HI/690209 - हंसदूत को लिखित पत्र, लॉस एंजिलस
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9 फरवरी, 1969
मेरे प्रिय हंसदुत्त,
कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मुझे तुम्हारा 30 जनवरी, 1969 का पत्र मिला और मैंने उसे ध्यानपूर्वक पढ़ा है। मैं यह जान कर प्रसन्न हूँ कि तुम इतने सारे कृष्णभावनाभावित साहित्यों की रचना में मेरी सहायता करने के लिए, एक डिक्टाफोन प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हो। मेरे वर्तमान डिक्टाफोन के निर्माता का नाम है “Grundig”, और यह एक “Embassy de Jur, Sterorette” है। यह मॉडल हयग्रीव द्वारा न्यु यॉर्क से नकद $190 में खरीदा गया था, लेकिन ऊंचे दाम पर किस्तों में भी लिया जा सकता है। तो तुम इस संदर्भ में आवश्यक कार्यवाही कर सकते हो।
जहां तक पंच तत्तव के चित्र की बात है, तो वह एक सरल मुद्रा है जिसमें भगवान चैतन्य, अपने पार्षदों के साथ सेवा स्वीकार कर रहे हैं और हरे कृष्ण कीर्तन कर रहे हैं। पंच तत्तव का विवरण कृष्ण के पांच विस्तारों के रूप में किया गया है। अर्थात् भक्त के रूप में स्वयं कृष्ण, भक्त के रूप में उनका अवतार, भक्त के रूप में उनकी शक्ति, भक्त के रूप में उनका विस्तार और उनकी दो शक्तियां(अंतरंगा एवं तटस्था)। तो, बहिरंगा शक्ति यहां नहीं है। इस प्रकार यह पूरी व्यवस्था पराभौतिक है। तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं, अर्थात् अंतरंगा, बहिरंगा एवं तटस्था। हालांकि सभी शक्तियां कृष्ण से संबंधित हैं, बहिरंगा शक्ति पृथक है। जैसे कि अंधकार प्रकाश का ही एक अन्य अंग है और इस वजह से अंधकार कभी प्रकाश के समक्ष खड़ा नहीं रह पाता, किन्तु वह प्रकाश के इर्दगिर्द रहा करता है। ठीक वैसे ही भगवान चैतन्य की लीलाओं में कहीं भी अंधकार अथवा बहिरंगा शक्ति की गतिविधियां नहीं है।
जहां तक अच्युतानन्द एवं जय गोविन्द की बात है, तो मैं अपने किसी भी शिष्य से अप्रसन्न नहीं हूँ। एक पिता कभी भी अपने पुत्रों से अप्रसन्न नहीं हो सकता, पर कभी-कभार पुत्र उपद्रव खड़ा कर देते हैं और पिता को उसे सहन करना होता है। वस्तुतः पिता सदैव पुत्रों से स्नेह करता है और उनसे प्रसन्न रहता है। किन्तु यह पुत्रों के ऊपर है कि वे पिता के आज्ञाकारी रहकर संबंध को सहज रूप में रखें। अच्युतानन्द एवं जय गोविन्द द्वारा खड़े किये गये उपद्रव अस्थायी थे। अब वे पुनः अपनी वास्तविक चेतना में आ चुके हैं।
तुमने सुभद्रा व दुर्गा के संदर्भ में जो प्रश्न किया है, तो वे कदाचित् एक नहीं हैं। दुर्गा का दूसरा नाम है भद्रा, न कि सुभद्रा और दुर्गा की गतिविधियां भौतिक जगत के भीतर हैं। सुभद्रा दुर्गा की तरह कार्य नहीं करतीं। सुभद्रा अन्तरंगा शक्ति हैं और दुर्गा बहिरंगा शक्ति हैं। शक्तियों के रूप में, उनके बीच संबंध है जैसे कि हम कृष्ण की शक्तियां हैं, किन्तु शक्तियां अलग-अलग क्षमता में कार्य किया करती हैं। हालांकि मूलतः शक्ति एक है, उनके विस्तार द्वारा, शक्तियों की अभिव्यक्तियां भिन्न-भिन्न प्रकार की हुआ करती हैं और चूंकि हम निराकारवादी नही हैं, कार्यशैली की ये विविधताएं परम पुरुषोत्तम भगवान के लिए आवश्यक हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे शासन एक होने पर भी उसके संचालन के लिए विभिन्न विभाग हुआ करते हैं। शिक्षा विभाग और अपराध विभाग शासन प्रणाली के ही विभाग हैं। शासन सभी अंगों और विभागों से जुड़ा होता है, किन्तु शैक्षिक गतिविधियां आपराधिक गतिविधियों से पृथक् होती हैं। यही परम सत्य के अचिन्त्य भेदाभेद का सिद्धान्त है।
मुझे इवान लेवीन का एक सुन्दर पत्र प्राप्त हुआ है और मैं तुम्हारी राय जानना चाहुंगा कि क्या उसे दीक्षा लेनी चाहिए जबकि उसकी पत्नि दीक्षा नहीं ले रही है। मुझे उस अकेले को दीक्षा देने में कोई आपत्ति नहीं है, पर क्या ऐसे में वह सारे नियमों का पालन कर पाएगा? यदि तुम ऐसी सलाह दो तो मैं उसे दीक्षा दे दूंगा। बेशक, पति पत्नि को साथ में दीक्षा देना सर्वोत्तम रहेगा। यदि पत्नि की दिलचस्पी है, तो फिर वह अपने पति के साथ ही दीक्षा ग्रहण क्यों नहीं कर लेती? कठिनाई क्या है। इस बारे में तुम्हारे विचार जानकर मैं आवश्यक कदम उठाऊंगा। साथ ही मुझे यह भी ज्ञात है कि श्रीमती लेवीन गर्भ से होने कारण भी अच्छा महसूस नहीं कर रहीं हैं। कृपया उन्हें मेरा आग्रह कहना की वे अधिक से अधिक आराम करें और अपनी ऊर्जा ज़्यादा खर्च न करें। तुम्हारा संदेश मिलने पर मैं श्री लेवीन को बता दूंगा कि क्या करना है।
मुझे यह जान कर बहुत प्रसन्नता होगी कि हमारी बैक टू गॉडहेड के द्वितीय फ्रांसिसी संस्करण की क्या स्थिति है। मैं प्रथम अंक से बहुत संतुष्ट था और आशा करता हूँ कि नया अंक बहुत शीघ्र तैयार हो जाएगा। कृपया मुझे बताना कि इस महत्तवपूर्ण मुद्दे में क्या समस्या है।
कृपया अपने मन्दिर के दूसरे भक्तों को मेरे आशीर्वाद दे देना। मैं उपरोक्त प्रश्नों के तुम्हारे उत्तरों की राह देख रहा हूँ। मैं आशा करता हूँ कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य में प्राप्त हो।
सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,
ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी
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