"प्रेम करने की हमारी यह सहजप्रवृत्ति तब तक तृप्त नहीं होगी जब तक वह परम पुरुषोत्तम भगवान तक नहीं पहुँच जाती। यह ही कृष्ण भावनामृत आंदोलन है। हम प्रेम करते हैं। प्रेम करने की सहप्रवृत्ति हमारे भीतर है। जब हमारे पास परिवार नहीं होते तब भी हम कभी कभी पालतू पशु रखते हैं, बिल्ली और कुत्ते, उनसे प्यार करने के लिए। स्वभावतः हम किसी और को प्रेम करते थे। तो वह कोई और कृष्ण हैं। वास्तव में, हम कृष्ण से प्रेम करना चाहते हैं, किन्तु कृष्ण की जानकारी के बिना, कृष्ण भावना के बिना, हमारी प्रेम करने की सहजप्रवृत्ति सिमित होती है, किसी दायरे के भीतर। इसलिए हम संतुष्ट नहीं हैं। नित्य सिद्ध कृष्ण-भक्ति (श्री चैतन्य चरितामृत मध्यलीला २२.१०७)। हमारे भीतर यह प्रेम सम्बन्ध, प्रेम व्यव्हार, नित्य विद्यमान है, यह कृष्ण को प्रेम करने लिए है।"
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