"सब कुछ समाप्त हो जाएगा। कृष्ण के अलावा कोई भी हमें कोई सुरक्षा नहीं दे सकता। यदि हम माया के चंगुल से मुक्त होना चाहते हैं जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधि (भ.गी. १३.९)-तो हमें आध्यात्मिक गुरु के माध्यम से कृष्ण के चरण कमलों की शरण लेनी चाहिए और उन भक्तों के साथ रहना चाहिए जो उसी उद्देश्य के लिए खुद को समर्पित कर चुके हैं। इसे कहते हैं . . . वह सटीक शब्द क्या है? सखी या कुछ और। अब मैं भूल रहा हूँ। लेकिन उसी श्रेणी में हमें अपने कृष्ण भावनामृत को जीना और कार्यान्वित करना चाहिए। फिर ये बाधाएँ, गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्य . . . जो कोई भी है . . . सभी कर्मी, वे इस पारिवारिक जीवन से जुड़े हुए हैं, लेकिन परिवार जीवन अच्छा है, बशर्ते कृष्ण भावनामृत हो। गृहे वा वनेते थाके, हा गौरांग बोले डाके। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, चाहे वह पारिवारिक जीवन में हो या संन्यासी जीवन में, अगर वह भक्त है, तो उसका जीवन सफल है।"
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