"भगवद् गीता में (भ.गी.९.४) भगवान् कहते हैं, मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना; "मैं संपूर्ण जगत्, समस्त सृष्टि में अपने निराकार रूप में व्याप्त हूँ।" मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषु अवस्थित: "सब जीव मुझमें आश्रित हैं लेकिन मैं उनमें नहीं हूँ ।" पश्य मे योगम ऐश्वर्यम (भ.गी.९.५)। इसलिए ये एकसाथ एक समान भी और भिन्न भी, ये तत्वज्ञान, श्री चैतन्य महाप्रभु के द्वारा भी स्वीकृत है, और यह भगवद् गीता में भी स्वीकृत किया गया है, मत्त: परतरं नान्यत किन्चिद अस्ति धनन्जय। (भ.गी. ७.७)। किन्तु ये स्वरुप ,दो भुजाओ वाला, बाँसुरी के साथ, कृष्ण के इस स्वरूप से बढ़कर कुछ नहीं है। इसलिए, व्यक्ति को इस स्तर पर पहुँचना है।" ।
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