HI/661230 - श्रीपाद नारायण महाराज को लिखित पत्र, न्यू यॉर्क
१९ नवंबर, १९६६
"श्री श्री गुरु गौरांग जयतो"
ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी
२६ द्वितीय मार्ग # बीर
न्यू यॉर्क, एन.वाई. यू.एस.ए
श्रीपाद नारायण महाराज,
इस पत्र में मेरे दंडवत् स्वीकार करें। मुझे २१ दिसंबर दिनांकित का आपका पत्र मिला, और मुझे सारी खबर पता चली। मैंने वृंदावन बैंक से पासबुक और चेकबुक प्राप्त की। मुझे जमा राशि की रसीदें मिलीं। सब कुछ ठीक है। लेकिन जिस खास काम के लिए मैंने पैसे भेजे थे, वह काम नहीं हुआ है। उसके लिए आप “पछता” रहे हैं। मुझे भी “पछतावा” हो रहा है। मुझे त्रिविक्रम महाराजा का एक उत्साही पत्र प्राप्त हुआ, और तुरंत मैंने उन्हें २००/- रुपये भेज दिए, ताकि वे मुझे एक मृदंग भेज सकें। मुझे नहीं पता कि श्रील प्रभुपाद की इच्छा क्या है। मैंने सभी को समय से पहले धन भेजा है, लेकिन मुझे खेद है कि काम पूर्ववत बना हुआ है। मैंने पाँच महीने पहले श्री तीर्थ महाराज को १५०/- रुपये भेजे थे, लेकिन आज भी मैं यहाँ बैठा हूँ और पछता रहा हूँ कि मेरे पास कोई मृदंग और करताल नहीं है। कृपया आप श्रीपाद त्रिविक्रम महाराजा को लिखें कि वह मुझे खेदजनक होने का कारण न दें। मेरे पत्र प्राप्त होते ही उन्हें मृदंग और करताल भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए। मेरा विलाप यह है कि अगर श्रील प्रभुपाद जीवित होते, तो वे मुझे विलाप करने का मौका नहीं देते। जब युद्ध होता है तो सरकार अन्य सभी काम रोक देती है, और हथियार भेजने की विशेष व्यवस्था करती है। युद्ध क्षेत्र में आवश्यक आपूर्ति की कुछ बर्बादी भी हो सकती है, लेकिन फिर भी आपूर्ति की कमी नहीं होती है। सरकार उस पर विशेष ध्यान देती है। जब बॉन महाराज लंदन गए, तो श्रील प्रभुपाद ने तीन महीने तक, हर महीने टेलीग्राम द्वारा, ७००/- रुपये भेजे। यह तीस साल पहले की बात है। तीस साल के बाद सब चीज़ का दाम दस गुना अधिक होता है। सिर्फ मेरे घर के किराए के लिए मैं दो सौ डॉलर मासिक का भुगतान करता हूं, जो कि १५००/- रुपये है। इसके अलावा बिजली बिल, गैस बिल, टेलीफोन बिल, और पंद्रह लोगों को खिलाने पर हर महीने ६०००/- रुपये खर्च होते हैं। साथ ही साथ, बैक टू गॉडहेड प्रकाशित किया जा रहा है। मैंने पहले पत्राचार में आपको बैक टू गॉडहेड भेज दिया है। मुझे अपने गुरुभाई से इस संबंध में कोई मदद की उम्मीद नहीं थी। मैंने केवल उनसे थोड़ा सहयोग की याचना की। उसमें भी मैं असफल हूं। निश्चित रूप से श्रील प्रभुपाद मेरी मदद कर रहे हैं। अन्यथा, मेरे जैसे तुच्छ व्यक्ति ने दो-चार लोगों को वैष्णव बनने का मौका कैसे दिया?
सामान्य लोग सभी नशे में हैं, और आवारा हैं। महिलाओं को गर्भवती करना यहां बहुत प्रचलित है, और फिर उन्हें डॉक्टर के पास ले जाकर गर्भपात कराना। यह आम बात है। इसके लिए उन्हें कोई विलाप नहीं है। आप वहां से कल्पना नहीं कर सकते, कि उन्हें अच्छा सदाचार (शास्त्रीय निषेधाज्ञा के अनुसार व्यवहार) स्वीकार कराने में कितनी कठिनाई होती है। श्रील प्रभुपाद के द्वारा इतनी अधिक कृपा है कि इस तरह के "किरात-हुननधरा-पुलिंदा-पुलकसा" (नीच) राष्ट्रीय लोग सदाचारी बन रहे हैं। वे महिलाओं के साथ अवैध संबंध, नशा, मारिजुआना, चाय, कॉफी, सब कुछ छोड़ रहे हैं। मांस खाना त्याग कर वे दही, चपाती, और चावल खा रहे हैं, और बहुत खुश हैं। वे हर सुबह और शाम को कीर्तन और हरिनाम करते हैं, और श्रील महाप्रभु के चित्र के समक्ष संध्या करते हैं। गुरु-वर्ग का सम्मान करने के लिए, जैसे ही वे मुझे देखते हैं, वे दण्डवत प्रणाम करते हैं। मैंने कभी इतनी उम्मीद नहीं की थी। वे मूर्ख या निष्क्रिय नहीं हैं। कुछ एमए और बीए हैं, और वे प्रति माह तीन से चार हजार रुपये कमा रहे हैं। उनमें से अधिकांश, उनमें से कम से कम दो, मुझे अपना सारा पैसा देते हैं। यही कारण है कि इतना खर्च करना संभव है। यहां भीख मांगना संभव नहीं है। कमाई से निधि न आए, तो मठ या मंदिर चलाना संभव नहीं है। यहां आटे और चावल की भीख मांगने के लिए घर-घर जाना संभव नहीं है। बिना सुचना दिए किसी भी सज्जनों से मिलना संभव नहीं है। पहले से सूचना करना आवश्यक है। इस सारी असुविधा के साथ, इस दूर देश में, मैं अकेला, असहाय होकर काम कर रहा हूं। मेरी एकमात्र आशा श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर हैं। मेरे पास और कोई नहीं है। मेरे घर में मेरी पत्नी और बेटे ने मेरी मदद नहीं की, इसलिए मैंने अपना घर छोड़ दिया। मुझे लगा कि गुरुभाई मेरी मदद करेंगे, लेकिन यहां भी मुझे मदद नहीं मिली। इसीलिए, जब आपने २०.९.६६ के अपने पत्र में लिखा था "मैं हमेशा भारत से आपकी सेवा करने के लिए तैयार रहूंगा, किसी भी तरह से।" और यह सुनकर मुझे बहुत उम्मीद थी। लेकिन आपके १३.११.६६ के पत्र में, दो महीने बाद, आपने लिखा है कि तीर्थ महाराज वृंदावन आ रहे थे, इसलिए “यदि आप मुझे पत्र द्वारा बताएंगे, तो वह मुझे सब कुछ भेजने की व्यवस्था करेंगे। तब मैं सारा धन उनके हाथ में दे दूंगा।" इस प्रकार मुझे मजबूरी में बैंक में सभी पैसे जमा करने के लिए आपको लिखना पड़ा। अन्यथा कोई और कारण नहीं था। वैसे भी, यह सब भूलकर, यदि आप भारत से मेरी मदद कर सकते हैं, तो आप निश्चित रूप से श्रील प्रभुपाद की कृपा पात्र बनेंगे। अपने बुढ़ापे में मैंने इतना जोखिम उठाया है, लेकिन अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए नहीं। श्रील प्रभुपाद ने इस कार्य की इच्छा की थी, और मैं अपनी क्षमता के अनुसार उस इच्छा को पूरा करने की कोशिश कर रहा हूं। व्यक्तिगत रूप से मेरे पास कोई क्षमता नहीं है। मेरी एकमात्र आशा श्रील प्रभुपाद हैं। इसलिए यदि आप किसी भी तरह से मेरी मदद करते हैं, तो जान लें कि यह निश्चित रूप से आपके लिए शुभ होगा।
आपका अपना,
श्रील भक्तिवेदांत स्वामी
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