"हमारा शास्त्र कहता है कि पिता न स स्याज जननी न सा स्यात, न मोचयेंद यः समुपेत्य-मृत्युम (श्री. भा. ५.५.१८ )। विचार यह है कि किसी को पिता नहीं बनना चाहिए, एक माँ नहीं बनना चाहिए, जब तक कि वे अपने बच्चे को अमर बनाना नहीं जानते हों। क्योंकि आत्मा अमर है, लेकिन वह इस भौतिक शरीर में उलझा हुआ है; इसलिए मृत्यु होती है। वास्तव में आत्मा का जन्म नहीं होता है, न जायते न मर्यते वा (भ. गी. २.२०) तो यह प्रक्रिया चल रहा है, आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरण, तथा देहान्तरा-प्राप्तिः (भ. गी. २.१३)। पिता और माता को इतना प्रबुद्ध होना चाहिए और पुत्र को इस तरह शिक्षित करना चाहिए कि यह भौतिक शरीर की अंतिम स्वीकृति हो। त्यक्त्वा देहम पुनर जन्म नैती (भ. गी. ४.९) इस भौतिक शरीर को वह शायद फिर से स्वीकार नहीं करेगा। यदि माता-पिता इस तरह से दृढ़ हैं, तो उन्हें माता-पिता बनना चाहिए; अन्यथा नहीं।"
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