"स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य। हर कोई अपना व्यावसायिक कर्तव्य निभा रहा है। मैं इसका अर्थ यह देता हूँ, "धर्म का अर्थ है व्यावसायिक कर्तव्य।" यह कोई भावना, विश्वास नहीं है। व्यावसायिक कर्तव्य। इसे धर्म कहा जाता है। ब्रह्मचारी का धर्म, गृहस्थ का धर्म, वानप्रस्थ का धर्म- व्यावसायिक कर्तव्य। इसलिए अपने व्यावसायिक कर्तव्यों का बहुत अच्छी तरह से निर्वहन करके-मशीन विनियमन के रूप में नहीं, नही - परिणाम होगा धर्म: स्वनुष्ठित: पुंसां विश्वक्सेन कथासु य: (श्री. भा. १.२.८): वह धीरे-धीरे कृष्ण को समझने में रुचि रखेगा। वेदैश च सर्वैर अहम एव वेद्यम् (भ. गी. १५.१५)। यही वैदिक अध्ययन है। ऐसा नहीं है कि वेदों का अध्ययन करने के बाद वह निर्विशेषवादी, निर्विशेषवादी या शून्यवादी बन जाता है। फिर बेकार है। श्रम एव हि केवलम्।"
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