"एक वैष्णव केवल अपने लाभ के लिए ही रुचि नहीं रखता है। जैसे ही उसने कृष्ण के चरण कमलों की शरण ली है, उसका अपना लाभ पहले ही हो चुका है। उसकी और कुछ भी इच्छा नहीं है। सब कुछ समाप्त हो गया है, कृष्ण द्वारा संरक्षित। कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्ता प्राणश . . . ([[[Vanisource:BG 9.31 (1972)|भ. गी. ९.३१ ]])। लेकिन वे कृष्ण की ओर से मानव समाज में काम करते हैं ताकि वे खुश, शांतिपूर्ण और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति कर सकें। यह वैष्णव का कर्तव्य है। अन्यथा वैष्णव का कोई मांग नहीं है। कृष्ण जानते हैं कि उसकी मदद कैसे करें, उसे सभी सुरक्षा कैसे दें। इसलिए उसे कोई चिंता नहीं है। उनकी एकमात्र चिंता है, शोचे ततो विमुख-चेतसा माया-सुखाया भरम उद्वहतो विमूढ़ान (श्री. भा. ७.९.४३ )।"
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