"कृष्ण पश्चिमी देशों में कृष्ण भावनामृत का प्रचार करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मुझे इसका श्रेय लेने का मौका दिया, बस इतना ही। (हँसी) यह कृष्ण की व्यवस्था है। लेकिन वह चाहते थे कि उनका कोई भक्त इसका श्रेय ले ले। बस इतना ही। निमित्त-मात्रं भव सव्यसाचिन् (भ. गी. ११.३३)। कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि "मैंने उन्हें पहले ही मार दिया है। वे वापस नहीं आ रहे हैं, या तो आप लड़ें या न लड़ें, लेकिन आप इसका श्रेय ले सकते हैं।" तो यह कृष्ण की व्यवस्था थी कि पश्चिमी देशों में अब कृष्ण भावनामृत होना चाहिए। और वे इसका श्रेय अपने गरीब सेवक को देना चाहते थे। बस इतना ही। कृष्ण को यह पसंद है। वे सब कुछ करते हैं, लेकिन वे इसका श्रेय अपने (हँसते हुए) गरीब सेवक को देते हैं।"
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