HI/570218 - के.एम. मुंशी को लिखित पत्र, बॉम्बे
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गोस्वामी अभय चरण
भक्ति वेदांत,
सी/ओ. श्री प्रभाकर मिश्रा, भारतीय विद्या भवन, बॉम्बे. ७.
दिनांकित: १८/२/५७.
प्रिय श्री मुंशीजी,
कृपया मेरे अभिवादन को स्वीकार करें। मेरे साथ भेंट करने के लिए और मेरे पत्रिका “बैक टू गॉडहेड” की कुछ प्रतियों को स्वीकार करने के लिए मैं आपका आभारी हूं, जिसे आपने अवकाश के समय में पढ़ने का वादा किया था। और मुझे आशा है की उसे पढ़ने के बाद, आप भगवद-गीता के विषय में मेरे इस मिशन का अनुमान लगा पाएँगे।
मैंने विश्वसनीय स्रोतों के माध्यम से समझा है कि आप भगवद गीता के एक बहुत बड़े प्रशंसक हैं और आपके विद्यालय में इसके दर्शन का प्रचार करने के लिए एक विशेष विभाग भी है। मैं आपके सहयोग के लिए वृंदावन से बॉम्बे आया आया था, क्योंकि मेरे और आपके मिशन में कोई अंतर नहीं है।
साथ ही, मैंने आपके सोलहवाँ(१६) तत्कालित बैठक में भाग लिया था, जिसका विषय था “आख़िर विश्व के साथ मामला क्या है?”। इसके बारे में आपकी राय जानकर मुझे बहुत खुशी हुई थी और जहां तक की मुझे याद है , आपने भगवद धाम वापस जाने को एकमात्र निष्कर्ष बताया था जो की दुनिया को सभ्यता की आपदा से बचा सकता है।
यह ही वास्तविक सत्य है। भगवत्ता के परम व्यक्तित्व, परमेश्वर श्रीकृष्ण के साथ अपने [हस्तलिखित] नित्य संबंध को लोग भुला चुकें हैं। उनमें से कुछ मूर्ख यह भी सोचते हैं कि हर कोई श्री कृष्ण(?) या भगवान है, हालांकि हम जानते हैं कि भगवान एक है, एक अखंड तत्त्व। लेकिन इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि प्रत्येक जीवात्मा, गुणवत्ता में सर्वोच्च भगवान का एक इकाई है; और इसलिए, केवल गुणात्मक रूप से जीव आत्मा और भगवान के बीच कोई अंतर नहीं है। लेकिन जहां तक ऊर्जा और शक्ति के मात्रा की बात है, जीवित प्राणी और भगवान के बीच कई महासागरों का अंतर है। इसलिए, सही दर्शन यह है कि ईश्वर जीवात्मा से भिन्न हैं और साथ ही अभिन्न भी हैं। इसलिए, जो भगवान और जीवित प्राणियों को हर एक दृष्टि से एक समान मानते हैं, उनके विचार प्रदूषित होते हैं। साम्राज्यवादी और नास्तिक दार्शनिकों के यह प्रदूषित विचार अब पूरी दुनिया में व्यावहारिक रूप से प्रचलित है, और इन विचारों ने हि मानव सभ्यता के महापतन का कारण बन अज्ञेयवाद को जन्म दिया है। मानव सभ्यता की इस अज्ञेय प्रवृत्ति के लक्षण भगवद-गीता के १६ वें अध्याय में वर्णित हैं और आपके समक्ष इसका वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है।
इसलिए भगवद-गीता का उपदेश सही परम्परा प्रणाली के अंतर्गत होना चाहिए, जिसका वर्णन चौथे अध्याय में किया गया है। यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो भगवद-गीता का उपदेश, भले ही वह विद्वानों द्वारा किया जाए, केवल समय, ऊर्जा और धन का अपव्यय होगा।
इसलिए, मेरी इच्छा है कि आप इस विचार को एक प्रभावी रूप देने में मेरा साथ दें।
इस संबंध में, मैं विशेष रूप से अपने कागजात (अंक संख्या XI) “एक आवश्यक सेवा” और (अंक संख्या X “श्री कृष्ण सर्वोच्च वेदांतवादी” पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। इस संबंध में, मैंने पहले ही एक पंजीकृत संघ बना लिया है जिसक एक संक्षिप्त विवरण संख्या X के चौथे पृष्ठ पर दिया गया है और मुझे आशा है की आप इस पर ध्यान देंगे।
एक मित्र ने मुझे आपकी संस्था में भगवद गीता के प्रचार के लिए; शामिल होने के लिए कहा था लेकिन अगर आपको मेरी सेवा को स्वीकार में आपत्ति है, तो मैं एक संस्था को अलग से व्यवस्थित कर दूँगा। और अगर आप मुझे अलग से ऐसा करने की सलाह देते हैं, तो मैं आपसे व्यक्तिगत रूप में भक्तों के समूह का सदस्य बनने का अनुरोध करता हूँ। मुझे उम्मीद है कि आप मेरी पेशकश को एक हीन भावना में नहीं लेंगे बल्कि इसे भगवद गीता के प्रति प्रेम की भावना से स्वीकार करेंगे। ओम तत्त सत,
जैसा कि मैं कुछ दिनों से आपके “भवन” में भगवद-गीता बोलने में लगा हुआ हूं, आप कृपया मुझे पहले पृष्ठ के शीर्ष पर दिए गए पते पर उत्तर भेज सकते हैं।
ओम तत्त सत।
मैं हूँ,
सादर,
[हस्ताक्षरित]
श्री के.एम. मुंशी
भारतीय विद्या भवन के अध्यक्ष,
(बॉम्बे)
राज्यपाल का शिविर,
लखनऊ - यू.पी.
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