"भक्ति सेवा कोई भौतिक वस्तु नहीं है; यह आध्यात्मिक है। इसलिए इसमें कुछ भी असंभव नहीं है, असंभव। यही आध्यात्मिक जीवन की सच्ची प्रशंसा है। यदि कोई सोचता है कि "प्रह्लाद महाराज केवल पाँच वर्ष के थे। वे भगवान की स्तुति में ऐसे सुंदर श्लोक कैसे प्रस्तुत कर सकते थे?" तो यह संभव है। भक्ति उम्र पर निर्भर नहीं करती। भक्ति सेवा की ईमानदारी पर निर्भर करती है। ऐसा नहीं है कि चूँकि कोई व्यक्ति मुझसे उम्र में बड़ा है, इसलिए वह बड़ा भक्त होगा। नहीं। अहैतुकी अप्रतिहता (श्री. भा. १.२.६)। सबसे पहले, भक्ति बिना किसी उद्देश्य के, बिना किसी व्यक्तिगत इंद्रिय तृप्ति के उद्देश्य के होनी चाहिए। यही वास्तविक भक्ति है। अन्याभिलाषित-शून्यम् (भक्ति-रसामृत-सिंधु १.१.११)। हमें अपनी सभी इच्छाओं को शून्य करना होगा।"
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