"तो यह कृष्ण भावनामृत आंदोलन इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, कि हर कोई इस शरीर को वैसा ही सोच रहा है जैसा वह है। कोई नहीं समझता कि वह इस शरीर के भीतर है। जैसे हम इस पोशाक के भीतर हैं, मैं यह पोशाक नहीं हूं। यह आध्यात्मिक जीवन की प्राथमिक शिक्षा है। दुर्भाग्य से, इसकी बहुत कमी है। और अब आप व्यावहारिक रूप से देख सकते हैं कि ये यूरोपीय और अमेरिकी लड़के, वे सभी युवा पुरुष हैं, लेकिन वे शारीरिक संबंध भूल गए हैं। हमारी संस्था में आफ्रीकन्स, कैनेडियंस, ऑस्ट्रलियन्स, युरोपीयेन्स, भारतीय हैं, लेकिन वे जीवन की इस शारीरिक अवधारणा के संदर्भ में विचार नहीं करते हैं। वे कृष्ण के शाश्वत सेवक के रूप में रहते हैं। यह श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा दिया गया निर्देश है, जीवेरा स्वरूप हय नित्य कृष्ण दास (चै. च. मध्य २०. १०८-१०९)।"
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