"यह स्थिति, भौतिक वस्तु के साथ हमारा संपर्क, सपने जैसा है। वास्तव में हम पतित नहीं हैं। इसलिए, क्योंकि हम पतित नहीं हैं, किसी भी समय हम अपनी कृष्ण भावनामृत को पुनर्जीवित कर सकते हैं। जैसे ही हमे ज्ञात होता है कि 'मुझे उससे कुछ नहीं करना है। मैं केवल कृष्ण का सेवक हूँ, नित्य सेवक। बस इतना ही', तुरंत ही वह मुक्त हो जाता है। ठीक उसी तरह: जैसे ही आप... कभी-कभी हम ऐसा करते हैं। जब भयभीत सपने देखना बहुत असहनीय हो जाता है, तो हम सपने को तोड़ देते हैं। हम स्वप्न को तोड़ देते हैं।; अन्यथा यह असहनीय हो जाता है। इसी तरह, हम किसी भी क्षण इस भौतिक सम्पर्क को तोड़ सकते हैं, जैसे ही हम कृष्ण भावनामृत में आते हैं: 'ओह, कृष्ण मेरे नित्य गुरु हैं। मैं उनका सेवक हूं।' बस इतना ही। यह तरीका है। वास्तव में हम पतित नहीं हैं। कोई भी पतित नहीं हो सकता है। वही उदाहरण: वास्तव में कोई बाघ नहीं है; यह सपना है। इसी तरह, हमारी पतित बद्ध जीव भी सपने देख रही है। हम पतित नहीं हैं। हम बस किसी भी क्षण उस भ्रामिक अवस्था को त्याग सकते हैं।”
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