"आत्मा हृदय के भीतर विद्यमान है। और परमात्मा भी विद्यमान है। योगी, वे देखना चाहते हैं। यद्यपि वे हैं, परमात्मा और जीवात्मा, साथ-साथ विद्यमान हैं, और वह आदेश दे रहे हैं, लेकिन हमारी मूर्खता के कारण हम उन्हें नहीं देख सकते, न ही सुन सकते हैं। अंतर-बहि:। वह भीतर है और वह बाहर है, लेकिन हम जैसे दुर्भाग्यशाली, हम उसे न तो भीतर देख सकते हैं और न ही बाहर। यह कैसे संभव है? जैसे परिवार का कोई सदस्य, आपका पिता या भाई, मंच पर अभिनय कर रहा है, लेकिन आप उसे नहीं देख सकते। कोई इशारा कर रहा है, "यह तुम्हारा भाई है, नाच रहा है।" आप उसे नहीं देख सकते। नटो नाट्यधरो यथा (श्री. भा. १.८.१९)। जैसे एक व्यक्ति नाटकीय प्रदर्शन में पोशाक पहने हुए है, उसके रिश्तेदार उसे नहीं देख सकते हैं, इसी तरह, कृष्ण हर जगह हैं, अण्डांतर-स्थ-परमाणु-चयान्तर-स्थम (ब्र. सं. ५.३५)।"
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