HI/761001 - श्रील प्रभुपाद वृंदावन में अपनी अमृतवाणी व्यक्त करते हैं

HI/Hindi - श्रील प्रभुपाद की अमृत वाणी
"कृष्ण भावनाभावित बनने के लिए, पूर्णतः समर्पित, अन्याभिलाषित-शून्यम (भक्ति-रसामृत-सिंधु १.१.११) बनना, बहुत-बहुत कठिन है, सर्वोच्च स्थिति है। बहुनाम जन्मनाम अन्ते ज्ञानवान (भ.गी. ७.१९)। ज्ञान . . . ज्ञान के बाद, भक्ति की अवस्था है। ज्ञान के बिना भक्ति कनिष्ठ अधिकारी है। ज्ञान के साथ वह उत्तम अधिकारी है। इनका वर्णन चैतन्य ने किया है-मेरा मतलब चैतन्य-चरितामृत में है। तो विचार यह है कि यदि कोई उन्नत भक्त है, तो उसमें सभी अच्छे गुण दिखाई देंगे। यस्यास्ति भक्तिर भगवती अकिंचना ( श्री.भा. ५.८.१२)। अकिंचना, उसकी कोई अन्य इच्छा नहीं है। अकिंचन-भक्ति। यदि उसे पूरी करने के लिए कोई अन्य इच्छा है, तो वह मिश्रित है। यह शुद्ध-भक्ति नहीं है; यह वैधी-भक्ति है। कर्म-मिश्र-भक्ति, ज्ञान-मिश्र-भक्ति, योग-मिश्र-भक्ति। भक्ति होनी चाहिए। अन्यथा, कर्म, ज्ञान, योग, कुछ भी सफल नहीं है।
761001 - प्रवचन श्री.भा. ०१.०७.४० - वृंदावन