HI/680725 - हरिविलास को लिखित पत्र, मॉन्ट्रियल
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ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी
आचार्य:अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ
शिविर:इस्कॉन राधा कृष्ण मंदिर
3720 पार्क एवेन्यू
मॉन्ट्रियल 18, क्यूबेक, कनाडा
25 जुलाई, 1968
मेरे प्रिय हरिविलास,
कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मुझे तुम्हारा दिनांक 8 जुलाई, 1968 का पत्र प्राप्त हुआ है और तुम्हारा पिछले पत्रों के संदर्भ में मैं बता दूँ कि प्रत्येक पत्र का उत्तर देने की मेरी आदत है। तुमने शिकायत की है कि कनाडा में तुम्हारे पत्र नहीं हैं। यह सच नहीं है। हालांकि पिछले चार दिनों से पूरे कनाडा देश में डाक सेवा हड़ताल पर है और अभी कुछ गड़बड़ियां हो सकती हैं। पर अतीत में मुझे तुम्हारे सभी पत्र प्राप्त हुए हैं और मैंने सभी का अविलम्ब उत्तर भेजा है। चूंकि तुम इतनी जल्दी-जल्दी एक जगह से दूसरी जगह पर जा रहे हो, इसलिए वे पत्र तुम्हारे जवाबी पते पर कहीं खोए हैं। और मैं सोचता हूँ कि यदि तुम वास्तव में कृष्ण और संघ की कोई यथार्थ सेवा करनी चाहते हो तो, तुम्हें मेरे निर्देशों का पालन करने के लिए अपने मन को स्थिर कर लेना चाहिए और कुछ ठोस कार्य करना चाहिए। यदि तुम कृष्ण के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि, आध्यत्मिक गुरु, की सेवा में स्थिरता के साथ मन को नहीं लगा लेते, तो तुम्हारे लिए कृष्ण के समीप जाना असंभव है। बहरहाल, 3 सप्ताह पहले जो पत्र तुमने मुझे भेजा था, वह मुझे मिल गया था और मैंने क्रमशः सभी बिन्दुओं पर उत्तर दे दिया है। और यदि तुम्हें वह पत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो मैं उसकी एक मौलिक प्रति संलग्न भेज रहा हूँ, जिससे तुम्हारे द्वारा व्यक्त किए गए सारे संशय दूर हो जाएंगे। मूर्तियों के बारे में पत्र में बताया गया है।
तुम्हारे जिस पत्र का यहां पर उत्तर दिया जा रहा है, मैं देख रहा हूँ कि तुम अब अमरीका लौटने को बहुत उत्सुक हो। मुझे नहीं लगता कि तुम अमरीका में भारत से अधिक काम के होगे। मैं सोचता हूँ कि यदि तुम मन लगा करके भारत में ही रहो तो तुम कृष्ण की अधिक सेवा कर पाओगे। पहली बात यह है कि मेरे अनेकों शिष्य भारत जाने को सदैव तैयार रहते हैं। किन्तु मैं उन्हें वहां जाने के लिए बढ़ावा नहीं देता, चूंकि फिलहाल वास्तव में हमारी वहां पर कोई व्यवस्थित शाखा नहीं है। अच्युतानन्द ने औपचारिक तौर पर दिल्ली में, c/o राधा प्रेस, एक शाखा खोली है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि वह कोई अच्छे ढ़ंग से चल रही है। क्योंकि तुम मिलजुलकर कार्य नहीं कर रहे हो। यदि तुम मेरे निर्देशों के अनुरूप साथ में मिल जाओ, तो तुम भारत में कहीं पर भी सुन्दर प्रकार से एक शाखा खोल सकते हो। ऐसा किस प्रकार किया जाए, उस बारे में मैं तुम्हें निर्देश दूंगा। उस संदर्भ में तुम्हें मात्र मेरे निर्देशों का अनुसरण करना है। लेकिन फिलहाल तुम मेरे निर्देशों का पालन करने को तैयार नहीं हो। तुम केवल देखादेखी-मनोरंजन के लिए अलग अलग जगहों पर भ्रमण कर रहे हो। कृष्ण ऐसी सेवा स्वीकार नहीं करते। चूंकि तुम्हारा सैर-सपाटा ख़त्म हो गया है, इसलिए तुम अब अमरीका लौटना चाह रहे हो। लेकिन अब तुम्हें सोचना चाहिए कि भारत जाकर तुमने कृष्ण की क्या सेवा की। कुछ समय पहले जब तुम नवद्वीप में थे, मैंने तुमसे कुछ मृदंग भिजवाने को कहा था। लेकिन तुमने आदेश का पालन करने से मना कर दिया। मैंने तुमसे मायापुर में एक आश्रम विकसित करने को कहा और तुमने उसके लिए भी मना कर दिया। अच्युतानन्द कानपुर में एक केन्द्र खोलने पर तुला हुआ था। और परिणाम यह है कि एक केन्द्र खोलने बजाए वह, वहां किसी मुश्टंडे के हाथों, दो टाईपराईटर खो बैठा है।
तो अभी तक तुमने व अच्युतानन्द ने जो कुछ भी किया है, उन बातों को भुला देते हैं। अब तुम सख्ती से मेरे निर्देशों पर चलकर भारत में कार्य करने का निणय लो। फिर मैं तुम्हें आवश्यक निर्देश दे सकता हूँ। वरना, तुम जो चाहो करो।
वापस लौटने के बारे में, यह बिलकुल अच्छी बात नहीं है कि तुम भारतीयों से भीख मांग रहे हो। मैं समझता हूँ कि तुमने, अमरीका लौटने के लिए, मि. पोद्दार से रु 5,000 के ऋण के रूप में सहायता मांगी। ऐसी भिक्षा अमरीकी छात्रों को शोभा नहीं देती। यह अमरीकी ऐश्वर्य व हमारे संघ की प्रतिष्ठा, दोनो के ही विरुद्ध है। यदि तुम इस प्रकार से कुछ धन प्राप्त कर भी लो, तो भी सरकार तुम्हें भारतीय धन के साथ अमरीका लौटने नहीं देगी। वापस जाने के लिए तुम्हें या तो अपने देश से धन लाना होगा, अथवा भारत में अपने राजदूत की सहायता लेनी हौगी। भारत सरकार भारतीय राजस्व में से कोई भी धन बाहर देशों को नहीं दे सकती। तो अमरीका वापस आने के लिए राशि जुटाने का प्रयास मत करो। तुम्हारे लौटने के लिए, तुम्हारे परिजनों, तुम्हरी सरकार या यहां से अन्य किसी और को तुम्हें धन अथवा टिकट भेजना होगा। पिछली बार जब मैं वापस आ रहा था, तब ऐसी ही परेशानी खड़ी हो गई थी और फिर मुझे अपने व कीर्तनानन्द के टिकिट का पैसा, रु.11,000, अपने बुक फंड में से अदा करना पड़ा, जो मैंने अमरीका भिजवाया। मैंने भारत से रु.13,000 की पुस्तकें भिजवाईं थी, जिसमें से फिर मैं वे रु.11,000 दे सका। तो ये विदेशी मुद्रा की हालत है। इसलिए मैं सोचता हूँ कि जब भारत चले ही गए हो, तो फिलहाल के लिए तुम्हें अपनी मातृभूमि, अमरीका, को भूल जाना चाहिए। एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को निरुपाधि होना चाहिए। तो क्यों तुम स्वयं को एक अमरीकी नागरिक समझते हो। तुम सदैव स्वयं को कृष्ण के सेवक के रूप में देखना चाहिए। और कृष्ण के सेवकों के तौर पर तुम्हें, मिलजुल कर, भारत में एक बेहतर अंतर्राष्ट्रीय संघ विकसित करना चाहिए। वहां पर करने के लिए बहुत सारे काम हैं। राधा प्रेस को मेरी पुस्तकें छापने की जिम्मेदारी दी गई थी और उन्हें रु.2,000 पेशगी भी दिया गया था। किन्तु उन्होंने अच्युतानन्द को सूचित किया है कि वे इन पुस्तकों को छापने में असमर्थ हैं। अब वे न तो पुस्तकें छाप रहे हैं और न ही धन लौटा रहे हैं। और मेरी समझ में नहीं आ रहा कि इस सब का क्या अर्थ है। कृपया इस मामले का निबटारा करने का प्रयास करो। हित्सारण शर्मा से कहो कि पैसे लौटा दे और मेरे खाते में जमा कर दे, ताकि मैं उसे अन्य किसी प्रेस को देकर, पुस्तकों की छपाई तुरन्त शुरु कर सकूं। मुझे बहुत दुःख है कि उसने न तो मेरी पुस्तकें छापीं हैं और किसी अन्य प्रेस से छपवाने का मौका भी मुझे नहीं दे रहा है। तो तुम तीनों तुरन्त इस स्थिति का निवारण करो और मुझे सूचित करो। मैं पहले ही अच्युतानन्द को तीन बार लिख चुका हूँ, किन्तु अभी तक कोई परिणाम नहीं मिला।
अपने पिछले पत्र के अन्त में तुम लिखते हो कि-“यहां ह्रिषिकेश में सारे विदेशी कृष्णभावनामृत में गहरी दिलचस्पी दिखाते हैं और कुछ ने हमारे साथ गीता भवन में एक बड़े कीर्त्तन में भाग भी लिया”।–इस एक वाक्य से तुम्हें समझ जाना चाहिए कि पश्चिमी निवासियों के बीच हमारे कृष्णभावनामृत के दर्शन का प्रचार करने के लिए कितनी अच्छी संभावना है। दरअसल पाश्चात्य युवक व युवतियां अपने भौतिक ऐश्वर्य से हतोत्साहित हो चुके हैं। वे कुछ आध्यात्मिक ढ़ूंढ़ रहे हैं। यह एक वास्तविक तथ्य है। और जितना मैं कह सका हूँ, उससे अधिक तुम स्वयं जानते हो। तो यदि तुम इन सब पाश्चात्य युवकों को एक आध्यात्मिक खोज में स्थित कर पाओ, तो कृष्ण की दिव्य प्रेममयी सेवा के क्षेत्र में, वह तुम्हारे देश के लिए, तुम्हारे समाज के लिए और पूरे विश्व के लिए एक बहुत महान सेवा होगी। भारत में इस आंदोलन को सुव्यवस्थित करने का प्रयास करो। पाश्चात्य युवकों को इस कृष्णभावनामृत की ओर आकर्षित करो। कम-से-कम 3 केन्द्र बनाओ, एक ह्रषिकेश में, एक वृंदावन में और एक बम्बई में। मैं बम्बई में केन्द्र के ऊपर बल दे रहा हूँ, चूंकि वहां पर तुम्हें अंग्रेज़ी-भाषियों के रूप में एक बेहतर वातावरण मिलेगा। बम्बई में 99 प्रतिशत् सभी प्रकार के स्त्री व पुरुष अंग्रेज़ी जानते हैं। तो वहां पर तुम्हें भारतीय लोगों के साथ घुलने-मिलने का बेहतर अवसर प्राप्त होगा। और ह्रषिकेश में पाश्चात्य युवक, तथाकथित योग साधना हेतू कुछ एकांत से आकर्षित होते हैं। तो यदि तुम भारत में सभी पाश्चात्य युवकों को इस प्रकार से आकर्षित कर सको, तो वह एक महान सेवा होगी। और मैं तुमसे बार-बार अनुरोध कर रहा हूँ कि इस कार्य को गंभीरता से लो और साथ में मिल जाओ।
हाँ, सितम्बर तक हम 12 लोग एक संकीर्त्तन मण्डली के रूप में लंदन जाने की योजना बना रहे हैं। और सैन फ्रांसिस्को में मुकुन्द व न्यु यॉर्क में हंसदूत, साथ में मिलकर यह योजना बना रहे हैं। पर मैं सोचता हूँ कि यहां आकर उनसे मिल जाने से बेहतर जिम्मेदारी तुम्हारे पास वहां पर है। जिस प्रकार वे संकीर्त्तन कार्यक्रम को यहां पर इतनी अच्छी तरह से चला रहे हैं, उसी प्रकार तुम भी साथ में मिलकर वही कार्य भारत में, उन पाश्चात्य युवकों को आकर्षित करके कर सकते हो, जो वहां पर कुछ आध्यात्मिक विकास के लिए जाते हैं। मैं सोचता हूँ कि तुम मुझे ठीक प्रकार से समझ पाओगे और इस विचार को एक रूपरेखा देने के लिए अपना पूरा प्रयास करोगे।
एक और बार तुम्हारा धन्यवाद करते हुए और आशा करते हुए कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक रहता हो,
सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,
(हस्ताक्षर)
ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी
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