"दुष्ट लोग सोचते हैं कि वे स्वतंत्र हैं। अर्थात् . . . वे स्वतंत्र नहीं हैं। पूरी तरह से प्रकृति के नियंत्रण में हैं। अन्यथा जीवन की विभिन्न प्रजातियाँ क्यों हैं? व्यवस्था कहाँ है? व्यवस्था तो है। यदि आप सत्व-गुण में रहते हैं, तो आपको जीवन का उच्चतर रूप मिलता है। प्रकृति का नियम इतना परिपूर्ण है कि उसे बनाने की ज़रूरत नहीं है; यह स्वतः ही है। जैसे यदि आप किसी बीमारी, कीटाणुओं को संक्रमित करते हैं, तो आप स्वतः ही उस बीमारी से पीड़ित हो जाएँगे। इसी तरह, यदि हम संदूषण में हैं, सत्व-गुण, रजो-गुण . . . यहाँ सत्व-गुण . . . सत्व-गुण भी एक संदूषण है। और रजो-गुण, तमो-गुण के बारे में क्या कहना है? इसलिए इसे प्रवृत्ति-मार्ग कहा जाता है। हमारी प्रवृत्ति के अनुसार हम प्रकृति के एक निश्चित प्रकार के गुणों से संपर्क करते हैं और हम भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त कर रहे हैं। कारणं गुण संगो 'स्य सद्-असद् जन्म योनिषु (भ.गी. १३.२२)। कारणम्। क्यों किसी को बेहतर पद मिल रहा है, और किसी को नहीं मिल रहा है? क्यों कोई कुत्ता है, और क्यों कोई करोड़पति है? तो यह भौतिक प्रकृति के विभिन्न गुणों के साथ हमारे संबंध के कारण है।"
|