"हमें सबसे पहले यह समझना चाहिए कि हमारी इंद्रियां अपूर्ण हैं। जैसे हम इस कमरे में बैठे हैं। हमारी आंखें हैं, लेकिन हम नहीं देख सकते कि वहां क्या है, चल रहा है, इस दीवार से परे। सूर्य इस धरती से भी चौदह लाख गुना बड़ा है, और हम डिस्क की तरह देख रहे हैं। तो पलक आंखों के पास है, लेकिन पलकें क्या हैं हम नहीं देख सकते। अगर बत्ती बंद है, तो हम नहीं देख सकते हैं। तो हम कुछ शर्तों के तहत देख सकते हैं। तो फिर हमारे देखने का क्या मूल्य है? यदि हम, दूरबीन का निर्माण भी करते हैं, वह भी अपूर्ण इंद्रियों द्वारा निर्मित है, तो यह भी पूर्ण नहीं है। तो हमारी अपूर्ण इंद्रियों में हेरफेर करके जो कुछ भी समझा जाता है, वह वास्तविक ज्ञन नहीं है। तो वास्तविक ज्ञान को समझने की हमारी प्रक्रिया किसी वास्तविक ज्ञान रखने वाले व्यक्ति से लेना है। जैसे अगर हम सोचते हैं या अनुमान लगाते हैं कि मेरे पिता कौन हैं, तो यह समझना कभी संभव नहीं है कि मेरे पिता कौन हैं। लेकिन अगर हमें मां से प्रामाणिक शब्द मिलते हैं कि, "यह तुम्हारे पिता हैं," वह उत्तम है। इसलिए ज्ञान की प्रक्रिया अनुमान लगाने में नहीं, बल्कि पूर्ण व्यक्ति से इसे प्राप्त करने में है। यदि हम किसी मानसिक सट्टेबाज से ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो वह पूर्ण ज्ञान नहीं है।"
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