"परमेश्वर का भक्त बनना अस्वाभाविक नहीं है। यह बहुत आसान, स्वाभाविक बात है। स्वभाव से हम कृष्ण, या परम पुरुषोत्तम भगवान से जुड़े हुए हैं। किसी न किसी तरह, परिस्थितिवश, हम अलग हो जाते हैं . . . अलग नहीं, क्योंकि यहाँ कहा गया है आत्मत्वात: परम पुरुषोत्तम भगवान है . . . यद्यपि हम सोचते हैं कि हम उनसे अलग हैं, वे हमारे हृदय में हैं। ईश्वरः सर्व-भूतानां हृद्-देशे अर्जुन (भ.गी. १८.६१)। वे इतने मिलनसार हैं कि यद्यपि हम विमुख हैं-हमें भगवान का शब्द भी पसंद नहीं है- भगवान इतने दयालु हैं कि वे मेरे हृदय में बैठे हैं, ईश्वरः सर्व-भूतानाम। वह तो बस उस अवसर की प्रतीक्षा कर रहें हैं जब हम, जीवात्मा, उनकी ओर देखेंगे। वह हमेशा उत्सुक रहते हैं।"
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