HI/660716 - मंगलनिलॉय ब्रह्मचारी को लिखित पत्र, न्यू यॉर्क
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26 सेकेन्ड ऐवेन्यू अपार्टमेन्ट [अस्पष्ट]
न्यू यॉर्क एन.वाय. 10003
फोन:212/674-7428
16 जुलाई, 1966,
मेरे प्रिय ब्रह्मचारी मंगलनिलॉय,
मैं तुम्हारे 8 तारीख के पत्र के लिए तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ और मैंने उसे पढ़ लिया है। कृपया उपरोक्त मेरे पते में हुए बदलाव पर ध्यान देना। मैं मकान के किराए के संदर्भ में और जोखिम उठा लिया है। मैं मि. मुर्रे को $100.00 अदा कर रहा था, लेकिन मैं स्वतंत्र नहीं था। यहां पर किराया $200.00 प्रति माह है, किन्तु मैं पूर्णतः स्वतंत्र हूँ और मैंने टेलीफ़ोन भी लगवा लिया है। मेरा लेक्चर कक्ष भूमितल पर है और कमरा प्रथम तल पर। यह सेकिन्ड ऐवन्यु, न्यु यॉर्क नगर की दस सबसे लंबी सड़कों में से है।
मन्दिर परियोजना के मामले में मुझे अमरीका में भारतीय दूतावास से यह उत्तर प्राप्त हुआ है (दिनांक 11 जुलाई, 1966) “भारत सरकार के वित्त मंत्रालय से विदेशी मुद्रा प्राप्ति के लिए किए गए निवेदन के संदर्भ में हम आपको बताना चाहेंगे कि विदेशी मुद्रा पर लागू मौजूदा सख्ती के चलते, आपकी प्रार्थना रद्द की जाती है। शायद आप आवश्यक राशि, अमरीका वासियों से प्राप्त कर सकेंगे।“
तो अब बहस समाप्त हो चुकी है और अब किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं है। प्रचार कार्य के अपने प्रयासों में हम सर्वदा सफलता प्राप्त नहीं कर पाते। किन्तु ये असफलताएं कभी भी हास्यास्पद नहीं कहलाई जा सकतीं। जगाई व मधाई को परिवर्तित करने के अपने पहले प्रयास में तो स्वयं भगवान नित्यानन्द ने भी असफल हो जाने का अभिनय किया था। यहां तक की वे तो व्यक्तिगत रूप से घायल भी हुए थे। लेकिन वह प्रयास किसी भी अवस्था में हास्यास्पद नहीं था। वह पूरा प्रकरण दिव्य व उसमें भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए ख्यातिकर था।
हालांकि अमरीका में भारतीय निवासियों से धन जुटा पाना बहुत कठिन है। मेरे अनुयायियों में से 99 प्रतिशत अमरीकी हैं। किन्तु भारत सरकार ने मुझसे लिखित वचन लिया है कि मैं अमरीका वासियों से कोई राशि नहीं जुटाऊंगा। अर्थात् यदि मुझे इसके लिए अनुमति प्राप्त नहीं हो जाती है, तो मुझे निराशा के साथ भारत लौटकर, अपने जीवन के बचे-खुचे दिन वृंदावन में शान्ति के साथ व्यतीत करने होंगे।
झांसी के जिस मामले का ज़िक्र तुम्हारे गुरु महाराज ने किया है, उसके संदर्भ में मैं तुम्हें बतला दूँ कि, भवन का मालिक उस सम्पत्ति को किसी एक व्यक्ति के हाथ में नहीं देना चाहता था। इसलिए मैंने लीग ऑफ़ डिवोटीज़ नामक एक सोसाइटी रजिस्टर करवाई और तुम्हारे गुरु महाराज को उसके सर्वेसर्वा के रूप में शामिल होने का न्यौता भेजा। पर चूंकि वे उस समय कुन्ज-दा के साथ थे, तो उन्होंने वह सम्पत्ति अपने व कुन्ज-दा के मिले-जुले नाम पर प्राप्त करनी चाही। इस पर मैं शान्त हो गया और पूरी योजना को त्याग चला। अब हमें इन बीती बातों को भुला कर अपनी वर्तमान ज़िम्मेवारी पर आगे बढ़ना चाहिए। मेरी आगे की गतिविधियां भारतीय दूतावास के उत्तर पर निर्भर करेंगी, जिनसे मैंने अमरीका वसियों से धन जुटाने की अनुमति मांगी है। उनसे उत्तर प्राप्त होने पर मैं तुम्हें सूचित करुंगा।
आशा करता हूँ कि तुम ठीक हो। तुम कलकत्ता कब लौट रहे हो?
स्नेहपूर्वक तुम्हारा,
(आद्याक्षरित)
ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी
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