"तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन ( भ. गी. ४.३४)। जब प्रणिपाता पर्याप्त रूप से परिपक्व हो जाता है, तब वह परिप्रश्न कर सकता है-सेवा के साथ। अन्यथा परिप्रश्न समय की बर्बादी है। हमारी वैदिक प्रणाली के अनुसार, हमें किसी ऐसे व्यक्ति से कोई प्रश्न नहीं करना चाहिए जिसका उत्तर मैं पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर सकता। तब मैं करूँगा। अन्यथा समय बर्बाद करने का कोई फायदा नहीं है। प्रणिपाता का अर्थ है कि आप स्वीकार कर रहे हैं कि, "मैं आ गया हूँ। उसका उत्तर पूरा होगा।" आगे कोई प्रश्न नहीं। लेकिन अगर थोड़ा संदेह है, तो वह विनम्रतापूर्वक प्रश्न कर सकता है।"
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