"इस जगत के हर कोने में बहुत दुविधाएं है, क्योंकि हम स्वयं को ये शरीर मान चुके है, जो सिर्फ एक शर्ट और कोट है। मान लीजिये कि हम बैठे हुए है, बहुत सारी महिलाए और पुरुष, और यदि हम बैठके बस कपड़ो को लेकर ही झगड़ा करें की "अरे तुमको ऐसे कपड़े नहीं पहने हुए हैं। किंतु मैं ऐसे कपड़ो में हूँ।। इसीलिए तुम अब मेरे बैरी हो।" यह तो एक अच्छी बहस नहीं। क्योंकि मैं अलग पोशाक में हूँ, इसलिए मैं तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ। और क्योंकि तुम अलग पोशाक में हो, इसलिए तुम मेरे दुश्मन नहीं हो। किंतु यह चल रहा है। यह चल रहा है। "में अमरीकन हूँ", "में भारतीय हूँ","में चीनी हूँ,"में रूसी हूँ", "में ये हूँ","में वो हूँ"। और इसी बहस पर युद्ध हो रहे है। तो यदि आप कृष्ण भावनामृत को अपनाएंगे यह सब धूर्तता चली जायेगी। जैसे आप देख सकते है यह सारे शिष्य। यह ये नही सोचते की में भारतीय या अमरीकन या अफ्रीकन या . . . नही। यह सोचते है की "में कृष्ण का सेवक हूँ।" यह अनिवार्य है।"
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