"परं दृष्ट्वा निवर्तते (भ. गी. २.५९)। मैं कुछ ऐसा खा रहा हूँ जो बहुत श्रेष्ठ नहीं है, लेकिन अगर मुझे कुछ श्रेष्ठ खाने का मौका मिलता है, तो मैं इस निम्न चीज़ को छोड़ देता हूँ। इसलिए इसे खाली या शून्य बनाने का कोई सवाल ही नहीं है। इस जगह को बेहतर चीज़ों से भरना है। इसलिए जब आप कृष्ण के बारे में सोचते हैं, तो आप माया को भूल जाते हैं। अन्यथा आप माया के जाल में फँस जाते हैं। कृष्ण क्यों कहते हैं, मन-मना भव मद-भक्तो? मामे एव ये प्रपद्यन्ते ( भ. गी. ७. १४)। यह चाहिए। जैसे ही आप अन्याभिलाषी हो जाते हैं, तब यह मुश्किल हो जाता है।"
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