"प्रह्लाद महाराज की शिक्षा का मूल सिद्धांत यह था कि कौमारं आचरेत प्रज्ञा धर्मान् भागवतं इहा (श्री.भा. ७.६.१)। जीवन के आरंभ से ही बच्चों को भागवत-धर्म के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए। यदि उन्हें जीवन के आरंभ से ही शिक्षित नहीं किया जाता है, तो भूलने की संभावना बनी रहती है। भूलना माया की तरंगों के अधीन होना है। माया के विभिन्न चरण हैं। कोई परिवार से जुड़ा होता है या वह जानवरों से जुड़ा होता है; कोई देश, समाज, इत्यादि से जुड़ा होता है। इस भौतिक संसार से लगाव, यह विभिन्न नामों में हो सकता है। लेकिन कृष्ण भावनामृत का अर्थ है वैराग्य। इसलिए प्रह्लाद ने यहाँ उनका इतना सुंदर वर्णन किया है। वास्तविक कार्य इस भौतिक संसार से वैराग्य है। जब तक हम इस भौतिक संसार से थोड़ी सी भी आसक्ति रखेंगे भोग के लिए, पूर्णता की कोई संभावना नहीं है। उस छोटी सी आसक्ति के लिए, हमें एक शरीर स्वीकार करना पड़ता है। नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म (श्री.भा. ५.५.४)। और जैसे ही हमें शरीर मिलता है, हम इतनी सारी चीजों में लिप्त हो जाते हैं कि हम एक और, अगले जीवन की तैयारी कर रहे होते हैं।"
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