HI/700214 - मधुद्विष को लिखित पत्र, लॉस एंजिलस
14 फरवरी, 1970
मेरे प्रिय मधुद्विशा,
कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मुझे तुम्हारे 10 और 12 फरवरी, 1970 के दो पत्र प्राप्त हुए हैं। मैं यह जान कर प्रसन्न हूँ कि तुमने आने वाले रथयात्रा उत्सव की तैयारी जल्दी शुरु कर दी है। इस संदर्भ में, मैंने भारत से उत्सव की सटीक तिथि का आग्रह किया है किन्तु अभी तक उत्तर प्राप्त नहीं हुआ है। तो तुम 20 से 31 जुलाई के बीच की कोई भी तारीख चुन सकते हो – फिर चाहे वह मेल न भी खाती हो, हमें सुविधानुसार तैयारी करनी है। इसकी अनुमति है।
जहां तक इस बार की रथयात्रा में बढ़ाने की बात है, तो तुम तीन रथ बना सकते हो, प्रत्येक विग्रह के लिए एक। बाकि का सारा विवरण तो पहले से मौजूद है, बस ध्वजाओं, सजावटों, फूलों, घंटियों, पताकाओं आदि हेतु और अधिक धन मुहैया करा सकते हो। आध्यात्मिक आकाश दूर है, पर तुम बस जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा का अनुसरण करने का प्रयास करो। जगन्नाथ पुरी अथवा जहां कहीं पर भी रथयात्रा होती है वह आध्यात्मिक आकाश से अभिन्न है।
वसंत में तुम भगवान चैतन्य के आविर्भाव दिवस पर एक बहुत बड़ी शोभायात्रा का नेतृत्व कर सकते हो। वसंत के इस बड़े महोत्सव को बाहर मनाने की यह एक अच्छी योजना है। तो बड़ी संकीर्तन मंडली के साथ यह एक बहुत भव्य शोभायात्रा है और तुम जन्माष्टमी का दिन भी फिरसे ऐसी शोभायात्रा के साथ मना सकते हो। तीनों इलाके ये तीन महत्तवपूर्ण विषय इस प्रकार मना सकते हैं और इसी तरह अन्य केन्द्र भी।
तुम्हारे पहले प्रश्न के बारे में, एक शुद्ध भक्त कभी भी प्रकति के गुणों के अंतर्गत नहीं होता। अन्य शब्दों में कहें तो, पूर्णतः कृष्ण के निर्देशों के अंतर्गत रहने कारण, उसपर कोई प्राकृतिक नियम लागू नहीं होते। तो एक भक्त, यदि चाहे तो, अपना वर्तमान व्यवसाय चालू रख सकता है या छोड़ भी सकता है। कृष्ण एक भक्त को बाध्य नहीं करते, चूंकि भक्त स्वाभाविक रूप से स्वतः ही कृष्ण की इच्छानुसार कार्य करता है। इस प्रकार की प्रेमात्मक सेवा में बाध्य करने का प्रश्न ही नहीं है। बाध्य तब किया जाता है जब कृष्ण की अवज्ञा हो। जैसे देश के नागरिक, देश के कानून का पालन करने को स्वतंत्र हैं। यह है अधीनस्थ स्वतंत्रता। और जीवात्माओं की स्वतंत्रता भी कृष्ण के अधीन है। भगवद्गीता में यह इशारा दिया गया है कि जीवात्माएं परम भगवान के अंश हैं और इसका अर्थ है कि कृष्ण के सारे गुण सूक्ष्म मात्रा में प्रत्येक जीवात्मा में विद्यमान हैं। यह है भेदाभेद सिद्धान्त – जीवात्माओं के पास स्वेच्छाधिकार है चूंकि वे कृष्ण के अंश हैं और कृष्ण के पास भी स्वेच्छाधिकार है, किन्तु कृष्ण का स्वेच्छाधिकार परम है जबकि जीव की स्वतंत्रता सूक्ष्म है। तो यदि जीवात्मा, प्रेमवश अपना स्वेच्छाधिकार कृष्ण के अधीन कर दे, तो यह उसकी मुक्ति है। वह और असहाय रहने के लिए बाध्य नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से हर प्रकार की प्रेमा भक्ति कृष्ण को अर्पण करता है। और फिर हमारे पास कृष्ण द्वारा भगवद्गीता में प्रामाणित किया हुआ वास्तविक निष्कर्ष भी मौजूद है (18.66), “केवल मेरी शरण में आ जाओ, और बदले में मैं तुम्हारे सारे पापों के फल से तुम्हारी रक्षा करुंगा। इस प्रकार तुम्हें और भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।” इसी प्रकार ग्रहों के प्रभाव भी भौतिक हैं और इसलिए ऐसे भक्त को प्रभावित नहीं कर सकते जिसने अपने प्राणधन को कृष्ण की सेवा में झोंक कर, कृष्ण की अंतरंगा शक्ति की शरण ले रखी है।
तुम्हारा दूसरा प्रश्न है, दूसरे ग्रहों के अंतरिक्षयात्रियों के बारे में। वैदिक साहित्य में बताया गया है कि ऐसे अनेक ग्रह हैं जहां के वासी, पृथ्वीवासियों से अधिक विकसित हैं। तो यह असंभव नहीं है कि ऐसे लोगों ने अंतरिक्ष में यात्रा करने के तरीके विकसित कर लिए हों। वे भगवान की सृष्टि में ऊंचे पद पर आसीन हैं, तो उन्हें देवता माना जा सकता है, ठीक वैसे ही जैसे कि शासन द्वारा राष्ट्रपति को विशेश अधिकार दिया गया होता है। पर ऐसा ज़रूरी नहीं है कि अंतरिक्ष यात्री भगवान के संदेश ले कर आ रहे हों, जैसे सरकारी अफसर का काम सरकार का प्रतिनिधित्व करने का नहीं बल्कि अपने व्यक्तिगत कार्य को करने का होता है।
क्योंकि कृष्ण प्रत्येक का भविष्य जानते हैं, इस कारणवश हमारा स्वेच्छाधिकार नहीं चला जाता। अगर मैं यह जानता हूँ कि कोई व्यक्ति चोरी कर सकता है, तो मुझे यह भी मालूम है कि वह पकड़ा जाएगा और सज़ा पाएगा। यह है भविष्य को जानना। पर इसका यह अर्थ नहीं कि उसके पास ऐसा अपराध करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं रह जाता। हर किसी के दो भाग्य होते हैं। एक कृष्ण भावनामृत में और दूसरा भौतिक चेतना में। यदि कोई कृष्ण भावनामृत में है, तो कृष्ण उसका भविष्य जानते हैं और यदि वह भौतिक चेतना में है और उसी प्रकार कार्य कर रहा है, तो कृष्ण उसका भविष्य भी जानते हैं। इस प्रकार किसी जीवात्मा का भविष्य ज्ञात होने के कारण उसका स्वेच्छाधिकार प्रभावित नहीं हो जाता। यह एक भ्रांति है।
नित्यानन्द प्रभू से प्रार्थना करने बारे में मैंने तुम्हें अपने पिछले पत्र में लिखा था कि इस प्रकार की प्रार्थना बिलकुल उपयुक्त है। हमारी एकमात्र प्रार्थना भक्ति में अधिकाधिक वृद्धि के बारे में होनी चाहिए। और ऐसी प्रार्थना भगवान को साधे-सीधे नहीं अपितु उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि अथवा सेवक के माध्यम से पंहुचाई जानी चाहिए।
मुझे जान कर बहुत हर्ष है कि सैन-फ्रांसिस्को मन्दिर, दिव्य नाटकों के साथ, नगर संकीर्तन के मामले में बहुत अच्छे ढंग से चल रहा है। और तुम्हारी बीटीजी की बिक्री से मुझे बहुत प्रोत्साहन मिलता है। मैंने गर्गमुनि से सुना कि तुम बीटीजी की 20,000 प्रतियां मंगा रहे हो और यह बहुत अच्छी खबर है। बीटीजी बिकने का अर्थ है कि हमारे आंदोलन की वृद्धि हो रही है और हमारे सिद्धान्तों की सराहना हो रही है। उत्तम श्लोक एक बहुत अच्छा भक्त है और मैं यह जान कर प्रसन्न हूँ कि वह, नए भक्तों का मार्गदर्शन करने में, तुम्हारी बहुत सहयता करता है। वह, मेरी अनुमति से, जब तक चाहे वहां रह सकता है। मैं जानता हूँ कि वह एक दक्ष मन्दिर संचालक के रूप में बहुमूल्य है।
मैं पहले ही हंसदुत्त को जर्मनी केन्द्र की देखरेख करने और उसे सुव्यवस्थित बनाने के लिए भेज चुका हूँ।
मैं यह जान कर बहुत खुश हूँ कि तुम एक और केन्द्र सैन होसे में खोलने की तैयारी कर रहे हो। तुम्हारे पत्र से मैं समझ सकता हूँ कि यह, स्पैनिश भाषी लोगों के बीच, कृष्ण भावनामृत का प्रचार करने की एक अच्छी शुरुआत होगी। मुझे फ़र्क नहीं पड़ता कि केन्द्र इस जगह या उस जगह खोला जाए, मैं बस चाहता हूँ कि अन्त में प्रत्येक जगह में एक केन्द्र खुले। फिलहाल तुम सैन होसे में केन्द्र खोल सकते हो, और जैसे कि तुमने बताया कि ऐसा करने के कई फ़ायदे हैं, तो तुम इसे बहुत ही अच्छे तरीके से विकसित करो। जब दक्षिण अमरीका केन्द्र पहली बार खुलेगा तो यह चित्सुखानन्द और उसकी पत्नी के लिए एक अच्छा अवसर होगा कि वे कुछ स्पैनिश भाषी भक्तों को अपनी सहायता में लगा सकें। तो आसपास रहकर तुम उनसे निकट संपर्क बनाए रखो और, जहां तक संभव हो, उन्हें हर प्रकार की सहायता दो। तुम्हारी योजना को मेरा पूरा समर्थन है और तुम बिना विलम्ब किए तुरन्त अपनी तैयारियां शुरु कर सकते हो।
इस संकीर्तन आंदोलन के प्रचार की तुम्हारी इच्छा में वृद्धि के बारे में जान कर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे गुरु महाराज कहा करते थे कि जिसके पास वास्तव में प्राण हैं, वह कृष्ण भावनामृत का प्रचार किए बिना नहीं रह सकता ---- वास्तविक आध्यात्मिक जीवन का अर्थ है प्रचार और वही वास्तविक प्रचारक है। अब हमें हमारे सारे शिष्यों को गंभीर प्रचार के लिए तैयार करना ही होगा। तो मैं अपने सारे शिष्यों का आह्वाहन कर रहा हूँ कि वे बहुत गंभीरता के साथ प्रतिदिन बिना चूके, सोलह माला जप करें और अनुशासनिक गतिविधियों का सख्ती से पालन करें। यदि ये दो चीज़ें नियमित रूप से की जाएं तो पतन का कोई अवसर ही नहीं रहेगा, चूंकि ये नियम आध्यात्मिक बल के आवश्यक आधार हैं। इसके साथ-साथ तुम सबको अत्यन्त ध्यानपूर्वक, कक्षाएं व हमारे शास्त्रों का व्यक्तिगत अध्ययन करना ही होगा, ताकि तुम सभी, इस दिव्य विज्ञान और साधारण मानवता के लिए उसकी आवश्यकता में, ठोस विश्वास रखने वाले प्रचारक बन सको।
अगर कोई केवल नियमित रूप से जप करे और नियमों व अनुशासनिक सिद्धान्तों का पालन करे तो दर्शन संबंधी सारे प्रश्नों के उत्तर कृष्ण द्वारा अन्तःकरण से दे दिए जाएंगे और सभी शंकाओं का भी इसी प्रकार निवारण हो जाएगा। और वही उत्तर हमारी भगवद्गीता, श्रीमद् भागवतम् आदि पुस्तकों में पुनः उपस्थित हैं। तो कृपया ध्यान दो कि सभी दीक्षा प्राप्त भक्त अपने दैनिक जप और भक्ति में नियमित जीवनयापन में सख्ती से लगे रहें। यह सबसे अधिक महत्तवपूर्ण है।
आशा करता हूँ कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य में प्राप्त हो।
सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी,
ए.सी.भक्तिवेदान्त स्वामी
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