान का विभाजन करके बड़ी चतुराई से आपके परिश्रम को व्यर्थ कर दिया है। आप भारत को स्वाधीन कराना चाहते थे लेकिन इन्होने भारत को हमेशा के लिए पराधीन बना दिया है। आप भंगियों की स्थिति में सुधार लाना चाहते थे। हालांकि आप भंगियों की कॉलोनी में रह रहे हैं, किन्तु भंगी तो अभी भी सड़ रहे हैं। इसीलिए ये सभी छलावे हैं। और जब इन सब को इनके वास्तविक रूप में आपके सामने रखा जाए तो आपको मानना चाहिए कि यह आपको भगवान ने दर्शाया है। जिन भ्रांतियों को सत्य मान कर आप उन में जी रहे थे, भगवान ने कृपा करके वो सभी भ्रम दूर कर दिये हैं।
आपको पता होना चाहिए कि आप सापेक्ष जगत में हैं जिसे ऋषियों ने द्वैत कहा है। यहां पर कुछ भी संपूर्ण नही है। जिस प्रकार प्रकार प्रकाश के बाद अंधकार और पिता के बाद पुत्र आता है, ठीक वैसे ही आपकी अहिंसा के बाद हिंसा होगी। यह आपको मालूम तो था ही नही, पर आपने सही स्रोतों से यह जानने का प्रयास भी नहीं किया। इसीलिए, एकता बनाने के आपके प्रयासों के पश्चात अलगाव हुआ और अहिंसा के बाद हिंसा हुई।
लेकिन ना होने से देरी ही भली। अब आपको परम सत्य के बारे में जानना ही चाहिए। इतने समय से जिस सत्य पर आप परीक्षण कर रहे हैं वह सापेक्षिक है। सापेक्ष सत्य की सृष्टि दैवी शक्ति तीन गुणों के माध्यम से करती हैं। ये सब अजेय हैं, जैसे भग्वद्गीता में (BG 7.14) बताया गया है। परम भगवान ही परम सत्य हैं।
कठ-उपनिषत् में निर्देश दिए गए हैं, कि परम सत्य के विज्ञान को जानने के लिए, हमें प्रामाणिक गुरु की शरण लेनी होगी जो शास्त्रों को भली भांति जानने के साथ ही परम ब्रह्म का साक्षात्कार भी कर चुके हैं। यही निर्देश भग्वद्गीता में इस प्रकार दिए गए हैं-
- तद्विद्धि प्रणिपातेन
- परिप्रश्नेन सेवया
- उपदेक्ष्यन्ति तद् ज्ञानं
- ज्ञानिनस् तत्तवदर्शिनः
- (BG 4.34)
पर मैं जानता हूँ कि कुछ मनगढ़ंत कठोर तपस्याओं के अलावा, आपको ऐसा कोई दिव्य प्रशिक्षण प्राप्त नहीं हुआ। अपने लक्ष्यों की प्रप्ति के लिए आपने और भी बहुत सारी चीज़ें इजाद की हैं। यदि आप उपरोक्त विधि से गुरू के पास गए होते, तो आप आसानी से इन सब से बच सकते थे। किन्तु दिव्य गुणों को प्राप्त करने के लिए की गईं आपकी निष्कपट तपस्याओं ने आपको निश्चय ही एक उच्च स्तर पर पहुँचा दिया है, जिसका बेहतर उपयोग आप परम सत्य के लिए कर सकते हैं। लेकिन यदि आप मात्र इस कृत्रिम ऊंचे पद से संतुष्ट होकर रह जाते हैं, और परम सत्य को जानने का प्रयास नहीं करते, तो प्रकृति के नियमों के अनुसार निस्संदेह ही आपका इस कृत्रिम पद से पतन होगा। और यदि आप वास्तव में परम सत्य की ओर बढ़ना चाहते हैं और पूरे विश्व के लोगों का कुछ वास्तविक भला करना चाहते हैं – जिसमें आपके एकता, शान्ति और अहिंसा के विचार सम्मिलित हों – तो भग्वद्गीता के व्यर्थ और मन्मर्जी मतलब निकाले बगैर, उसके दर्शन एवं धर्म के प्रचार हेतु तुरन्त उठिये और इस भद्दी राजनीति को त्याग दीजिए। मैंने समय समय पर अपनी पत्रिका बैक टू गॉडहेड में इसका ज़िक्र किया है, और आपके लिए उसका एक पृष्ठ यहां संलग्न है।
मेरा आपसे केवल यह अनुरोध है कि राजनीति से मात्र एक माह का अवकाश ले लें, और हम भग्वद्गीता पर चर्चा करेंगे। मुझे विश्वास है कि आपको ऐसी चर्चा से नया प्रकाश मिलने पर केवल आपका ही नहीं बल्कि पूरे विश्व का मंगल होगा, क्योंकि मुझे ज्ञात है कि आप निष्ठावान, निष्कपट और सदाचारी हैं।
उत्सुकतापूर्वक आपके उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए।
निष्ठापूर्वक आपका,
(हस्ताक्षरित)
संलग्न-बैक टू गॉडहेड से एक पृष्ठ (हस्तलिखित)
- HI/1947 से 1964 - श्रील प्रभुपाद के पत्र
- HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र जो लिखे गए - भारत से
- HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र जो लिखे गए - भारत, दिल्ली से
- HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत
- HI/श्रील प्रभुपाद के प्रवचन,वार्तालाप एवं पत्र - भारत, दिल्ली
- HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र - सरकारी अधिकारियों को
- HI/श्रील प्रभुपाद के सभी पत्र हिंदी में अनुवादित
- HI/श्रील प्रभुपाद के पत्र - मूल पृष्ठों के स्कैन सहित
- HI/1947 से 1964 - श्रील प्रभुपाद के पत्र - मूल पृष्ठों के स्कैन सहित
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