HI/570220 - मुख्य-न्यायाधीश श्री एम.सी. छागला को लिखित पत्र, बॉम्बे
दिनांकित: २०/२/१९५७
द्वारा:
- गोस्वामी अभय चरण भक्तिवेदांत (वृंदावन)
- सी/ओ. श्री प्रभाकर मिश्रा,
- भारतीय विद्या भवन,
- चौपाटी, बॉम्बे-७।
- सेवा मे:
माननीय श्री मुख्य-न्यायाधीश श्री एम.सी. छागला
मुख्य न्यायाधीश हाउस,
हरकिसन रोड,
बॉम्बे-६।
मेरे अधिपति,
मैं आप श्रीमान को विनती पुर्वक सूचित करता हूं कि १६वीं तारीख को मैं भारतीय विद्या भवन की बैठक में उपस्थित था, जिसमें आप श्रीमान ने आर्थिक समस्या के अंतिम समाधान के रूप में धन के समान वितरण के मामले में विस्तार पुर्वक कुछ बोला था। बैठक में संबोधित किया गया विषय "दुनिया के साथ क्या मामला है?", और आप सभी सम्मानित महानुभावो ने इसे विभिन्न दृष्टि कोणों से हल करने की कोशिश की। मुंशीजी ने परमभगवान के पास वापस जाकर इसे हल करने की बहुत थोड़े बल से कोशिश की और मुझे नहीं पता कि आप श्रीमान उनसे सहमत है या नहीं।
मैं अपना विनम्रता पूर्वक परिचय एक पाक्षिक ईश्वरवाद संबंधी समकालिक के संपादक के रूप में दे सकता हूं और उसकी प्रतियाँ आप श्रीमान को आपके अवलोकन के लिए भेज दिया गया है। मैं बॉम्बे से वृंदावन श्री मुंशी को परमभगवान के पास वापिस जाने के उसी मिशन पर मिलने के लिए आया था, क्योंकि इसके बिना किसी समस्या का कोई हल नहीं है, जिसका दुनिया अब सामना कर रही है।
भगवद गीता इस मामले में मानक पुस्तक है। श्री मुंशी सामान्य रूप से लोगों की भलाई के लिए इस दर्शन का उपयोग करने की कोशिश कर रहे हैं। वह पिछले बीस वर्षों से प्रति माह ४०,०००/- रुपये तक स्थापना शुल्क खर्च कर रहे है-लेकिन वास्तव में अब तक इसका कोई ठोस लाभ नहीं हुआ है। मैंने श्री मुंशी को भगवद गीता के पारलौकिक विचारों को लागू करने के लिए उनके साथ सहयोग करने की दृष्टि से देखा। लेकिन मुझे अब तक उससे कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। इसलिए, मैं समस्याओं के समाधान के इस मानक विचार के बारे में कुछ मिनटों के लिए चर्चा करने के लिए आप श्रीमान के साथ एक साक्षात्कार की मांग कर रहा हूं।
भगवद-गीता में समस्याओं का समाधान निम्नलिखित शब्दों में दिया गया है,
- भोक्तारं यज्ञतपसां
- सर्वलोकमहेश्वरम्
- सुहृदं सर्वभूतानां
- ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति
- (भ गी ५.२९)
- यत्करोषि यदश्नासि
- यज्जुहोषि ददासि यत्
- यत्तपस्यसि कौन्तेय
- तत्कुरुष्व मदर्पणम्
- (भ गी ९.२७)
धन या ज्ञान, सौंदर्य, प्रसिद्धि, ऊर्जा और अनासक्ति आदि का समान वितरण, ये सभी उपरोक्त व्यवस्था द्वारा पूरी तरह से किए जाते हैं। यह बात हमारे स्वयं के शारीरिक संरचना के उदाहरण से अधिक रूप से स्पष्ट समझा जा सकता है। संपूर्ण शरीर का गठन इंद्रियों और अंगों द्वारा होता है। पेट के पूरी तरह से भर जाने पर सभी इंद्रियां और अंग समान रूप से ऊर्जा की आपूर्ति करते हैं। पेट शरीर के संबंधित हिस्सों में समान ऊर्जा वितरित करने के लिए केंद्रीय स्थान है जितना कि पेड़ की जड़ को पानी देना पेड़ की सभी शाखाओं और पत्तियों को ऊर्जा की आपूर्ति करने का स्रोत है।
केंद्रीय कारण के साथ अपने शाश्वत संबंध को भूलकर मानव समाज अब एक भ्रामक तरीके से चल रहा है। उन्हें भगवद-गीता के उपर्युक्त श्लोक के संदर्भ में उस मूल स्थिति में पुनः स्थापित करना होगा। इसके बिना कोई भी समाधान संभव नहीं है। वर्तमान समय, स्थिति और उद्देश्य के अनुसार इस काम को करने के व्यावहारिक तरीके और साधन हैं।
मेरे पास अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेश से इस कार्य के लिए एक कार्यक्रम है और मैं अपने लक्ष्य के साथ कुछ सहानुभूति रखने वालों को सूचीबद्ध करने के लिए बॉम्बे आया हूं। क्या आप श्रीमान मेहरबानी कर मुझे कुछ मिनटों के लिए सुने और कृपा करें?
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