"हमें एक ऐसे गुरु को खोजना चाहिए जो परमहंस हो। न कुटीचक, न बहुदक, न परिव्राजकाचार्य। परमहंस। इसलिए चैतन्य-चरितामृत में भी, भगवान चैतन्य कहते हैं, गुरु-कृष्ण-कृपाय पाय भक्ति-लता-बीज (चै. च. मध्य १९.१५१)। यह भक्ति-लता-बीज गुरु और कृष्ण की दया से प्राप्त किया जा सकता है। यहाँ ऋषभदेव, जो कृष्ण के अवतार हैं, इसलिए वे कहते हैं मयि, हंसे गुरुउ मयि। आप इसे पार नहीं कर सकते। कृष्ण: "ठीक है, मैं कृष्ण को जानता हूँ। मैं बिना गुरु के सीधे कृष्ण के पास जाऊँगा।" बहुत से दुष्ट हैं, वे ऐसा कहते हैं। नहीं, यह संभव नहीं है। सबसे पहले गुरु, फिर कृष्ण। हंसे गुरु मयि, भक्तिनुवृत्या। तो ये वर्णन हैं, यह शुरुआत है। यदि हम वास्तव में शास्त्र में दिए गए नुस्खे के वर्णन का अभ्यास करते हैं, तो यह संभव होगा कि, जैसा कि कहा गया है, कर्मानुबद्धो दृढ आशलथेता (श्री. भा. ०५.०५.०९)। तब इस भौतिक संसार को अलग तरीके से भोगने की हमारी प्रबल इच्छा, वह शिथिल हो जाएगी। यही चाहिए।"
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