HI/700405 - प्रद्युम्न को लिखित पत्र, लॉस एंजिलस

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Letter to Pradyumna (Page 2 of 2)


3764 वात्सका एवेन्यू
लॉस एंजेलिस, कैल. 90034

5 अप्रैल, 1970


मेरे प्रिय प्रद्युम्न,

कृपया मेरे आशीर्वाद स्वीकार करो। मुझे तुम्हारा दिनांक 31 मार्च, 1970 का पत्र मिला है और इसी बीच मुझे एक छोटा टेप रिकॉर्ड प्राप्त हुआ है। तुम्हारे द्वारा सिखाया गया संस्कृत उच्चारण बहुत सफल रहा है। मैं हमारे छात्रों को, भगवद्गीता, श्रीमद् भागवतम् आदि के संस्कृत श्लोकों का उच्चारण सिखाने के बारे में सोच ही रहा था, और कृष्ण की इच्छा से तुमने शुरु भी कर दिया। यदि छात्रों को संस्कृत ध्वनि का उच्चारण सिखा दिया जाए, तो इससे मेरी बहुत अधिक सहायता होगी। अप्राकृत ध्वनि तरंग का कुछ और ही असर होगा।

किन्तु हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारा उद्देश्य आध्यात्मिक अनुभूति ही है। और इसीलिए, ऐसी कक्षाओं की शुरुआत व अन्त में कीर्तन अवश्य किया जाना चाहिए। और उन्हें श्लोकों का उच्चारण मात्र नहीं करना चाहिए। बल्कि प्रत्येक श्लोक का अर्थ व तात्पर्य भी समझना चाहिए। ऐसे में यह एक महान सफलता होगी।

यदि संभव हो तो तुम, अन्य केंद्रों में उपयोग हेतु एक ओर पूरी टेप बना सकते हो। तुम्हें अनेकों प्रतियां बनानीं चाहिएं और संभवतः दिनेश इस संदर्भ में तुम्हारी सहायता कर सकता है। फिर नमूने के तौर की इन टेपों को सभी केंद्रों में वितरित करो। और उन केंद्रों से मूल्य मांगा जा सकता है।

शब्दों के अंत के बारे मेः जब शब्दरूप की बात की जाती है, तो यह कुछ ऐसा है कि शब्द रूप है गुणिन् अथवा स्वामिन् । किन्तु संधि करते समय वह कर्ता कारक बन जाता है। गुणिन् के स्थान पर हम कहते हैं गुणी(कर्ता कारक)। तो संधि करते समय भाषा का कर्ता कारक उपयोग किया जाता है, प्रतिपादक नहीं। यह उपयुक्त है। इसी प्रकार आत्मन् के स्थान पर आत्मा कहा जाता है। तो मैं नहीं जानता कि इस स्थान पर विद्वान लोग क्या चाहते हैं। जो ठीक रहे, तुम अपने हिसाब से देख के कर सकते हो।

क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हें इन सारी पुस्तकों की आवश्यकता पड़ेगी? हालांकि यदि तुम इन्हें दिग्दर्शन पुस्तकों के तौर पर रखो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हमें विद्वत्ता से अधिक आध्यात्म पर पर बल देना है। पर साथ ही, यदि हमारी पुस्तकें बहुत विद्वत्तापूर्ण शैली में प्रस्तुत की जाएं, तो बहुत अच्छा रहेगा। तो तुम सबकुछ ध्यान में रखते हुए आवश्यक कदम उठाओ। जहां तक व्याकरण का प्रश्न है, तो संस्कृत व्याकरण का कम से कम 12 वर्षों तक अध्ययन करना पड़ता है। इसके बाद व्यक्ति एक दक्ष वैयाकरण बनता है। भारत में जो संस्कृत के विद्वान हैं उन्होंने शुरुआत में 5 से 15 वर्ष की आयु तक---अर्थात लगातार दस वर्षों तक---व्याकरण का विस्तार से अध्ययन किया होता है। जब कोई व्याकरण के नियमों व विन्यास, अर्थात शब्द, धातु, संधि, समास, प्रकरण, विधान, प्रत्यय, अधिकरण में दक्ष हो चलता है, तो उसके बाद वह न्याय का अध्ययन करता है। इस प्रकार से जब व्यक्ति 10 से 12 वर्ष में निपुण बन जाता है, यानि 17 वर्ष की आयु तक छात्र अति दक्ष हो जाता है, तो वह 1 या 2 साल में ज्ञान के किसी भी विभाग को पूर्णतः ज्ञात कर सकता है। पर तुम्हें ऐसा विद्वान बनने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें तो केवल भगवद्गीता, श्रीमद् भागवतम् आदि शास्त्रों को समझना है और हरे कृष्ण महामंत्र का जितना अधिक संभव हो, जप करना है। बात यह है कि यदि तुम विद्वत्ता पर अधिक बल दोगे तो अन्य भक्त तम्हारी नकल करने का प्रयास करेंगे। तुम्हारी पत्नी पहले ही यह इच्छा व्यक्त कर चुकी है। और जैसे ही हम विद्वान बनने का प्रयास करने लगेंगे, हमारी आध्यात्मिक वृत्ति क्षीण पड़ जाएगी। इन बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए।

हां, मैं श्रीमद् भागवतम् के स्कंध 3,7,8,9 के दो अंशों को ढ़ूंढ रहा था। तो तुम उन्हें दिग्दर्शन हेतु अपने पास रखो अथवा सुविधानुसार यहां भेज दो।

मैं सोचता हूँ कि बहुत निकट भविष्य में तुम्हें, एक बाद एक विभिन्न केंद्रों में, यह श्लोक उच्चारण सिखाने के लिए जाना होगा। तो प्रत्येक केंद्र में तुम्हारी टेपों को सुनकर और तुम्हारी व्यक्तिगत उपस्थिति से वे संस्कृत श्लोकों के उच्चारण में बहुत निपुण बन जाएंगे।

तुम्हारी अंतिम बात है कि, तुम्हें विभिन्न साहित्यों को बहुत ध्यानपूर्वक जानने का प्रयास करके उन्हें हर जगह कक्षाओं व पुस्तकों में प्रस्तुत करना चाहिए। यह बहुत उत्तम है। यह एक अच्छा विचार है और यदि तुम ऐसा कर सको तो यह एक महान सेवा है और कृष्ण तुमपर कृपा करेंगे। मुझे विश्वास है कि तुम इस प्रयास में सफल रहोगे, लेकिन नियमित रूप से सोलह माला जप करना मत भूलना। इससे तुम्हें अधिकाधिक आध्यात्मिक बल प्राप्त होगा।

मैं मुकुन्द दास के बारे में अधिक नहीं जानता। पर मैं सोचता हूँ कि जीव गोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिंधु पर टीका की थी और वह मेरे गुरु महाराज द्वारा स्वीकार की गई है।

आशा करता हूँ कि यह तुम्हें अच्छे स्वास्थ्य में प्राप्त हो।

सर्वदा तुम्हारा शुभाकांक्षी

(अहस्ताक्षरित)

ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी

एसीबीएस:डी बी

श्रीमन् प्रद्युम्न दास अधिकारी
इस्कॉन मंदिर
38 उत्तर बीकन स्ट्रीट
बोस्टन, एमए 02134