"प्रक्रिया यह है कि कृष्ण के बारे में कैसे सोचा जाए। मन-मना भव मद-भक्त: ([[[Vanisource:BG 18.65 (1972)|भ. गी. १८.६५]])। यह ध्यान है। तो यह . . . कीर्तन द्वारा यह बहुत आसान हो जाता है। यदि आप हरिदास ठाकुर की तरह चौबीस घंटे हरे कृष्ण महा-मंत्र का जप करते हैं . . . यह संभव नहीं है। इसलिए जितना संभव हो सके। तीर्थ-यशसा। कीर्तन . . . यह भी कीर्तन है। हम कृष्ण के बारे में बात कर रहे हैं, कृष्ण के बारे में पढ़ रहे हैं, भगवद गीता में कृष्ण के निर्देश को पढ़ रहे हैं या श्रीमद-भागवतम में कृष्ण की महिमा को पढ़ रहे हैं। वे सभी कीर्तन हैं। ऐसा नहीं है कि जब हम संगीत वाद्ययंत्रों के साथ गाते हैं, तो वह कीर्तन है। नहीं। आप कृष्ण के बारे में कुछ भी बात करें, वह कीर्तन है।"
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