"कृष्ण-भक्ति-रस-भविता-मतिः। मतिः का अर्थ है विवेक या मानसिकता, कि मैं कृष्ण कि सेवा करूँगा"। यदि तुम इस मानसिकता को कहीं भी खरीद सको, कृपया तुरंत खरीद लो।" फिर अगला प्रश्न होगा "ठीक है, मैं खरीदूंगा। क्या मूल्य है? क्या आपको ज्ञात है?" "हाँ मैं जानता हूँ क्या मूल्य है"। "क्या मूल्य है वह ?" लौल्यं , "सिर्फ तुम्हारी उत्सुकता, बस यही"। लौल्यं एकम मूल्यं। "आह, वह (तो) मैं प्राप्त कर सकता हूँ। " नहीं। न जन्म कोटिभिः सुकृतिभिः लभ्यते (श्री चैतन्य चरितामृत मध्यलीला ८।७०)। यह उत्सुकता, कैसे कृष्ण को प्रेम करें, यह कई कई जन्मों के पश्चात भी सुलभ नहीं है। इसलिए यदि तुम्हारे मैं लव मात्र भी वह उत्कंठा है, "मैं किस प्रकार कृष्ण की सेवा कर सकता हूँ?" तुमको अवश्य समझना चाहिए कि तुम अत्यंत भाग्यवान मनुष्य हो। एक लव मात्र, लौल्य, यह उत्कंठा, " मैं किस प्रकार कृष्ण की सेवा कर सकता हूँ?" यह बहुत उत्तम है। तब कृष्ण तुम्हें विवेक प्रदान करेंगे।"
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